गौमांस का बिस्कुट...अंग्रेजों के खिलाफ बगावत जानें, क्यों विंध्य के पिंड्रा में भी हुई अंग्रेजों के खिलाफ 1857 जैसी क्रांति

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गौमांस का बिस्कुट...अंग्रेजों के खिलाफ बगावत जानें, क्यों विंध्य के पिंड्रा में भी हुई अंग्रेजों के खिलाफ 1857 जैसी क्रांति

जयराम शुक्ल. भारत में 1857 में कई छोटी जगहों में बड़ी क्रांति हुई। इन्हें भले ही इतिहास में वाजिब स्थान न मिला हो लेकिन लोकश्रुति में अभी भी अमरगान की तरह दर्ज है। विंध्य अंचल का एक ऐसा ही गांव है पिंड्रा जहां 1857 की क्रांति की ज्वाला ऐसे भड़की कि पूरा गांव ही अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में कूद गया और अंग्रेज सेना को सबक सिखाता हुआ कोई एक हफ्ते तक मोर्चा थामे रहा। बाद में अंग्रेज सेना ने गांव को चारों ओर से घेरकर ऐसा नरसंहार किया कि वृत्तांत सुनने- सुनाने वाले की रूह कांप जाए। इस नरसंहार में हजारों की संख्या में अबोध बच्चों व महिलाओं सहित ग्रामीण मारे गए। पिंड्रा की क्रांति में 107 बलिदानियों के नाम खोजे जा चुके हैं। सतना के वरिष्ठ साहित्यकार चिन्तामणि मिश्र ने अपनी शोध पुस्तक 'सतना जिला का 1857' में हर एक वृत्तांत शोध और साक्ष्य के साथ प्रस्तुत किया है। तो चलिए आपको बताते हैं पिंड्रा की क्रान्ति-कथा चिन्तामणि मिश्र के शोधप्रबंध के माध्यम से।



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क्रांतिकारियों का आश्रय स्थल रहा बरौधा 



सतना से 40 किमी दूर चित्रकूट के प्रवेश द्वार मझगवां से 7 किमी उत्तर की ओर पयस्विनी नदी के किनारे बसा है ग्राम पिंड्रा। 1857 में गांव की आबादी रही होगी कुछ 4 हजार। तब पिंड्रा बघेलखंड की छोटी सी रियासत बरौधा का एक गांव था। यह गांव रीवा से बांदा और इलाहाबाद (प्रयाग) से नागौद का एक तरह से जंक्शन था। अंग्रेजी फौज का यही मुख्यमार्ग भी था। रीवा का राजा रघुराज सिंह अंग्रजों का गुलाम था और नाना साहब पेशवा और बाबू कुंवर सिंह को दो टूक जवाब दे चुका था कि रीवा राज्य में क्रांति की गतिविधियों को बरदाश्त नहीं किया जाएगा। उसकी तोपें बागियों के लिए तनी हैं। लिहाजा रीवा राज्य के क्रांतिकारियों के लिए बांदा-बरौंधा-अजयगढ़ ही आश्रय स्थल रहा।



पिंड्रा का हर ग्रामीण गोरे अंग्रेजों से नफरत करता था 



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विन्ध्य के क्रांतिवीर ठाकुर रणमत सिंह, ठाकुर धीर सिंह, अजयगढ़ के फरजंद अली और लोकपाल सिंह का बसेरा प्रायः पिंड्रा में ही रहता था। ठाकुर धीर सिंह और पिंड्रा के पंडित रमापत और पुन्नू बहेलिया पंजाब में सिख क्रांतिकारियों के साथ भी अंग्रेजों से लड़ चुके थे। एक तरह से पिंड्रा गांव की धमनियों में राष्ट्रप्रेम और आंखों में क्रांति की ज्वाला थी। यहां का हर ग्रामीण गोरे अंग्रजों से नफरत करता था। यहां क्रांतिकारियों का आना-जाना लगा रहता था। इस बीच एक घटना घटी जो आगे की क्रांति कथा का सबब बनी।



गौमांस का बिस्कुट.. और  भीड़ ने अंग्रेजों के हाथ-पांव में कीलें ठोक दीं 



इलाहाबाद से 7 जून 1858 को एक मिशनरी पादरी नागौद जाने के रास्ते पिंड्रा में रुका। वह घोड़ा गाड़ी में था, 8 जून को जब प्रातः वह नागौद के लिए प्रस्थान कर रहा था तभी बस्ती में अफवाह फैल गई कि पादरी ने गौमांस मिले बिस्कुट बांटे हैं। भीड़ ने पादरी को घेर लिया और पिटाई कर दी। बीच बचाव में पादरी की जान बच गई। उसी दिन दोपहर में दो अंग्रेज अफसर और तीन देसी सिपाही उसी रास्ते डभौरा जा रहे थे। पादरी ने उनसे फरियाद की। अंग्रेज व सिपाही सड़क के किनारे बने घरों में घुसकर महिला-पुरुषों को पीटने लगे। जैसे ही खबर बस्ती पहुंची, लोग लाठी-डंडे-तलवार लेकर घटना स्थल पहुंच गए। भीड़ को आते देख तीनों देसी सिपाही खिसक लिए। बचे दोनों अंग्रजों अपनी बंदूक की संगीन दिखाकर भीड़ को डराने लगे। भीड़ ने दोनों अंग्रजों के हथियार छीने, कपड़े उतरवाए और ले जाकर इमली के पेड़ से बांध दिया। अंग्रजों के प्रति पहले से ही भरी नफरत के चलते उन दोनों हुक्मरानों के हाथ-पांव में लोहे की कीलें ठोक दीं। 



विद्रोहियों ने अंग्रेजी सेना को भागने के लिए विवश कर दिया 



घटना की खबर नागौद के पॉलटिकल एजेंट तक पहुंची तो उसने सबक सिखाने की नीयत से सौ सैनिकों को पिंड्रा भेज दिया। पहली बार पिंड्रा के बहादुर ग्रामीणों और अंग्रेज सैनिकों में भिड़ंत हुई, यह झड़प दो दिन चली। पिंड्रा के विद्रोहियों ने अंग्रेज सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। इस झड़प में अंग्रेजी सेना 19 सैनिक मारे गए और पिंड्रा के दलगंजन सिंह, अयोध्या प्रताप सिंह पंडित रमापत शहीद हो गए। 13 जून को ठाकुर रणमत सिंह और बाबू कुंवर सिंह के छोटे भाई अमर सिंह पिंड्रा आए व यहां के जवानों का हौंसला बढ़ाया। तब तक यह आभास हो चुका था कि अंग्रज फिर बड़ी सेना लेकर आएंगे, सो इसलिए छापामार लड़ाई की तैयारी की गई। किसी आवश्यक सूचना पर रणमत सिंह नागौद की ओर चले गए और अमर सिंह क्रांतिकारियों के ठिकाने डभौरा (रीवा)।



पारंपरिक हथियारों से किया अंग्रेजी सेना का मुकाबला   



इलाहाबाद और बांदा की अंग्रेज सेना ने जनरल लुगार्ड की कमान में 23 जून को पिंड्रा की घेराबंदी शुरू की। लेकिन पिंड्रा के बहादुरों ने पयस्विनी नदी के उस पार मोर्चा जमा लिया। रात में क्रांतिकारियों ने अंग्रेज सेना पर जबरदस्त हमला कर उन्हें भागने को मजबूर कर दिया। दो दिन बाद अंग्रेज तोपखाना तथा सेना की कुछ और टुकड़ियां तैनात कर दीं। गांव पर भीषण गोलाबारी शुरू हो गई। हुनमान जी का मंदिर नष्ट हो गया। गांव के जांबाज बहादुरों ने अलग-अलग कई मोर्चे खोल दिए। लड़ाई भीषण हो गई। अंग्रेज फौज के पास गोलाबारूद, बंदूकें, तोप सभी जंगी सामान थे। इधर गांव के बहादुर अपने पारंपरिक हथियारों से अचानक हमले की लड़ाई लड़ रहे थे। 



छह दिनों तक चला भीषण युद्ध, 35 शहीदों के नाम सामने आए 



छह दिन तक भीषण घमासान मचा रहा। इस युद्ध में हजारों की संख्या में लोग मारे गए। इसमें केवल 35 शहीदों के नाम ही प्रकाश में आए, जिन्हें सतना के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सीताराम नेपाली और इतिहासकार भगवान दास सफड़िया ने विभिन्न स्त्रोतों से जुटाया..। इन शहीदों के नाम इस प्रकार हैं- कल्लू बहेलिया, जगदेव बहेलिया, पुन्नू बहेलिया, सुखराम बहेलिया, लालू बहेलिया, रामकंठ बहेलिया, घनश्याम किशन बहेलिया, रामभद्र बहेलिया, चिन्नू बहेलिया, त्रिभुवन बहेलिया, मोती बहेलिया, हरिशरण बहेलिया, कनका बहेलिया, विलोचन बहेलिया, कारीगर बहेलिया, निहोरे बहेलिया, माणिकलाल ब्राह्मण, बिन्दा बहेलिया, चन्द्रशेखर ब्राह्मण, ठाकुर सरजू सिंह, रामाधीन कोल, फगुना कोल, सहोलिया कोल, बैशाखू नाई, पुष्पक नाई, रामकिशोर, उमादत्त, गैवी प्रसाद, रामसजीवन बहेलिया, इन्दुजीत बहेलिया, सुजात बहेलिया व क्रांति बहेलिया।



बौखलाए अंग्रेजों ने ग्रामीणों को लाइन में खड़ा कर मारी गोली



पिंड्रा के इस युद्ध में अंग्रेजी सेना का भी काफी नुकसान हुआ। ग्रामीण बहादुरों ने टांगी, फरसे, हंसिया बल्लम से अंग्रेज सेना के जवानों को गाजरमूली की भांति काटा। खून पूरे गांव के सिर पर सवार था। इधर अंग्रेज हुकूमत समूचे पिंड्रा गांव को ही नेस्तनाबूद करने की योजना बना चुकी थी। कुछ दिन बाद अंग्रेजी सेना के जवानों ने फिर पिंड्रा गांव में हमला बोला। उस समय गांव शोक में डूबा था। अंग्रेजी सेना के सिपाहियों ने घर-घर घुसकर महिला-बच्चों, जवानों और प्रौढ़ों को निकाला और बन्दी बनाकर पिंड्रा गांव के पश्चिम पचपेड़ बांध ले गए। वहां सभी को लाइन से खड़ा किया और एक साथ ऐसे गोली मारी जैसे कि चांदमारी का अभ्यास कर रहे हों।



गुमनामी में खो गए कई शहीदों के नाम 



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इस बर्बर हत्याकांड में हुए शहीदों के जो नाम सामने आए हैं उनमें- किशोरी लाल ब्राह्मण, धनपतलाल ब्राह्मण, रघु कोल, बैसखिया कोल, नोखवा कोल, मूलचंद बानी, महेश ब्राह्मण, जलोदर काछी, बक्सा काछी, गिरजा काछी, शंकर सोनार, जमुना सोनार, कंधीराम बढ़ई, दशरथ बढ़ई, रामप्रसाद बढ़ई, ठाकुर ललन सिंह, कपूरिया तेली, दद्दी काछी, भूरा बहेलिया, जगन बहेलिया, सद्दू बहेलिया, धौकल बहेलिया, अयोध्या प्रसाद, रामेश्वर बहेलिया, कुंजीलाल बहेलिया, बाबूराम बहेलिया, रामभजन भुंजवा, हामिद पिंडारी, बरकत पिंडारी, रजनी पिंडारी, साबिर पिंडारी, सुदामा सिंह, शांतिलाल, नारायण प्रसाद, रमकल्ला नाई, विसाल बहेलिया, बिरजू बहेलिया, नवल बहेलिया, सुजान बहेलिया, सुजान लोहार, कमरधुवा बहेलिया, विलखुआ, सूरतदीन, महादेव, इन्दुजीत बहेलिया, घनश्याम सिंह, वंशू बहेलिया, गजाधर प्रसाद, सोनेलाल बहेलिया, सरजू बहेलिया, पुष्पा, रामसेवक, शिवप्रसाद, सुरजीत बहेलिया, हनुमान प्रसाद भूमिहार, जंगलिया भूमिहार, गंदर्भ सिंह, भदवा कोल, कढ़हा ढीमर हैं। ये वो नाम हैं जो किसी न किसी रूप में अँग्रेज पॉलिटिकल एजेंट के दफ्तर के कागजातों में दर्ज मिले। इससे कई गुना संख्या में शहीद हैं जो कि गुमनामी में खो गए।



पिंड्रा का बच्चा-बच्चा 1857 की क्रांति से जुड़ था 



बुन्देलखंड और बघेलखंड को जोड़ने वाला पिंड्रा जैसा छोटा गांव क्रांतिकारियों का गढ़ था। इसका उल्लेख अंग्रेजी फौज के दस्तावेजों में है। बिहार के शाहाबाद में 7 फरवरी 1859 की एलेन डाक (पत्राचार) में 40 वीं पल्टन की पहली कंपनी के हवलदार रजितराम यादव का जिक्र करते हुए लिखा गया कि इसने दानापुर की बगावत में भाग लिया और फिर कुंवर सिंह और अमर सिंह की फौज के साथ राबर्ट्सगंज मिर्जापुर होते हुए रीवा गया, लेकिन रीवा में ना रुककर  पिंड्रा पहुंच गया। बाबू कुंवर सिंह की फौज डभौरा में रणजीत राय दीक्षित के यहां रुकने के बाद पिंड्रा पहुंची और यहां दो दिन रही। पिंड्रा गाँव का बच्चा- बच्चा सन् संतावन की क्रांति से जुड़ चुका था।



इतिहास ने पिंड्रा के योगदान के साथ न्याय नहीं किया



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पिंड्रा में अंग्रेजों के खिलाफ 1857 की क्रांति इस मायने में अनोखी थी कि जो लोग अंग्रेजी हुकूमत से लड़ रहे थे वे साधारण लोग थे, दलित, आदिवासी, गरीब ब्राह्मण, क्षत्रीय महिलाएं और यहां तक कि बच्चे भी। इनका नेतृत्व कोई नामधारी नेता या सामंत नहीं कर रहा था। इतिहास ने पिंड्रा के योगदान के साथ न्याय नहीं किया। ना इसे इतिहास की किताबों में वह दर्जा मिला और ना ही क्रांति की अमरगाथाओं में। सन् संतावन की बरसी पर एक कीर्तिस्तंभ जरूर खड़ा किया गया लेकिन वह कभी भी सियासतदानों के आदर व स्मरण में नहीं रहा। यह बात अलग है कि पिंड्रा-बरौधा के खेत-खलिहानों में इन अमर बलिदानियों की शौर्यगाथाएं अब भी महकती हैं। लोकश्रुति और किवंदन्तियों के जरिए।


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