MP: बजट भारीभरकम, फिर भी नवजातों की मौत में अव्वल, सरकारी अस्पतालों में रोज दम तोड़ रहे 38 नवजात, तीन सालों में 41 हजार की मौत

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Ruchi Verma
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MP: बजट भारीभरकम, फिर भी नवजातों की मौत में अव्वल, सरकारी अस्पतालों में रोज दम तोड़ रहे 38 नवजात, तीन सालों में 41 हजार की मौत

(भिंड इनपुट: मनोज जैन)



BHOPAL: मध्य प्रदेश के माथे से ख़राब स्वास्थ्य व्यवस्थाओं का कलंक मिटने का नाम नहीं ले रहा है। और अब नवजात शिशुओं के लिए राज्य की स्वास्थ्य सेवाओं के हाल कितने बुरे हैं, इसकी पोल संसद में खुद केंद्र सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों ने खोल दी है। ये आंकड़े बेहद शर्मसार करने वाले हैं। सरकार ने संसद में केरल से कम्युनिस्ट पार्टी के राज्यसभा सांसद पी संतोष कुमार के एक सवाल का जवाब देते हुए बताया है कि मध्य प्रदेश के सरकारी अस्पतालों के विशेष नवजात देखभाल इकाइयों (एसएनसीयू/ SNCU) में हर रोज़ करीब 38 नवजात दम तोड़ रहे हैं। देश के अन्य राज्यों की तुलना में मध्यप्रदेश में नवजात की मौत के मामले सबसे ज्यादा है। देश भर के स्पेशल न्यूबोर्न केयर यूनिट (SNCU) में हुई मौतों के आधार पर यह आंकडा दिया गया है।



मध्य प्रदेश पिछड़े राज्यों और गरीब अफ़्रीकी देशों से भी पीछे



नवजातों के मौत का यह आंकड़ा देश में सबसे ज्यादा है। यहाँ तक कि पिछड़े/बीमारू राज्य के केटेगरी में आने वाले राज्यों में भी यह आंकड़ा मध्य प्रदेश से काफी कम है। बिहार में हर दिन 15 नवजातों की मौत हुईं, उत्तर प्रदेश में 24, राजस्थान में 26 और वेस्ट बंगाल में प्रतिदिन 36 नवजातों की मौतें दर्ज़ हुईं। MP में SNCUs में नवजातों की मौत का यह आंकड़ा स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हाशिये पर माने जाने वाले कुछ अफ़्रीकी देशों जैसे इथोपिया (35), तंज़ानिया (34), यूगांडा (31), और कॉन्गो (32), के कुल शिशु मृत्यु दर (IMR) तक से ज्यादा है।



3 सालों में सरकारी अस्पतालों में 41 हजार नवजात मौत का शिकार



साल 2019-2020 में मध्य प्रदेश के सरकारी अस्पतालों के SNCUs में 14 हज़ार 749 बच्चों की मौत हुई। वहीँ साल 2020-2021 में 13 हज़ार 486 बच्चों ने दम तोड़ा। वर्ष 2021-2022 में 13 हजार 316 नवजातों बच्चों की मौत हो गई। यानी तीन वर्षों में कुल 41 हज़ार 551 नवजातों के मौत राज्य के सरकारी अस्पतालों में हुई है। और हर दिन 37.94 यानि करीब 38 शिशुओं ने आखिरी सांस ली। बड़ी बात यह है कि मध्य प्रदेश सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भी प्रदेश लगातार तीसरे साल नवजातों की मौत में शीर्ष है।



शिशु स्वास्थ्य के हर पैरामीटर पर MP फेल




  • सैेंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम-2022: यही नहीं, मई में जारी किये गए सैेंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम-2022 के अनुसार शिशु मृत्यु दर में के मामले में भी मध्य प्रदेश में देश में पहले नंबर पर है। इसके अनुसार मध्यप्रदेश में जन्म लेने वाले हर एक हजार बच्चों में से 43 बच्चे आज भी जन्म के एक साल के अंदर ही दम तोड़ देते हैं, साल 2019 में तो यह आंकड़ा 46 था। यह राष्ट्रीय औसत 28 से ज्यादा है।


  • NFHS-5: नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 5 की रिपोर्ट में भी मध्य प्रदेश खिसक कर देश में चौथे पायदान पर पहुंच गया है। सर्वे के आंकड़ों के हिसाब से प्रदेश में इन्फेंट डेथ रेट (28-365 दिन) 41.3 (हर 1000 जीवित जन्म में पर) है। वहीँ नवजात मृत्यु दर भी 29 (हर 1000 जीवित जन्म में पर) है।



  • रजिस्ट्रार जनरल इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार नवजातों की बढ़ी हुईं मृत्युदर के प्रमुख कारण



    समय से पहले जन्म और जन्म के समय कम वजन (46.1%), जन्म श्वासावरोध और जन्म आघात (13.5%), नवजात निमोनिया (11.3%), अन्य गैर-संचारी रोग (8.4%), सेप्सिस (5.7%), जन्मजात विसंगतियां (4.3%),अतिसार संबंधी रोग (2.3%), अज्ञात कारणों से  बुखार (1.4%) ), चोट (1.2%), अज्ञात कारण (5.3%), अन्य कारण (0.6%)



    अब सवाल ये है कि सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी  नवजातों की मौतों का सिलसिला रुकने का नाम क्यों  नहीं ले रहा। जबकि भारी भरकम बजट है।  इसी साल मप्र सरकार ने बच्चों के लिए अलग से बजट की व्यवस्था की है। 17 विभाग जो बच्चों के लिए योजनाएं संचालित करते हैं उनका बजट प्रावधान किया 57 हजार 803 करोड़ रु.। इसमें स्वास्थ्य विभाग का बजट भी शामिल है।



    बाल स्वास्थ्य के पैरामीटर पर हम काफी पीछे, स्टाफ की कमी बड़ा कारण: राकेश श्रीवास्तव, अधीक्षक, JP अस्पताल




    • द सूत्र ने जब राजधानी भोपाल में स्थित जय प्रकाश अस्पताल के सिविल सर्जन सह मुख्य अस्पताल अधीक्षक डॉक्टर राकेश श्रीवास्तव से बात की तो उन्होंने माना की बाल स्वास्थ्य के इस पैरामीटर पर हम काफी पीछे हैं। हालांकि सरकार इसको ठीक करने के लिए कोशिशें कर रही है। जय प्रकाश अस्पताल के विशेष नवजात देखभाल इकाई में हर महीने करीब 100 नवजात शिशु भर्ती होते हैं जिनमे से 90 ही जीवित रह पाते हैं। नवजातों के बढ़ती मौत के कारण बताते हुए डॉक्टर राकेश श्रीवास्तव कहते हैं की कई केसेस में बच्चे समय से अस्पताल नहीं पहुंच पाते और इसी वजह से उनको बचाना मुश्किल होता है और उनकी मौत हो जाती है। उन्होंने कहा कि अस्पतालों में स्टाफ के बेहद कमी है। और लिमिटेड स्टाफ पर वर्कलोड बढ़ जाता है जिसकी वजह से कई बार सही सेवाएं लोगो तक नहीं पहुंच पाती। इंदौर संभाग के चार जिलों- झाबुआ, खरगोन, खंडवा और बड़वानी में स्विस्थित विशेष नवजात देखभाल इकाइयों (एसएनसीयू) में भी स्टाफ की यही कमी नवजात शिशुओं के मौतों का बड़ा कारण है। इनमें से अधिकांश जिलों में एक ही बाल रोग विशेषज्ञ एसएनसीयू और पीआईसीयू दोनों का प्रबंधन कर रहे हैं, जिससे उन पर अधिक भार पड़ रहा है। क्षेत्रीय निदेशक स्वास्थ्य रिकॉर्ड के अनुसार 2021-22 में फरवरी तक इंदौर संभाग में लगभग 70% नवजात मौतों के लिए यही चार जिले जिम्मेदार रहे।


  • वहीँ जब SNCU के संचालक डॉक्टर ओम प्रजापति से बात की तो उनका कहना था नवजातों के बढ़ी हुईं मृत्युदर का मुख्य कारण यह है कि गर्भवती माताओं के प्रेगनेंसी के दौरान अच्छे तरीके से देखभाल नहीं होती है। जिसकी वजह से बच्चे कई बार बच्चें प्रीमैच्योर पैदा होते है। प्रीमैच्योर बच्चों को ज्यादा देखभाल की जरुरत होती है जो नहीं हो पाती है। कई बार नेताओं में पहले से शारीरिक दिक्कतें होती है जो बच्चे पर असर करती हैं। डॉक्टर ओम प्रजापति ने कहा की खराब शिक्षा स्तर भी नवजातों के मौत का एक बड़ा कारण है। डॉक्टर ने नवजातों के स्वास्थ्य का जिम्मा परिवार वालों पर डाला और कहा कि लोगों में अवेयरनेस की ज्यादा जरूरत है कि गर्भवती माताओं और नवजात बच्चों का अच्छे से ध्यान रखा जाए। गर्भवती महिलाओं के खानपान पर ध्यान देने की जरूरत है, जिससे गर्भस्थ शिशु कुपोषित न हो।  प्रसव पूर्व जांचों पर जोर दिया जाना चाहिए।



  • अगर में SNCU ही नहीं, 3 SNCUs में 20 से भी कम बिस्तर, भिंड के SNCU में तीन महीनों में 26 मौतें




    • एक बात जो डॉक्टर राकेश श्रीवास्तव और डॉक्टर ओम प्रजापति दोनों से पूछी गई कि क्या राज्य में स्वास्थ्य का खराब बुनियादी ढांचा इसका बड़ा कारण तो नहीं है? तो दोनों ने ही उन्होंने इस बात को नकार दिया। और कहा कि हर जिले में न्यूबोर्न यूनिट्स हैं जहाँ नवजातों के केयर की जाती है।


  • पर द सूत्र के जुटाए गए आंकड़ों के हिसाब से सच्चाई कुछ और ही है। वह यह कि राज्य के कुछ जिलों में एक भी विशेष नवजात देखभाल इकाई नहीं है। मध्यप्रदेश के 50 जिलों में करीब 54 एसएनसीयू हैं। इसमें से भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर और रीवा में एक से अधिक एसएनसीयू हैं। पर आगर जिले में एक भी कार्यात्मक एसएनसीयू नहीं है। वहीँ  सिंगरौली, देवास और जबलपुर के तीन एसएनसीयू में 20 से भी कम बिस्तर हैं। जबकि 43 एसएनसीयू में 20-30 बेड ही हैं। सिर्फ आठ एसएनसीयू ही ऐसे हैं जहाँ  30 से अधिक बेड होने की सूचना है। बेड कम होने के वजह से कई बार तो एक ही वार्मर दो नवजातों को भर्ती करना पड़ता है।

  • वहीँ प्रदेश में सिर्फ 120 सरकारी अस्पतालों में सीजर डिलीवरी की सुविधा है। सभी प्रसव केंद्रों पर हर जगह न्यूबार्न कार्नर नहीं है। मध्यप्रदेश में अब भी 2.5% डिलीवरी घर पर हो रही है। सरकार के संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने के बावजूद यह आंकड़ा चिंताजनक है। NFHS-5 के अनुसार 50 प्रतिशत से ज्यादा गर्भवती महिलाएं खून की कमी की शिकार रहती हैं।

  • यही नहीं बात अगर स्थापित किये गए SNCUs की ही की जाए तो भिंड के जिला सरकारी चिकित्सालय में स्थित विशेष नवजात देखभाल इकाई की हालत खस्ता है। आजकल बरसात की दिनों में यहाँ पानी भरा रहता है। अस्पतालों में पर्याप्त संसाधन और सुविधाएं नहीं होने की वजह से यहां शिशुओं की मौत हो रही है। विशेष नवजात देखभाल इकाई में पिछले तीन महीनों में ही करीब 26 नवजातों की मृत्यु हुईं है। यहाँ अप्रैल में 4 नवजातों ने दम तोड़ा, तो वहीँ मई में सबसे ज्यादा 15 नवजातों की मौत हुईं। और जून में 7 बच्चों की मृत्यु हुईं।

  • वहीँ एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार खराब बुनियादी ढांचे और विशेष नवजात देखभाल इकाइयों (एसएनसीयू) में डॉक्टरों की कमी के कारण एक सप्ताह में शहडोल जिला अस्पताल में 27 नवंबर से 3 दिसंबर, 2020 के बीच 13 शिशुओं की मौत हो गई। इसमें से एक शिशु समय से पहले पैदा हुआ था और जीवित नहीं रहा क्योंकि अस्पताल में ऊष्मायन इकाई की कमी थी। अस्पताल के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल से नवंबर 2020 के बीच एसएनसीयू में भर्ती 1,516 में से 262 शिशुओं की मौत हो गई।



  • साफ़ है की कहने को सरकार द्वारा कई योजनाएं शुरू की गई हैं, लेकिन फिर भी कोई असर होता नहीं दिख रहा है। द सूत्र अपनी ख़बरों में ये पहले ही दिखा चुका है कि कैसे गर्भवती महिलाओं को सही आहार व सही देखभाल न मिल पाने के कारण शिशुओं में जन्म के समय से ही कुपोषण के साथ कई तरह की बीमारियां हो जाती हैं। और ज्यादातर मामलों में ये बीमारियां समय पर पहचानी ही नहीं जाती है। और अब बाल स्वास्थ्य को लेकर संसद में दिए गए ये आंकड़ें भी सरकारी दावों की कलई खोलती है।


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