भोपाल. मध्य प्रदेश के पहले कार्यवाहक मुख्यमंत्री भगवंत राव मंडलोई थे। आज के दिन 9 जनवरी 1957 को वे कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने थे। 30 जनवरी 1957 तक वे इस पद पर रहे। जब वे पूर्णकालिक सीएम बने तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को उनका नाम भी नहीं पता था। आज हम आपको उनके कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनने की कहानी बता रहे हैं।
पहले मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल के निधन (31 दिसंबर 1956) के बाद मंडलोई कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने थे। फिर जब दूसरे मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू चुनाव हारकर इलाहाबाद लौट गए तो मंडलोई मध्यप्रदेश के तीसरे मुख्यमंत्री बने थे।
शुक्ल के निधन के बाद बदली राजनीति: शुक्ल के निधन के बाद सबको लगा कि अब वो होगा, जो कांग्रेस हाईकमान और नेहरू चाहते थे– मध्यभारत के मुख्यमंत्री और शुक्ल कैबिनेट में दूसरे नंबर पर रहे तख्तमल जैन मुख्यमंत्री बनेंगे। इससे पहले कोई तख्तमल जैन का नाम लेता, बुजुर्ग कांग्रेस नेता शंकरलाल तिवारी ने एक ऐसा नाम आगे बढ़ा दिया, जिसके बारे में किसी ने सोचा नहीं था– वो थे भगवंतराव मंडलोई।
तख्तमल का नाम लेते ही मामला मध्यभारत कांग्रेस कमेटी vs महाकौशल कांग्रेस कमेटी हो जाता। और ये लड़ाई 88 विधायकों वाली मध्यभारत कांग्रेस 150 विधायकों वाली महाकौशल कांग्रेस से सपने में भी नहीं जीत सकती थी। बमुश्किल दो महीने पहले एक छत के नीचे बैठी मध्यभारत, विंध्य और महाकौशल की कांग्रेस कमेटियां अलग-अलग दिशाओं में भाग रही थीं। तख्तमल हाथ मलते रह गए और भगवंतराव मंडलोई पहली बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। कार्यवाहक ही सही, लेकिन मुख्यमंत्री।
मंडलोई खंडवा वाले: वकालत से करियर शुरू करने के बाद मंडलोई स्वतंत्रता आंदोलन और कांग्रेस से जुड़े। जिंदगी के पहले 50 साल उन्होंने खंडवा में ही लगाए। आजादी के बाद रविशंकर शुक्ल के कैबिनेट में उन्हें मंत्री पद मिला, तब जाकर वो प्रदेश की राजनीति में उठे। इसलिए नए मध्य प्रदेश के दीगर नेता उन्हें अपने से काफी जूनियर मानते थे। खासकर वो, जो आजादी से पहले ही कांग्रेस में ऊपर उठ गए थे। इन्हीं में से एक थे कांग्रेस अध्यक्ष सेठ गोविंददास, जिनके दिल्ली वाले बंगले पर रविशंकर शुक्ल ने आखिरी सांस ली थी। मंडलोई के कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनते ही एक संभावना पैदा हो गई कि स्थाई मुख्यमंत्री पद भी महाकौशल के पास ही रहे। और महाकोशल से कौन? गोविंददास कहते थे – मैं।
बनते-बिगड़ते समीकरण: गोविंददास ने इसके बाद तख्तमल से हाथ मिला लिया और हाईकमान के सामने ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि मध्य प्रदेश को मंडलोई की जगह कोई ‘सक्षम’ मुख्यमंत्री चाहिए। दिल्ली में जा-जाकर मौलाना आजाद से लेकर नेहरू और पंत तक से मिले। विंध्य कांग्रेस से शंभूनाथ शुक्ल ने गोविंददास और तख्तमल का साथ दिया। ये एक बड़ी वजह रही कि मंडलोई कार्यवाहक ही रहे और उन्हें शपथ लेने के 21 वें दिन एक पैराट्रूपर डॉ कैलाशनाथ काटजू के लिए जगह खाली करनी पड़ी. तख्तमल फिर पहले की तरह नंबर दो बने रहे।
नेहरू तक नहीं जानते थे: डॉ. कैलाशनाथ काटजू ने 5 साल सरकार चला ली, लेकिन कांग्रेस में गुटबाजी के चलते 1962 में वो खुद विधायकी का चुनाव जनसंघ प्रत्याशी से हार गए। डीपी मिश्र को टिकट ही नहीं मिला था। पार्टी की इतनी बुरी गत हुई कि पार्टी 296 में से केवल 144 विधायक जिता पाई। 4 विधायकों को इधर-उधर से लाकर बमुश्किल सरकार बन पाई। तख्तमल जैन, जिन्हें कैलाशनाथ काटजू ने धीरे-धीरे किनारे कर दिया था, फिर मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने लगे। लेकिन एक तो मध्यभारत में कांग्रेस तगड़ी हार मिली थी, दूसरा ये कि चुनाव के बाद महाकौशल के कांग्रेसी भगवंतराव मंडलोई के नाम पर एकमत हो गए। आखिरकार मंडलोई ने ही मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और तख्तमल जिंदगी में तीसरी बार नंबर दो पर रह गए।
मंडलोई अब मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन नेहरू को उनका नाम तक नहीं मालूम था। ये इतना अप्रत्याशित था कि कांग्रेस हाईकमान को समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या। नेहरू तो मंडलोई को नाम से तक नहीं जानते थे। मध्य प्रदेश में सरकार बनने की खबर मिली तो उनका सवाल था- क्यों जी, मध्य प्रदेश में ये बटलोई कौन है जो मुख्यमंत्री चुना गया है?
MP के पहले कार्यवाहक CM मंडलोई: नेहरू ने कहा था- भई, ये बटलोई कौन है?
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भोपाल. मध्य प्रदेश के पहले कार्यवाहक मुख्यमंत्री भगवंत राव मंडलोई थे। आज के दिन 9 जनवरी 1957 को वे कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने थे। 30 जनवरी 1957 तक वे इस पद पर रहे। जब वे पूर्णकालिक सीएम बने तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को उनका नाम भी नहीं पता था। आज हम आपको उनके कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनने की कहानी बता रहे हैं।
पहले मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल के निधन (31 दिसंबर 1956) के बाद मंडलोई कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने थे। फिर जब दूसरे मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू चुनाव हारकर इलाहाबाद लौट गए तो मंडलोई मध्यप्रदेश के तीसरे मुख्यमंत्री बने थे।
शुक्ल के निधन के बाद बदली राजनीति: शुक्ल के निधन के बाद सबको लगा कि अब वो होगा, जो कांग्रेस हाईकमान और नेहरू चाहते थे– मध्यभारत के मुख्यमंत्री और शुक्ल कैबिनेट में दूसरे नंबर पर रहे तख्तमल जैन मुख्यमंत्री बनेंगे। इससे पहले कोई तख्तमल जैन का नाम लेता, बुजुर्ग कांग्रेस नेता शंकरलाल तिवारी ने एक ऐसा नाम आगे बढ़ा दिया, जिसके बारे में किसी ने सोचा नहीं था– वो थे भगवंतराव मंडलोई।
तख्तमल का नाम लेते ही मामला मध्यभारत कांग्रेस कमेटी vs महाकौशल कांग्रेस कमेटी हो जाता। और ये लड़ाई 88 विधायकों वाली मध्यभारत कांग्रेस 150 विधायकों वाली महाकौशल कांग्रेस से सपने में भी नहीं जीत सकती थी। बमुश्किल दो महीने पहले एक छत के नीचे बैठी मध्यभारत, विंध्य और महाकौशल की कांग्रेस कमेटियां अलग-अलग दिशाओं में भाग रही थीं। तख्तमल हाथ मलते रह गए और भगवंतराव मंडलोई पहली बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। कार्यवाहक ही सही, लेकिन मुख्यमंत्री।
मंडलोई खंडवा वाले: वकालत से करियर शुरू करने के बाद मंडलोई स्वतंत्रता आंदोलन और कांग्रेस से जुड़े। जिंदगी के पहले 50 साल उन्होंने खंडवा में ही लगाए। आजादी के बाद रविशंकर शुक्ल के कैबिनेट में उन्हें मंत्री पद मिला, तब जाकर वो प्रदेश की राजनीति में उठे। इसलिए नए मध्य प्रदेश के दीगर नेता उन्हें अपने से काफी जूनियर मानते थे। खासकर वो, जो आजादी से पहले ही कांग्रेस में ऊपर उठ गए थे। इन्हीं में से एक थे कांग्रेस अध्यक्ष सेठ गोविंददास, जिनके दिल्ली वाले बंगले पर रविशंकर शुक्ल ने आखिरी सांस ली थी। मंडलोई के कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनते ही एक संभावना पैदा हो गई कि स्थाई मुख्यमंत्री पद भी महाकौशल के पास ही रहे। और महाकोशल से कौन? गोविंददास कहते थे – मैं।
बनते-बिगड़ते समीकरण: गोविंददास ने इसके बाद तख्तमल से हाथ मिला लिया और हाईकमान के सामने ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि मध्य प्रदेश को मंडलोई की जगह कोई ‘सक्षम’ मुख्यमंत्री चाहिए। दिल्ली में जा-जाकर मौलाना आजाद से लेकर नेहरू और पंत तक से मिले। विंध्य कांग्रेस से शंभूनाथ शुक्ल ने गोविंददास और तख्तमल का साथ दिया। ये एक बड़ी वजह रही कि मंडलोई कार्यवाहक ही रहे और उन्हें शपथ लेने के 21 वें दिन एक पैराट्रूपर डॉ कैलाशनाथ काटजू के लिए जगह खाली करनी पड़ी. तख्तमल फिर पहले की तरह नंबर दो बने रहे।
नेहरू तक नहीं जानते थे: डॉ. कैलाशनाथ काटजू ने 5 साल सरकार चला ली, लेकिन कांग्रेस में गुटबाजी के चलते 1962 में वो खुद विधायकी का चुनाव जनसंघ प्रत्याशी से हार गए। डीपी मिश्र को टिकट ही नहीं मिला था। पार्टी की इतनी बुरी गत हुई कि पार्टी 296 में से केवल 144 विधायक जिता पाई। 4 विधायकों को इधर-उधर से लाकर बमुश्किल सरकार बन पाई। तख्तमल जैन, जिन्हें कैलाशनाथ काटजू ने धीरे-धीरे किनारे कर दिया था, फिर मुख्यमंत्री बनने का सपना देखने लगे। लेकिन एक तो मध्यभारत में कांग्रेस तगड़ी हार मिली थी, दूसरा ये कि चुनाव के बाद महाकौशल के कांग्रेसी भगवंतराव मंडलोई के नाम पर एकमत हो गए। आखिरकार मंडलोई ने ही मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और तख्तमल जिंदगी में तीसरी बार नंबर दो पर रह गए।
मंडलोई अब मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन नेहरू को उनका नाम तक नहीं मालूम था। ये इतना अप्रत्याशित था कि कांग्रेस हाईकमान को समझ ही नहीं आया कि हुआ क्या। नेहरू तो मंडलोई को नाम से तक नहीं जानते थे। मध्य प्रदेश में सरकार बनने की खबर मिली तो उनका सवाल था- क्यों जी, मध्य प्रदेश में ये बटलोई कौन है जो मुख्यमंत्री चुना गया है?