Bhopal. ढाई साल से नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव का इंतजार कर रही प्रदेश की जनता को ये जान लेना जरूरी है कि आखिर क्यों मध्यप्रदेश की सरकार इन चुनावों से कतरा रही है। क्या शिवराज सिंह चौहान और उनकी सरपरस्त सरकार को इस बात का डर है कि ये चुनाव कहीं उनके लिए आइना न साबित हो जाएं। अपनी ही सरकार के लिए लिटमस टेस्ट साबित होने वाले इन चुनावों से क्या खुद पीछे हट रहे हैं शिवराज। सवाल ये भी है कि ओबीसी के हितैषी बनते बनते आखिर क्यों बीजेपी सरकार ने इस मामले पर खामोशी ओढ़ ली है। क्या माई का लाल वाले जुमले से मिली चोट का दर्द अब भी बरकरार है। सवाल कई हैं।
मध्यप्रदेश में पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव लगातार टल रहे हैं। वजह ये है कि शिवराज सरकार इन के जरिए प्रदेश की 51 प्रतिशत आबादी को साधने की कोशिश में है। इसके तहत ओबीसी के लिए 27 फीसदी रिजर्वेशन का ऐलान किया जा चुका है। इनके अलावा एसीसी के लिए 15 फीसदी और एसटी के लिए 20 फीसदी सीटें रिजर्व हैं। जबकि सुप्रीम कोर्ट के नियम साफ हैं कि पचास प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की शरण लेना सरकार की मजबूरी बन गया। बस उसके बाद से प्रदेश में ये चुनाव लटके हुए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को साफ निर्देश दिए कि ट्रिपल टेस्ट कराएं। उसकी रिपोर्ट पेश करें। उसी के आधार पर फैसला होगा। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर सरकार ने इस तेजी से काम शुरू किया जैसे रिपोर्ट आते ही उस पर कार्रवाई शुरू हो जाएगी। सीएम शिवराज सिंह चौहान ने बहुत तेजी में बैठक की। राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग को ट्रिपल टेस्ट करने के निर्देश भी दिए। जो इस वर्ग की आबादी के आधार पर अपनी सिफारिश करेगा। ये भी तय हुआ कि आयोग तीन महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट पेश कर देगा।
अब बारी है उस खुलासे की जिसका जिक्र हम पहले कर चुके हैं। आयोग ने ट्रिपल टेस्ट किया। इस टेस्ट पर आयोग का खुलासा और उस पर शिवराज का एक्शन आपको चौंका देगा। सूत्रों के हवाले से ये खबर है कि आयोग ट्रिपल टेस्ट रिपोर्ट तैयार कर चुका है। आयोग से जुड़े सूत्रों के मुताबिक आयोग के सदस्य हर जिले में जाकर सर्वे कर चुके हैं। इसका पूरा एक साइंटिफिक डेटा तैयार किया जा चुका है। आयोग के एक सदस्य ने पहचान गोपनीय रखने की शर्त पर जो जानकारी दी उसके मुताबिक ओबीसी वर्ग के शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति के आधार पर डेटा तैयार किया गया है। सदस्य ने ये दावा भी किया कि प्रदेश में जितनी ओबीसी वर्ग की आबादी है। उसके अनुसार वर्ग को राजनीति में कभी अवसर दिए ही नहीं गए। रिपोर्ट तैयार होने की जानकारी आयोग सरकार को दे चुका है। लेकिन सरकार ने अब तक रिपोर्ट पर आगे बढ़ने का कोई फैसला नहीं किया है।
अब सवाल ये उठता है कि जो सरकार अदालतों की ठोकरें खा रही है। बीते ढाई साल से कानूनी लड़ाई लड़ रही है। वो रिपोर्ट तैयार होने के बावजूद चुनाव कराने की दिशा में आगे क्यों नहीं बढ़ना चाहती। क्योंकि आयोग का दावा ये भी है कि रिपोर्ट के आधार पर ओबीसी को आरक्षण मिलने का रास्ता साफ हो जाएगा। तो फिर सरकार को डर काहे का है। इस मामले पर अगर राजनीतिक विशेषज्ञों की राय मानी जाए तो सरकार खुद नहीं चाहती कि अभी ये चुनाव हों। क्योंकि इन चुनावों के जरिए सरकार की कलई खुल सकती है। सरकार को इस बात का डर है कि महंगाई, पेट्रोल डीजल के लगातार बढ़ रहे भाव कहीं सरकार के खिलाफ न चले जाएं।
पचमढ़ी में पिछले दिनों हुए चिंतन शिविर में भी ये मुद्दा गर्माया था। बैठक में कैबिनेट मंत्री गोविंद सिंह राजपूत ने ये सुझाव भी दिया कि चार राज्यों में बीजेपी की जीत का फायदा मध्यप्रदेश के स्थानीय चुनावों में उठाया जाना चाहिए। लेकिन खुद सीएम शिवराज सिंह चौहान ने इस मुद्दे को टाल दिया। उनका कहना था कि इस विषय पर बाद में बैठक होगी। लेकिन ये बैठक कब होगी इस पर कोई चर्चा आगे नहीं हो सकी।
विधानसभा के शीतकालीन सत्र में भी सरकार ने पंचायतराज संशोधन विधेयक पारित नहीं किया और आयोग की रिपोर्ट पर भी एक्शन नहीं लिया। ये बातें क्या यही इशारा नहीं करतीं कि सरकार फिलहाल स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव टालने के ही मूड में है। ओबीसी हितों की रक्षा में कौन सा राजनीतिक दल कितने पानी में है। ये जान लेना भी जरूरी है। कांग्रेस ये दावा करती रही है कि 2018 का चुनाव वो इसी वर्ग के वोटों के दम पर जीत कर आई है। बीजेपी भी अब उसी वोटबैंक को अपना बना लेना चाहती है ताकि प्रदेश की ओबीसी वाली सीटों पर ज्यादा नुकसान न हो। लेकिन ओबीसी के हक के लिए कोई कदम नहीं उठाना चाहती। इतना ही नहीं बीते कुछ समय से ओबीसी आधारित राजनीति बिलकुल खामोश सी पड़ी है। बीते जनवरी ओबीसी महासभा ने बीजेपी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला जरूर। तब महासभा के कई पदाधिकारियों को नजरबंद भी किया गया. लेकिन उसके बाद से इस मामले पर सन्नाटा पसरा हुआ है।
मिशन 2024 की तैयारी में जुटी बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए ओबीसी का मुद्दा जरूरी हो चला है। दोनों ही दल इस वर्ग का साधने के लिए अलग अलग हथकंडे अपना रहे हैं। नजर उन 51 फीसदी ओबीसी वोटर्स पर है जो आने वाले विधानसभा चुनाव में जीत की चाबी हो सकते हैं। कांग्रेस इस वोटबैंक पर दावा जताते हुए ये याद दिलाती रही है इस वर्ग को 27 प्रतिशत का आरक्षण कांग्रेस ने दिया है. बीजेपी से सिर्फ धोखा ही मिला है।
लेकिन कांग्रेस के साथ मुश्किल ये है कि वो इस वर्ग से जुड़ी ऐसी कोई बड़ी लीडरशिप तैयार नहीं कर सकी। जिसे चेहरा बना कर पिछड़ा वर्ग को लुभाया जा सके। दूसरी तरफ बीजेपी है जो 2003 से लेकर अब तक प्रदेश को तीन ओबीसी मुख्यमंत्री दे चुकी है। उमा भारती, बाबूलाल गौर और खुद शिवराज सिंह चौहान इस वर्ग से आते हैं। उसके बावजूद ओबीसी वर्ग को राजनीति में मुकम्मल हिस्सा नहीं मिला है। अब ओबीसी आरक्षण के बाद ही पंचायत और स्थानीय चुनाव कराने की बात तो बीजेपी करती है। दूसरी तरफ आयोग की रिपोर्ट भी अटका कर रखी है। क्या ये मान लिया जाए कि बीते चुनाव से पहले माई का लाल जैसे जुमलों के आफ्टर इफेक्ट्स का डर भी बीजेपी को सता ही रहा है। इसलिए ओबीसी की राजनीति से तौबा की जा रही है।
आपको बता दें मध्य प्रदेश में आदिवासी वर्ग के लिए 35 सीटें आरक्षित हैं। इन सीटों के अलावा भी कई सीटों पर दलित वर्ग का भी प्रभाव देखने को मिलता है. इसलिए दलित वर्ग को खुश रखना दोनों ही दल के लिए बेहद जरूरी है। पंचायत चुनाव और स्थानीय निकाय चुनाव की दिशा में सरकार जिस तरह से आगे बढ़ रही है उससे ये साफ है कि चुनाव अब विधानसभा चुनावों के बाद ही होंगे। पहले प्रदेश में सत्ता तय हो जाए उसके बाद स्थानीय निकायों की बाजी खेली जाएगी। उसके बाद पिछड़ा वर्ग अपने हक की आवाज भी उठाएगा तो जिम्मेदारी उस सरकार की होगी। जो अगले पांच साल के लिए पक्की हो चुकी है।