83% संस्थाओं में विशाखा कमिटी नहीं, भोपाल में यह आंकड़ा 77%!  स्टडी में आया सामने, WCD विभाग के अधिकारी बेखबर

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83% संस्थाओं में विशाखा कमिटी नहीं, भोपाल में यह आंकड़ा 77%! 
स्टडी में आया सामने, WCD विभाग के अधिकारी बेखबर

BHOPAL: महिलाओं को कार्यस्थल पर प्रताड़ना या यौनशोषण का शिकार न होना पड़े इसके लिए देश में कानून बना है। कानून इसलिए बनाया गया था कि महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस करें और यदि उनके साथ प्रताड़ना या यौनशोषण जैसी घटनाएं होती हैं तो वो इसकी शिकायत कर सकें। कानून के तहत हर दफ्तर में एक इंटरनल कंप्लेन्स कमेटी यानी आंतरिक  शिकायत समिति के गठन का प्रावधान है। लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी मप्र में  83 फीसदी दफ्तरों में ये कमेटी बनी ही नहीं है। यह आंकड़ा संगिनी NGO द्वारा की गई एक स्टडी के अनुसार है। दरअसल, पिछले दिनों मप्र की राजधानी भोपाल के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल हमीदिया में एक साथ 50 नर्सों ने पूर्व अधीक्षक डॉ दीपक मरावी पर यौनशोषण का आरोप लगाया था और इसकी शिकायत मुख्यमंत्री, चिकित्सा शिक्षा मंत्री से की थी। लेकिन नर्सों ने ऐसे मामलों की शिकायत के लिए बनाई गई आंतरिक परिवाद समिति को शिकायत नहीं की। क्यों नहीं की? इसी बिंदु को लेकर द सूत्र ने जब पता किया कि इस कानून का वर्कप्लेसेस पर कितना पालन हो रहा है तो चौंकाने वाली जानकारी मिली है। पढ़िए द सूत्र की ये रिपोर्ट...





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क्या था हमीदिया अस्पताल मामला?





14 जून को भोपाल के हमीदिया अस्पताल में हड़कंप मच गया था। हड़कंप इसलिए मचा कि क्यों कि पचास नर्सों ने एक साथ प्रदेश के मुख्यमंत्री, चिकित्सा शिक्षा मंत्री को पत्र लिखा और तत्कालीन सुपरिटेंडेंट डॉक्टर दीपक मरावी पर छेड़छाड़ और यौन शोषण के गंभीर आरोप लगाए थे। नर्सों ने अपने वायरल हुए शिकायती पत्र में लिखा था: "डॉक्टर दीपक मरावी रात में शराब के नशे में चेंजिंग रूम में चले आते हैं। वह भी हाफ पैंट पहनकर और अश्लील हरकतें करते हैं। छुट्टी मांगने पर वह अपने चैंबर में बुलाते हैं। 30 मई को एक नर्स को उन्होंने अपने चैंबर में बुलाया और रेप करने की कोशिश की। नर्स ने जब विरोध किया तो उसे धमकाया भी। डॉक्टर मरावी ने कहा कि मेरा कुछ नहीं होने वाला, मैं CM का आदमी हूं। उन्होंने ने ही मुझे यहां सुपरिटेंडेंट बनाया है। मैं तुम लोगों की नौकरी खा जाऊंगा और जीने लायक भी नहीं छोड़ूंगा।" इस पत्र के बाद हुआ ये कि चिकित्सा शिक्षा मंत्री ने कमिश्नर गुलशन बामरा को जांच के आदेश दिए। जांच कमेटी ने दीपक मरावी को क्लीन चिट दी इसके बाद फिर बवाल हुआ।लेकिन बाद में दीपक मरावी को अधीक्षक पद से हटा दिया।





नर्सों ने CM को पत्र लिखने से पहले इचछ को शिकायत क्यों नहीं की?





हमीदिया अस्पताल के पूरे घटनाक्रम के बाद कई सवाल खड़े हुए। एक मुख्य सवाल तो ये था कि क्या नर्सों ने चिट्ठी लिखने से पहले कार्यस्थल पर प्रताड़ना या यौनशोषण के मामलों को देखने के लिए बनाई गई आंतरिक परिवाद कमेटी को शिकायत की थी या नहीं? जब द सूत्र ने नर्सों से ही इस बारे में पूछा तो उनका साफ जवाब था कि ऐसी कोई समिति उस वक्त अस्तित्व में ही नहीं थी और जब शिकायत हुई तो आनन फानन में कमेटी का गठन किया गया। जिस नर्स ने द सूत्र से बातचीत की उनकी पहचान उजागर हम नहीं कर रहे हैं। पढ़िए एक नर्स ने क्या कहा: 







  • रिपोर्टर:आप लोगो अपनी शिकायत डायरेक्ट अधिकारियों, मंत्रियो को कर दी या फिर इसके पहले आंतरिक शिकायत समिति को शिकायत की थी?



  • नर्स: हमने सभी जगह एक साथ शिकायत दी थी....हमीदिया में ऐसी कोई समिति नहीं थी....अभी-अभी गठित किया था...इसी दौरान. इसके पहले नहीं थी।






  • समिति थी पर टर्म ख़त्म होने से शिकायत के बाद फिर गठित करनी पड़ी: हमीदिया मैनेजमेंट





    वहीँ द सूत्र ने इस मामले जब हमीदिया अस्पताल के आला अधिकारियों से बात की तो उन्होंने कहा कि 2019 में एक आंतरिक परिवाद समिति गठित की गई थी। पर उसका कार्यकाल 2022 में खत्म हो गया था और जब नर्सों के यौन उत्पीड़न की शिकायत का मामला सामने आया तो समिति का गठन हुआ। इसका मतलब साफ है कि यदि नर्सों की प्रताड़ना का मामला सामने नहीं आता तो हमीदिया अस्पताल में शायद समिति का गठन भी नहीं होता। इससे साफ पता चलता है कि विभाग प्रिवेंशन ऑफ़ सेक्सुअल हरैसमेंट ऑफ़ वीमेन एट वर्कप्लेस एक्ट-2013 को लेकर गंभीर नहीं है।





    अब ये केवल एक ऐसा मामला नहीं है जहाँ इंटरनल कंप्लेन्स कमेटी नहीं बनी थी। आपको जानकर हैरानी होगी कि संगिनी NGO द्वारा की गई एक स्टडी के अनुसार मध्य प्रदेश करीब 83 फीसदी संस्थाओं में आंतरिक शिकायत समिति का गठन नहीं हुआ है। और राजधानी भोपाल के लिए यह आंकड़ा करीब 77 फीसदी है! यह स्टडी राज्य के 500 निजी और सरकारी संस्थानों में की गई थी। ज्यादातर संस्थानों के कर्मचारियों का कहना है कि नियोक्ता और अधिकारीयों को इस मामले की परवाह ही नहीं हैं। पढ़िए स्टडी के चौकानें वाले आंकड़े:





    सरकारी ऑफिसेस कम सुरक्षित, अधिकारीयों को महिला सुरक्षा की परवाह नहीं: कर्मचारी





    स्टडी का मकसद राज्य में सेक्सुअल हरैसमेंट ऑफ़ वीमेन एट वर्कप्लेस (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रेड्रेसल), 2013 एक्ट के कार्यान्वयन की स्थिति जानना, प्रदेश के अलग-अलग जिलों में  एक्ट के कार्यान्वयन की भिन्नत्ताओं को समझना और यौन उत्पीड़न पीड़िता के अनुभव और चुनौतियों को जानना था। अध्ययन के लिए भोपाल के 200, इंदौर के 101, ग्वालियर के 100 और सतना के 94 यानी  कुल 499 ऑर्गनाइज़्ड वर्कप्लेसेस को चुना गया। इन 499 वर्कप्लेसेस में से 253 सरकारी और 246 निजी संस्थान रहे। इनमें से 83.5% यानी 417 वर्कप्लेसेस में 10 या 10 से अधिक कर्मचारी काम करते हैं।







    • सिर्फ 17.2 फीसदी जगहों पर ही इंटरनल कम्प्लेंट्स कमिटी: सर्वे में कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा को लेकर जो चौंकाने वाली बातें सामने आईं हैं उसके मुताबिक़ जिन 499 वर्कप्लेसेस पर सर्वे किया गया उनमें केवल 17.2 फीसदी जगहों पर ही यानी 86 वर्कप्लेसेस में ही इंटरनल कम्प्लेंट्स कमिटी बनी पाई गई। इसके मुताबिक़ भोपाल में 200 में से 46, इंदौर में 101 में से 8, ग्वालियर में 100 में से 21 और सतना में 94 में से सिर्फ 11 जगहों पर ही  इंटरनल कम्प्लेंट्स कमिटी है।



  • 44% कमिटी हेड्स को नहीं पता कमिटी की मीटिंग्स कब होती हैं: स्टडी में संस्थानों के मालिकों, स्टेक होल्डर्स, कर्मचारियों और इंटरनल कंप्लेंट कमिटी के हेड, और कमिटी में नियुक्त NGO मेंबर्स से बात की गई। जिन 17 फीसदी संस्थानों में इंटरनल कंप्लेंट कमिटी बनी भी है तो उन कमिटी के हेड्स से जब यह पूछा गया कि कमिटी की समय-समय पर होने वाली निर्धारित बैठकें कब होती हैं? तो करीब 44% ने यह कहा कि वे इस बारे में जानते ही नहीं!


  • सरकारी ऑफिसेस कम सुरक्षित: स्टडी में एक और बेहद परेशान करने वाला तथ्य सामने निकल कर आया। दरअसल, संस्थानों के कर्मचारियों से इस सवाल का जवाब देने के लिए कहा गया था कि क्या आप कार्यस्थल पर सुरक्षित महसूस करते हैं? तो निजी क्षेत्र के 75.86% कर्मचारियों की तुलना में सरकारी  ऑफिसेस के कुल 62.0% कर्मचारी ही कार्यस्थल पर सुरक्षित महसूस करते हैं। साफ़ है कि निजी क्षेत्र का कार्यस्थल और पर्यावरण सरकारी ऑफिसेस की तुलना में अधिक सुरक्षित है।


  • एक और परेशानी वाली बात यह सामने आई कि बदले की कार्रवाई के डर से कई कर्मचारी यौन उत्पीड़न के मामलों की रिपोर्ट करने से बचते हैं।


  • एक ही चीज़ अच्छी रही कि सर्वे किये गए संस्थानों के अधिकांश कर्मचारी जानते हैं कि कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कुछ क़ानून हैं;और यह आंकड़ा 94 फीसदी से ज्यादा है। साथ ही  66.84% कर्मचारी को पता है कि कार्यस्थल पर सुरक्षा के लिए जिम्मेदार व्यक्ति कौन है।






  • आंकड़ें नहीं हैं, इकट्ठा किए जा रहे: अधिकारी, महिला एवं बाल विकास





    एनजीओ की इस स्टडी और उसके नतीजों को लेकर जब द सूत्र ने महिला बाल विकास विभाग के अधिकारी सुरेश सिंह तोमर का कहना है कि उनके पास आंकड़ें नहीं है कि कितने संस्थानों में कमेटी का गठन हुआ है या नहीं...वो कम्पाइल करके आंकड़े देंगे। यानी साफ है कि जिस विभाग की इस कानून का पालन करवाने की जिम्मेदारी है उसे ही नहीं पता कि आखिरकार कितने विभागों में कमेटी का गठन हुआ है या नहीं।





    पॉश एक्ट के मुताबिक यदि कोई संस्थान कमेटी का गठन नहीं करता है तो उस पर 50 हजार रु. का जुर्माना लगाया जा सकता है। एनजीओ की स्टडी में सामने आया कि 413 संस्थानों में ICC का गठन नहीं हुआ ऐसे में हिसाब लगाया जाए तो इन संस्थानों पर 2 करोड़ से ज्यादा का जुर्माना लगाया जा सकता है। एक बात और है कि एनजीओ ने तो चुनिंदा संस्थानों पर स्टडी की ऐसे हजारों संस्थान है वहां क्या हाल होगा इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कानून का न तो पालन हो रहा है और पालन करवाने वाले भी बेखबर है।





    कैसे काम करती है आंतरिक शिकायत समिति/ICC







    • 'सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस एक्ट-2013' (POSH एक्ट) को विशाखा गाइडलाइंस का ही विस्तृत रूप है। इस एक्ट के तहत हर वो दफ़्तर जहां दस या उससे अधिक लोग काम करते हैं वहां एक अंदरुनी शिकायत समिति (इन्टर्नल कम्प्लेन्ट्स कमेटी या ICC) होनी चाहिए। यह समिति संस्थान में काम करने वाली महिलाओं की शारीरिक और यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं को सुनती है। इसकी अध्यक्ष संस्थान की सबसे वरिष्ठ महिला अधिकारी या कर्मचारी ही होनी चाहिए। साथ ही नामित सदस्यों में से भी आधी महिला होनी चाहिए। इसमें एक सदस्य यौन-हिंसा के मामलों पर काम करने वाली किसी एनजीओ की सदस्य होनी चाहिए। ऐसा नहीं करने पर संस्थान पर 50,000 रुपये का जुर्माना लगाने या फिर उसका लाइसेंस भी निरस्त करने अथवा दोनों कार्रवाई करने का प्रावधान है।



  • शिकायत कैसे करें: कोई भी प्रोफेशनल सर्विस करने वाली महिला के साथ हुआ उत्पीड़न वर्कप्लेस हैरेसमेंट के दायरे में आएगा। यदि किसी संस्थान में महिला के साथ कोई अप्रिय घटना होती है तो तीन महीने के अंदर ICC के पास शिकायत दर्ज करा सकती है। हालांकि संस्थान की आंतरिक समिति शिकायत देने के लिए और समय भी दे सकती है। अगर संस्थान छोड़ चुकी हैं तो आपको एक समय सीमा में ही शिकायत देनी होगी। कई साल पुराना मामला होने के चलते संस्थान जांच नहीं कर सकता। तब आप लोकल पुलिस या फिर कोर्ट में भी शिकायत कर सकती हैं। संस्थान की जिम्मेदारी है कि जिस पीड़ित ने शिकायत की है उसपर किसी तरह के हमले या दबाव न हो।


  • जांच: ICC को शिकायत मिलने के 90 दिनों के भीतर मामले की जांच कर अंतिम रिपोर्ट नियोक्ता को सौंपनी होती है। इसमें ICC दोनों पक्षों को सुनकर उनके बयान रिकॉर्ड करती है और अपनी सफाई में साक्ष्य प्रस्तुत करने का मौका देती है। कमेटी ने अगर किसी को दोषी पाया तो उसके खिलाफ IPC की संबंधित धाराओं के अलावा अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। कमेटी साल भर में आई शिकायतों और कार्रवाई के बारे में सरकार को रिपोर्ट करना होगा।


  • POSH एक्ट में दोषी के लिए क्या है सजा: यौन उत्पीड़न का आरोप साबित होने पर कार्रवाई के प्रकार सभी कंपनियों में अलग-अलग हो सकते हैं। इसमें कोई कंपनी दोषी कर्मचारी के वेतन से कटौती कर सकती या फिर उसे नौकरी से भी निकाल सकती है।


  • इसी तरह पीड़िता की परेशानी और भावनात्मक संकट, करियर के नुकसान, चिकित्सा खर्च को देखते हुए मुआवजा भी दिया जा सकता है। हालांकि, ICC की जांच से संतुष्ट नहीं होने पर दोनों पक्ष 90 दिन में न्यायालय की शरण भी ले सकते हैं।


  • समझौते के जरिए कराया जा सकता है मामले का निस्तारण: कानून के अनुसार, ICC जांच से पहले या फिर शिकायकर्ता के अनुरोध पर सुलह के माध्यम से उसके और प्रतिवादी के बीच मामले को निपटाने के लिए कदम उठा सकती है। हालांकि, इसके लिए दोनों पक्षों के बीच पैसों का लेनदेन नहीं होना चाहिए।


  • POSH एक्ट के अनुसार, शारीरिक-मानसिक यौन उत्पीड़न के साथ ही नौकरी में प्राथमिकता का वादा कर यौन संबंध मांग करना, नौकरी से निकालने की धमकी देना, कार्य करना मुश्किल बनाना और अपमानजनक व्यवहार भी यौन उत्पीड़न की श्रेणी माना जाता है।






  • क्यों जरूरत पड़ी थी विशाखा गाइडलाइंस/कमिटी की?







    • दरअसल, विशाखा गाइडलाइंस साल 1992 में राजस्थान के जयपुर के पास भातेरी गांव में हुए भंवरी देवी केस के बाद अस्तित्व में आई।सोशल वर्कर भंवरी देवी राजस्थान सरकार की महिला विकास कार्यक्रम के तहत काम करती थीं। एक बाल-विवाह को रोकने की कोशिश के दौरान हुई दुश्मनी के बाद बड़ी जाति के लोगों ने उनके साथ गैंगरेप किया। इसमें कुछ ऐसे लोग भी थे जो बड़े पदों पर थे। न्याय पाने के लिए भंवरी देवी ने इन लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज कराया लेकिन सेशन कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया। 



  • साल 1997 में कुछ ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने भंवरी देवी के ख़िलाफ हुए इस अन्याय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में ‘विशाखा’ नाम से एक जनहित याचिका दायर की। इस याचिका में भंवरी देवी और अन्य महिलाओं के साथ कार्यस्थल पर होने वाले यौन-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग की गई।


  • इसी ‘विशाखा’ जनहित याचिका के बाद साल 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर होने वाले यौन-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ कुछ निर्देश जारी किए जिन्हें ‘विशाखा गाइडलाइन्स’ के रूप में जाना गया। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि यौन-उत्पीड़न, संविधान में निहित मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन हैं। इसलिए सरकार इसे रोकने के लिए जरूरी कानून बनाए।


  • सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर 19 अक्टूबर 2012 को एक अन्य याचिका पर सुनवाई करते हुए नियामक संस्थाओं से कहा था कि वह यौन हिंसा से निपटने के समितियों का गठन करे। उसके बाद केंद्र सरकार ने अप्रैल 2013 में 'सेक्शुअल हैरेसमेंट ऑफ विमिन एट वर्कप्लेस एक्ट' (POSH) को मंजूरी दी।


  • इससे पहले साल 1997 से लेकर 2013 तक दफ़्तरों में विशाखा गाइडलाइन्स के आधार पर ही इन मामलों को देखा जाता रहा लेकिन 2013 में ‘सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस एक्ट’ आया।




  • निर्भया सुप्रीम कोर्ट Shivraj Singh Chauhan महिला एवं बाल विभाग मध्य प्रदेश संगिनी एनजीओ पोश अधिनियम-2013 विशाखा दिशानिर्देश NIRBHAYA WOMEN AND CHILD DEPARTMENT OF MP SANGINI NGO VISHAKHA GUIDELINES Bhopal POSH ACT-2013 Madhya Pradesh मध्य प्रदेश Supreme Court शिवराज सिंह चौहान भोपाल