MP: निजी अस्पतालों के लिए वरदान है फायर एनओसी के सिस्टम की खामी, प्रोवीजनल एनओसी पर ही चलते रहते हैं हॉस्पिटल

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The Sootr CG
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MP: निजी अस्पतालों के लिए वरदान है फायर एनओसी के सिस्टम की खामी, प्रोवीजनल एनओसी पर ही चलते रहते हैं हॉस्पिटल

राजीव उपाध्याय / अंकुश मौर्य, JABALPUR. जबलपुर में निजी अस्पताल न्यू लाइफ मल्टी स्पेशियलिटी हॉस्पिटल (New Life Multi Specialty Hospital) में लगी आग ने सरकार और अस्पताल संचालकों (Hospital Operator) की नीति और नीयत पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस हादसे में आठ लोग जिंदा जलकर मर गए। इससे पहले नवंबर 2021 में भोपाल (Bhopal) के कमला नेहरू अस्पताल (Kamla Nehru Hospital) में लगी आग के बाद सरकार ने प्रदेश के सभी अस्पतालों का 30 नवंबर 2021 तक फायर ऑडिट करवाने के निर्देश दिए थे। लेकिन सरकारी तंत्र में लापरवाही (Negligence) और निकम्मापन इस हद बढ़ गया है कि खुद सरकार के मुखिया शिवराजसिंह चौहान (Shivraj Singh Chouhan) के फरमान के 8 महीने बाद तक भी अस्पतालों में फायर सेफ्टी के लिए जरूरी व्यवस्थाएं सुनिश्चित नहीं हो पाई हैं। जबलपुर में हुए हादसे ने एक बार फिर सिस्टम की खामियों औऱ  निगरानी तंत्र की लापरवाही की कलई खोल दी है। आइए आपको बताते हैं कि जबलपुर में किस तरह सरकार के नियम-प्रक्रियाओं को अंगूठा दिखाकर हादसे को न्योता दिया गया।  





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आवेदन में बिल्डिंग कंप्लीशन सर्टिफिकेट की जगह लगाया लेआउट





जबलपुर में न्यू लाइफ मल्टी स्पेशियलिटी हॉस्पिटल का लाइसेंस लेने के लिए मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी (सीएमएचओ) को जो आवेदन दिया गया उसमें नगर निगम के बिल्डिंग कंप्लीशन सर्टिफिकेट की जगह बिल्ंडिंग का लेआउट लगा दिया गया था। इस ले आउट में साफ नजर आ रहा है कि अस्पताल में अंदर जाने और बाहर निकलने का सिर्फ एक ही रास्ता था। इसके बावजूद सीएमएचओ (CMHO) और स्वास्थ्य विभाग (Health Department) की तत्कालीन जांच टीम ने अस्पताल मैनेजमेंट को रजिस्ट्रेशन जारी कर दिया।





बिल्डिंग परिसर में फायर ब्रिगेड के लिए नहीं था साइड स्पेस 





अस्पताल में आग लगने पर फायर ब्रिगेड के आनेजाने के लिए बिल्डिंग के अगल-बदल में 3.6 मीटर का साइड स्पेस होना जरूरी है। ऐसा नहीं है होता है तो ये मप्र भूमि विकास नियम 2012 और नेशनल बिल्डिंग कोड 2016 का उल्लंघन माना जाता है। लेकिन अस्पताल बिल्डिंग के निर्माण में इस प्रावधान का उल्लंघन किए जाने के बाद भी रजिस्ट्रेशन औऱ लाइसेंस जारी करने वाले अधिकारियों ने आंखों पर पट्टी बांध ली।  





जांच कमेटी ने खामियों को किया नजरअंदाज 





अगस्त 2021 में सरकार ने प्रदेश में सभी अस्पतालों के निरीक्षण के लिए हर जिले में 6 सदस्यीय कमेटी गठित की थी। लेकिन जबलपुर में इस अस्पताल का निरीक्षण करने वाली कमेटी के सदस्यों ने सभी खामियों को नजरअंदाज कर अपनी रिपोर्ट में सभी नियमों का पालन बता दिया। हैरानी की बात ये है कि बिल्डिंग कंप्लीशन सर्टिफिकेट नहीं होने के बाद भी अस्पताल को मंजूरी दे दी गई।



 



ठोस कार्रवाई करने के बजाय कागजी घोड़े दौड़ाते हैं अधिकारी 





नियमों का पालन कराने की जिम्मेदारी अधिकारियों की है। लेकिन जनता के पैसों से भरने वाले सरकारी खजाने से मोटी सैलरी लेने वाले अफसर गंभीरता और संवेदनशीलता से अपने फर्ज को अंजाम देने के बजाय कागजी घोड़े दौड़ाकर खानापूर्ती करते हैं। जबलपुर के हादसे के बारे में जिले के सीएमएचओ डॉ.रत्नेश कुरारिया से सवाल करने पर वे कहते हैं कि उन्होंने तो नोटिस जारी किए थे। लेकिन अस्पताल संचालकों ने ही ध्यान नहीं दिया। यानी सीएमएचओ अस्पताल संचालकों की लापरवाही पर कड़ी कार्रवाई करने के बजाय नोटिस जारी करके खानापूर्ती करते रहे। यदि वे अपने अधिकारों का उपयोग करते तो संचालकों को खामियां दूर करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य कर सकते थे। वे चाहते तो अस्पताल का रजिस्ट्रेशन भी रद्द कर सकते थे। इससे दूसरे लापरवाह अस्पताल संचालको को भी नसीहत मिलती।   





फायर एनओसी के प्रावधान में ही खामी





दरअसल सरकार के फायर सेफ्टी ऑडिट और एनओसी के नियमों में ही बेहद खामी है। पिछले साल जब भोपाल के कमला नेहरू अस्पताल में आगजनी की घटना हुई और 4 मासूमों की मौत हुई थी तब भी सरकार ने फायर सेफ्टी ऑडिट के आदेश दिए थे। लेकिन ये ऑडिट की कवायद महज खानापूर्ति ही रही। इसे लेकर एक पीआईएल जबलपुर हाईकोर्ट में दायर की गई। कोर्ट ने सरकार से इस पर जवाब मांगा लेकिन तीन महीने से सरकार ने जवाब ही नहीं दिया। जबलपुर के एडवोकेट विशाल बघेल ने पिछले दिनों आरटीआई से जबलपुर के अस्पतालों की जानकारी मांगी थी। विशाल बघेल के मुताबिक जबलपुर में ही ऐसे 40 फीसदी अस्पताल है जो किसी भी तरह के नॉर्म्स को पूरा नहीं करते। जबकि सरकार ने मई 2021 में सभी अस्पतालों को फायर सेफ्टी नॉर्म्स पूरा करने के निर्देश दिए थे। अस्पतालों के निरीक्षण भी हुए, जिनके पास एनओसी नहीं थी उन्हें प्रोविजनल एनओसी दे गई है। यहीं प्रोविजनल एनओसी सबसे बड़ी खामी है, जिसका फायदा अस्पताल उठा रहे हैं।





ऐसे मिलती है फायर एनओसी





अस्पताल संचालक को नगर निगम में आवेदन देना होता है। आवेदन के आधार पर नगर निगम के अधिकारी बिना फायर ऑडिट के प्रोविजनल एनओसी जारी कर देते हैं। नियम के मुताबिक प्रोविजनल एनओसी जारी होने के एक साल के भीतर जरूरी फायर इक्विपमेंट इंस्टाल करने होते हैं। कंप्लीशन रिपोर्ट के आधार पर टेंपरेरी एनओसी मिलती है। यानी प्रोविजनल एनओसी लेकर एक साल तक आग बुझाने के संसाधनों के बिना भी काम चल जाता है। ज्यादातर अस्पताल संचालक सिस्टम के इसी लूप होल का बेजा फायदा उठाते हैं। 





प्रोविजनल एनओसी की आड़ में चलते रहते हैं अस्पताल





प्रोविजनल एनओसी (Provisional NOC) जारी करने के बाद नगर निगम के जिम्मेदार अमले को भी अस्पतालों का ऑडिट करने की फुर्सत नहीं रहती। अधिकारी देखने भी नहीं जाते कि अस्पताल में जरूरी उपकरण लगे हैं या नहीं। देखा भी जाता है तो प्रोविजनल एनओसी की डेडलाइन खत्म होने की सूचना सीएमएचओ को दी जाती है। सीएमएचओ अस्पतालों को रिमाइंडर नोटिस जारी करते हैं। आरटीआई लगाने वाले एडवोकेट विशाल बघेल की मानें तो केवल कागजों पर ही जरूरी उपकरण लगे होना बता दिया जाता है जबकि हकीकत में नियमानुसार आग बुझाने की व्यवस्था और उपकरण होते ही नहीं हैं। उनका कहना है कि जब तक ऐसे हादसों के लिए संबंधित विभाग के अधिकारियों को भी जिम्मेदार मानकर कड़ी कार्रवाई नहीं की जाएगी तब तक नियमों का सख्ती से पालन मुश्किल हैं।



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