Bhopal: किसी भी देश या प्रदेश की भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि उसके लोग उस वहाँ के आर्थिक-सामाजिक विकास में कितना योगदान दे पा रहे हैं। और ये योगदान भी गुड़वत्तापूर्ण तभी हो सकता है जब वहाँ के लोग एक स्वस्थ और खुशहाल जीवन जी रहे हो - सिर्फ शारीरिक ही नहीं मानसिक तौर पर भी। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार विशेषकर कोरोना महामारी के बाद लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देने की जरुरत ज्यादा बढ़ गई है। पर अगर मध्य प्रदेश में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर मौजूदा हालातों को देखा जाए तो साफ़ है वर्तमान में किए जा रहे सरकारी और सामाजिक प्रयासों नाकाफी हैं। मानसिक रोग के प्रति जागरूकता की कमी और रिसोर्सेज जैसे सायकाइएट्री अस्पतालों और साइकेट्रिस्ट की भारी कमी के चलते रोगियों में ट्रीटमेंट गैप काफी ज्यादा है। आप जानकर चौंक जाएंगे कि प्रदेश की साढ़े आठ करोड़ की आबादी में से सवा करोड़ लोगों को मानसिक चिकित्सा की जरूरत हैं, पर इसमें से 75% से 85% मानसिक रोगियों की मानसिक चिकित्सा तक पहुंच ही नहीं हैं। जहाँ जरूरत 2500 मनोचिकित्सकों की है वहाँ सिर्फ 150 मनोचिकित्सक ही मौजूद हैं। विशेषज्ञों के अनुसार जहाँ हर एक लाख पर 3 मनोचिकित्सक होने चाहिए वह ये आंकड़ा हर एक लाख पर 0.05 से भी कम हैं! ये सब तब है जब राज्य में पिछले 2 दशकों से भी ज्यादा समय से यानी साल 1997 से डिस्ट्रिक्ट मेंटल हेल्थ प्रोग्राम चालू है। अगर यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब मप कोविद के बाद मानसिक बीमारियों के महामारी से जूझ रहा होगा। हालांकि मध्य प्रदेश सरकार ने हाल में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कुछ पहल की है - जैसे सुसाइड प्रेवेन्शन पॉलिसी लागू करने की घोषणा और टेली मानस सेंटर...पर यहाँ बड़ा सवाल ये उठता है कि जब पिछले 25 सालों से चले आ रहे डिस्ट्रिक्ट मेन्टल हेल्थ प्रोग्राम से जब लोगों को मानसिक स्वास्थ्य से जुडी सुविधाएं मुहाइयाँ नहीं करवा पाए तो ये नयी योजनाएं कितनी कारगर हो पाएंगी? पढ़िए अंतर्राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर द सूत्र की ये रिपोर्ट..
मानसिक स्वास्थ्य में MP की हालत ख़राब
मध्य प्रदेश की कुल जनसँख्या है साढ़े आठ करोड़....और इस आबादी का एक बड़ा तबका यानी सवा करोड़ लोग मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं। इस सवा करोड़ में से 75% से 85% मानसिक रोगियों की आज भी मेन्टल हेल्थ केयर तक पहुंच नहीं हैं। 2015-2016 के नेशनल मेन्टल हेल्थ सर्वे के हिसाब से तो मध्यप्रदेश में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाओं की स्थिति अन्य राज्यों के मुकाबले बहुत ही खराब है। इस सर्वे में जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (DMHP) की हालत भी चेक की गई थी।
क्या है जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम
- MP में DMHP कार्यक्रम 1997-98 में NMHP (राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम) के तहत वर्ष 1996 में शुरू किया गया था। जिसका मकसद था कि सभी जिलों में कम्युनिटी लेवल पर मेंटल हेल्थ की सुविधाएं पहुँच सकें। इसके तरीके थे:
पर 2015-16 के सर्वे में मध्य प्रदेश में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सुविधाओं के मामले में 10 अंक में से शून्य या फिर सिर्फ दो नंबर मिले थे। इस सर्वे में मध्य प्रदेश का समग्र औसत स्कोर वर्ष में 100 में से 31 था। 2015-16 के सर्वे में 51 जिलों में से राज्य के 13.7% जिलों को जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत कवर तो किया गया। 2012 से पहले तो सिर्फ दो ही जिले ऐसे थे जहाँ डीएमएचपी की शुरुआत हुई थी। लगभग 11.8% जिला/सामान्य अस्पताल मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने में शामिल थे। मनोचिकित्सक की उपलब्धता 0.05 प्रति लाख जनसंख्या थी। मानसिक स्वास्थ्य के लिए राज्य द्वारा कुल स्वास्थ्य बजट का सिर्फ 0.2% आवंटित किया गया।
भोपाल के जाने-माने मनोचिकित्सक और मध्य प्रदेश स्यूसाइड प्रिवेंशन पालिसी बनाने में इन्वॉल्व डॉक्टर सत्यकांत त्रिवेदी का कहना है कि WHO के अनुसार हर 4 में से एक व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य की समस्या होती है। और COVID के बाद सामजिक-आर्थिक स्थितयों में बड़े बदलाव होने की वजह से इस संख्या में 30% से 40% की बढ़ोत्तरी हुई हैं। यानी मध्य प्रदेश की बात करें तो राज्य की 20% से 30% जनसँख्या किसी न किसी तरह की मानसिक समस्या से जूझ रही है।
75% से 85% का ट्रीटमेंट गैप क्यों: मैनपावर और स्टाफ की भारी कमी
- मध्य प्रदेश में जहाँ जरूरत 2500 मनोचिकित्सकों की है वहाँ सिर्फ 150 मनोचिकित्सक ही मौजूद हैं। विशेषज्ञों के अनुसार जहाँ हर एक लाख पर 3 मनोचिकित्सक होने चाहिए वह ये आंकड़ा हर एक लाख पर 0.05 से भी कम हैं! यहाँ तक की MP में सरकार हर डिस्ट्रिक्ट में मनोरोगियों की काउंसेलिंग के लिए जो मनकक्ष चलाती हैं- इसमें नियमों के अनुसार हर मनकक्ष में एक काउंसेलर और एक साइकेट्रिस्ट भी होना चाहिए। पर डॉक्टर्स/मैनपावर की कमी से ऐसा मुमकिन नहीं हो नहीं पाता।
मेंटल हेल्थ पर खर्च
आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि वैश्विक स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य के कुल मामलों में भारत से 15 फीसदी केस हैं। पर देश में इस स्तर पर खर्च और प्रयास कम ही हैं। भारत सरकार ने साल 2022 के लिए 39.45 लाख करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया था, इसमें स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग को 83,000 करोड़ रुपये आवंटित किए। साल 2021-22 में 71,269 करोड़ रुपये के बजट की तुलना में इस साल लगभग 16.5 प्रतिशत की वृद्धि की गई थी। वही 2022-23 में टर्सरी केयर प्रोग्राम के तहत, नेशनल मेन्टल हेल्थ प्रोग्राम को 40 करोड़ रुपए दिए गए हैं. साथ ही में मेन्टल हेल्थ के लिए कार्यरत बेंगलुरु के NIMHANS को 560 करोड़ रुपए दिए गए हैं। सत्यकांत त्रिवेदी का कहना है की मानसिक स्वास्थ्य को सामाजिक और सरकारी तौर पर प्राथमिकता मिले, उसके लिए बजट की आवश्यकता है। जबतक मानसिक स्वास्थ्य पर स्वास्थ्य का एक बड़ा हिस्सा खर्च नहीं होगा..तब तक असरकारी/ स्ट्रक्चरड कार्य नहीं हो सकता।
सरकार की नई योजना कारगर होंगी? क्या ऑनलाइन काउंसलिंग सही हल हैं?
- भारत सरकार बहुत जल्द ही टेलेमानस सेंटर्स शुरू करने वाली है...इसके तहत हर राज्य में एक टेलीमानस सेल होगा। जिसमें हर वक़्त एक कौंसलर मौजूद होगा। जो लोगों को उनकी मानसिक परेशानियों को लेकर काउंसिल करेगा। MP में शुरू में ग्वालियर और इंदौर में टेली मानस सेंटर्स खोले जाएंगे। इसमें कर सेंटर पर 20 काउंसलर्स नियुक्त होंगे। जो 24-घंटे अपनी सेवाएं देंगे।इसके अलावा हर सेंटर पर एक साइकेट्रिस्ट और एक क्लीनिकल साइकोलोजिस्ट भी होगा।
महानगरों में बढ़ रही हैं भूलने की बीमारी: हर दूसरे मानसिक रोगी को भूलने की शिकायत
महानगरों में भूलने की बीमारी की शिकायतें बढ़ रहीं हैं। विशेषकर कोरोना महामारी के बाद यह और व्यापक होती नजर आ रही है। चिंता-तनाव और अवसाद की वजह से केस तेजी से बढ़ रहे हैं। मानसिक रोग का शिकार हर दूसरा व्यक्ति भूलने की शिकायत कर रहा। हैइस मामले पर डॉक्टर सत्यकांत त्रिवेदी का कहना हैं कि भूलने की बीमारी यानी याददाश्त सम्बन्धी परेशानियाँ भी ख़राब मानसिक स्वास्थ्य का बड़ा हिस्सा है। और COVID के बाद की बात करें तो मेन्टल हेल्थ इश्यूज की वजह से लोगों में स्यूडोएमनीज़िया (PSUEDOAMNESIA) यानी भूलने की बीमारी में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है। इसे मेन्टल फॉग भी कहते हैं। लोगों को छोटी-छोटी बातें याद रखने में और फोकस दिक्कत हो रही है...स्टडीज के अनुसार COVID का वायरस ब्रेन के कुछ हिस्सों में सूजन के लिए ज़िम्मेदार है। लेंसेट की एक स्टडी के अनुसार COVID की बीमारी की वजह से हो रहीं याददाश्त सम्बन्धी परेशानिया 2 से 2.5 सालों तक बनी रह सकती है। शहरों में सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ ज्यादा है। क्वालिटी ऑफ़ लाइफ ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले ज्यादा ख़राब है। पारिवारिक और व्यक्तिगत समय पूँजीवाद और बाजारवाद की भेंट चढ़ गया है। इन्ही सब वजह से शहरों में याददाश्त सम्बन्धी परेशानियाँ भी ज्यादा हो रहीं हैं।"
कुछ तथ्य
- 15 से 40 साल के आयुवर्ग के लोगों को ज्यादा होती है मानसिक बीमारियाँ...इस आयुवर्ग में होने वाली मौतों का दूसरा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है...जो कि ख़राब मानसिक स्वास्थ्य का ही उदाहरण है।