टंट्या मामा बलिदान दिवस: जानें कौन था ये भील योद्धा, क्यों 132 साल बाद राजनीति में लौटा?

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टंट्या मामा बलिदान दिवस: जानें कौन था ये भील योद्धा, क्यों 132 साल बाद राजनीति में लौटा?

भोपाल. आज इंडियन रॉबिनहुड यानी टंट्या मामा का बलिदान दिवस है। आज ही के दिन 1889 में अंग्रेजों ने इस क्रांतिकारी योद्धा को फांसी देकर शव को पातालपानी स्टेशन पर फेंक दिया था। इतिहास के पन्नों में गुमनाम इस योद्धा की 132 साल बाद कैसे और क्यों मध्यप्रदेश की राजनीति में एंट्री हुई। समझिए....

MP की सबसे बड़ी जनजाति से आते हैं

इंडियन रॉबिनहुड (Indian Robinhood) टंट्या भील जनजाति से आते हैं। प्रदेश में भीलों की आबादी करीब 60 लाख (Bhil population) है, ये प्रदेश की सबसे बड़ी आदिवासी जनजाति है। लिहाजा गोंड (Gond) जनजाति को साधने के बाद BJP की नजर अब भील जनजाति पर है।

कौन थे टंट्या भील

टंट्या भील (Tantia Bhil Birth) का जन्म 1840 में खंडवा जिले की पंधाना तहसील के बडदा गांव में हुआ था। उनका असली नाम तांतिया भील था। क्रांतिकारी स्वभाव के कारण उनका नाम टंट्या पड़ा। टंट्या का शाब्दिक अर्थ होता है झगड़ा। उन्होंने 1857 की क्रांति (revolution of 1857) के नायक तात्या टोपे से गुरिल्ला युद्ध (guerrilla warfare) सीखा था। वह गुरिल्ला युध्द प्रणाली से अंग्रेजों की ट्रेनों को लूटते थे और लूट के सामान को गरीबों में बांटते थे। उनके इसी स्वभाव के कारण ही अंग्रेजों ने उन्हें इंडियन रॉबिनहुड का नाम दिया था। 

अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे

आदिवासियों के विद्रोहों (Tribal Revolt) की शुरूआत प्लासी युद्ध (1757) के ठीक बाद ही शुरू हो गई थी और ये संघर्ष 20वीं सदी की शुरूआत तक चलता रहा। साल 1857 से लेकर 1889 तक टंट्या भील ने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था। वो अपनी 'गुरिल्ला युद्ध नीति' के तहत अंग्रेजों पर हमला करके किसी परिंदे की तरह ओझल हो जाते थे। इस तरह वो आदिवासियों के लिए मसीहा बनकर उभरे। उन्हें टंट्या मामा के नाम से जाने जाना लगा। आज भी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई आदिवासी घरों में टंट्या भील की पूजा की जाती है।

पातालपानी में हुई थी शहादत

वो जानवरों की भाषाएं बोलना जानते थे। टंट्या शातिर भी थे और बहादुर भी। लेकिन कुछ लोगों की मिलीभगत के कारण वो अंग्रेजों की पकड़ में आ गए। 4 दिसंबर 1889 को उन्हें फांसी (Tantya Bhil Deayj) दे दी गई। अंग्रेजों ने निर्ममता से उनका शव खंडवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक था। सीएम शिवराज ने ऐलान किया है कि पातालपानी स्टेशन का नाम बदलकर टंट्या मामा के नाम पर रखा जाएगा। 

गोंडों के बाद भीलों पर BJP की नजर

बीजेपी ने हाल ही में रानी कमलापति के नाम पर हबीबगंज स्टेशन का नाम रखा है। इसके अलावा छिंदवाड़ा यूनिवर्सिटी के नाम को राजा शंकर शाह (Raja shankar shah) के नाम पर रखा जाएगा। ये दोनों गोंड जनजाति से आते हैं। गोंडों को साधने के बाद बीजेपी टंट्या मामा के नाम से भीलों को साधने की कवायद में जुट गई है। इस कारण ही उनकी शहादत दिवस के मौके पर बीजेपी ने स्मृति गौरव यात्रा निकाली। प्रदेश की कई जगहों के नाम उनके नाम से जाने जाएंगे। दरअसल, ये 2023 के विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी का एक्शन प्लान है क्योंकि भील आबादी के लिहाज से प्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति है। 

ऐसे बदले आदिवासी बहुल सीटों पर समीकरण

  • 2003 विधानसभा चुनाव में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 41 सीटों में से भाजपा ने 37 सीटों पर कब्जा जमाया था। चुनाव में कांग्रेस केवल 2 सीटों पर सिमट गई थी। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 2 सीटें जीती थी। 1998 में कांग्रेस का आदिवासी सीटों पर अच्छा खासा प्रभाव था।

  • 2008 के चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 41 से बढ़कर 47 हो गई। इस चुनाव में भाजपा ने 29 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस ने 17 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
  • 2013 के इलेक्शन में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 47 सीटों में से भाजपा ने जीती 31 सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस के खाते में 15 सीटें आईं थीं।
  • 2018 के इलेक्शन में पांसा पलट गया। आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से भाजपा केवल 16 सीटें जीत सकी और कांग्रेस ने दोगुनी यानी 30 सीटें जीत ली। एक सीट निर्दलीय के खाते में गई।
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