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Indore. इंदौर में एक ऐसे मेयर भी रहे हैं जो मेयर बनने से पहले और मेयर बनने के बाद किसी पद पर नहीं रहे जबकि उन्होंने पार्टी में कम से कम पचास साल सेवा की। मेयर भी बने केवल एक साल के लिए और फिर पार्टी के कामों में लग गए। एक मौका ऐसा भी आया जब उन्होंने अपनी बेटी का टिकट काट दिया।
नारायण धर्म नाम था उनका। बात 1983 के नगर निगम चुनाव की है। उससे पहले करीब बारह साल तक इंदौर नगर निगम में प्रशासक का राज था। 1983 में कांग्रेस सरकार रहते हुए नगर निगमों के चुनाव के रास्ते फिर खुले। परिषद बीजेपी की बनी। उस समय परिषद का कार्यकाल चार साल का होता था और मेयर का एक साल का। मेयर का चुनाव भी सीधे न होकर मनोनयन से होता था। पार्टी ने पार्षदों में से ही किसी को मेयर बनाने के बजाए अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को इस पद से नवाजने के फैसला किया। तब इंदौर की राजनीति में आठ-दस ही बड़े नाम थे जो जनसंघ के जमाने से पार्टी को तैयार कर रहे थे और वहां से जनता पार्टी में होते हुए बीजेपी में भी पार्टी के काम पर लगे रहे। इन नेताओं में राजेंद्र धारकर, श्रीवल्लभ शर्मा, लालचंद मित्तल, नारायण राव धर्म, निर्भय सिंह पटेल, भेरूलाल पाटीदार, नारायम भूतड़ा, उत्सव चंद पोरवाल आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। इनमें भी निर्भय सिंह पटेल और भेरूलाल पाटीदार ग्रामीण इलाकों की राजनीति करते थे जबकि बाकी सभी शहर की।
चार मेयर बने
पार्टी ने सत्ता हाथ में आने के बाद चार साल में चार मेयर बनाने की तैयारी की। राजेंद्र धारकर पहले साल (1983-84) के लिए मेयर बने, जबकि दूसरे साल श्रीवल्लभ शर्मा (84-85) को बनाया गया। नारायण राव धर्म 85-86) को तीसरा मेयर चुना गया। और लालचंद मित्तल को 1985-86 के लिए आखिरी मेयर बनाया गया। इनमें केवल नारायण राव धर्म ही ऐसे नेता थे जो मेयर बनने से पहले और मेयर बनने के बाद सत्ता के किसी पद पर नहीं रहे और न ही कोई मैदानी चुनाव लड़ा। बाकी तीनों में राजेंद्र धारकर जनता पार्टी (सुंदर लाल पटवा सरकार) के वक्त मंत्री रहे और बाद में मेयर बने। मेयर बनने से पहले वे लोकसभा का चुनाव भी लड़े। श्रीवल्लभ शर्मा भी मेयर बनने से पहले 1977 के चुनाव में इंदौर-4 से विधायक बन चुके थे। इसी तरह लालचंद मित्तल मेयर बनने के करीब 15 साल बाद इंदौर-1 से 1998 में विधायक बने।
कार्यकाल खत्म होते ही फिर संगठन में
नारायण धर्म हमेशा ही मैदानी राजनीति से परहेज करते रहे। संघ के पुराने नेताओं में शुमार श्री धर्म का पूरा ध्यान संगठन की मजबूती को लेकर रहा। जीवन में कई ऐसे अवसर आए जब वे खुद कहीं से भी विधानसभा का टिकट ले सकते थे लेकिन उन्होंने हमेशा ही पार्टी और टीम को आगे बढ़ाया। 1986 के बाद फिर नौ साल तक निगम के चुनाव नहीं हुए। 1995 में दिग्गिवजय सिंह की सरकार ने जब निगम के चुनाव करवाए तब श्री धर्म सहित उक्त सारे पुराने नेता सक्रिय थे और निर्णायक स्थिति में थे। तब उन्होंने नई पीढ़ी को आगे बढ़ाया। बीजेपी में गोपीकृष्ण नेमा, कैलाश विजयवर्गीय, महेंद्र हार्डिया, भंवरसिंह शेखावत, लक्ष्मण सिंह गौड़ आदि की पौध इन्हीं नेताओं की देन है। तब ही एक किस्सा और हुआ। जिस समय पार्षद के टिकट की सूची बन रही थी, निर्भयसिंह पटेल ने श्री धर्म की बेटी विनीता का नाम भी टिकट के लिए रख दिया। श्री धर्म ने न केवल तत्काल बेटी का नाम खारिज कर दिया, बल्कि समिति में साफ कर दिया कि बेटी तो छोड़ो मेरे किसी दूर के परिजन का भी नाम समिति में नहीं होना चाहिए।