यूनिवर्सिटी ने घपले—घोटालों की जांच पर किए लाखों खर्च, फिर अभिमत पर अभिमत लेकर लटकाया, सालों बाद भी कार्रवाई नहीं

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Rahul Sharma
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यूनिवर्सिटी ने घपले—घोटालों की जांच पर किए लाखों खर्च, फिर अभिमत पर अभिमत लेकर लटकाया, सालों बाद भी कार्रवाई नहीं

Bhopal. एक कहावत है हाथी दांत खाने के कुछ और होते हैं और दिखाने को कुछ और... मध्यप्रदेश की यूनिवर्सिटीज के लिए यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है। भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुकी इन यूनिवर्सिटीज में जब भी कोई बड़ा मामला एक्सपोज हुआ तो अपनी साख बचाने और लोगों के सवालों का जवाब देने के लिए जांच कमेटी और आयोग गठित कर दिए, इन जांचों में आपके और हमारे जैसे टैक्सपेयर की गाढ़ी कमाई के लाखों रूपए फूंके गए, पर सालों तक कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं हुआ। सालों बाद मामला फिर उठा तो अपने ही द्वारा गठित कमेटी की जांच पर विश्वास न करते हुए अभिमत के नाम पर फिर मामले को लटका दिया। कुछ मामलों में तो अभिमत पर अभिमत लिए गए पर कार्रवाई के नाम पर कुछ नहीं किया। सवाल यह कि जब कार्रवाई कुछ करना ही नहीं थी तो जांच के नाम लाखों रूपए फूंकने से क्या मतलब? क्या सिर्फ लोगों को दिखाने के लिए ये जांचे होती हैं...क्या यूनिवर्सिटीज भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने का काम कर रही है...द सूत्र की पड़ताल में जानिए क्या है यूनिवर्सिटीज में चल रही जांचों का खेल।







बीयू में भर्ती में गड़बड़ी...मामला क्या और हुआ क्या





राजधानी भोपाल के बरकतउल्ला विश्वविद्यालय यानी बीयू में 2014 में अधिकारी—कर्मचारियों की भर्ती में गड़बड़ी हुई। तात्कालिक कुलपति मुरलीधर तिवारी पर आरोप लगे कि उन्होंने अपनो को गलत तरीके से भर्ती किया या नियमित करने की कोशिश की। मामले ने तूल पकड़ा तो राजभवन में अक्टूबर 2015 में हाईकोर्ट रिटायर्ड जज अभय गोहिल को जांच अधिकारी नियुक्त किया। गोहिल रिपोर्ट आने के बाद कार्रवाई करने की जगह यूनिवर्सिटी ने क्या—क्या किया यह तो हम आपको बाद में बताएंगे पर पहले ये समझ लीजिए कि गोहिल रिपोर्ट में मुख्य क्या था और उन अनुशंसाओं का हुआ क्या। शिकायतकर्ता धर्मेंद्रसिंह गौर का कहना है कि गोहिल रिपोर्ट में मुख्य बिंदु भर्ती प्रक्रिया के लिए बनाए गए आरक्षण रोस्टर को लेकर था, जिस पर रिपोर्ट में रोस्टर बनाने वाले प्रो. एनसी शर्मा पर एफआईआर दर्ज करने की बात की गई थी, पर एफआईआर आज तक दर्ज नहीं हुई। जिनकी भर्ती प्रक्रिया पर ही गोहिल रिपोर्ट में सवाल उठाए गए थे, 2020 में ऐसे 14 कर्मचारियों को बिना एजेंडे में रखे बैकडोर एंट्री से परमानेंट कर दिया गया। प्रोविजन पीरियड एक—दो साल की जगह 8 से 10 साल तक रखा गया और जब 2020 में इन्हें परमानेंट किया गया तो लाभ 2014 के हिसाब से दे दिया गया, जबकि प्रोविजन पीरियड के बाद जब परमानेंट किया तब से लाभ मिलना चाहिए था। धर्मेंद्रसिंह गौर का आरोप है कि बीयू के प्रोफसर अक्षयलाल को योग्य नहीं पाने जाने पर गोहिल रिपोर्ट में निकालने की अनुशंसा की गई थी, अक्षयलाल खुद जांच के दौरान अपना इस्तीफा सौंप चुके थे, बावजूद इसके वे आज भी बीयू में नौकरी कर रहे हैं जो समझ से परे है। जब इस संबंध में बीयू के रजिस्ट्रार आईके मंसूरी से बात की तो उन्होंने आनकैमरा बात करने से मना कर दिया, पर इतना जरूर कहा कि गोहिल रिपोर्ट पर एक्शन हो गया है, जब इसकी डिटेल मांगी तो वे यह कहते बचते नजर आए कि मामला उनके समय का नहीं है, इस बारे में कुलपति से बात करें।





 



हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज की रिपोर्ट पर डिस्ट्रीक्ट कोर्ट के रिटायर्ड जज का अभिमत





बीयू को लेकर एक लाइन काफी प्रसिद्ध है कि बीयू जो करे सो वो कम है। बीयू में हुई भर्ती में गड़बड़ी के मामले में जस्टिस गोहिल ने अपनी रिपोर्ट 2016 में सबमिट की। मामला कितना बड़ा और गंभीर था उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसी मामले को लेकर तात्कालिक कुलपति डॉ. मुरलीधर तिवारी को हटाया गया। 2016 में गोहिल रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद तीन साल तक इस पर सिर्फ चर्चा हुई... कार्रवाई नहीं। मामले ने दोबारा तूल पकड़ना शुरू किया तो 2019 में रिटायर्ड जिला न्यायाधीश डॉ. अनिल पारे से अभिमत के लिए भेज दिया। हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज की रिपोर्ट पर डिस्ट्रीक्ट कोर्ट के रिटायर्ड जज से अभिमत लेने के मामले पर भी लोगों ने सवाल उठाए। जिसके बाद विधि आयोग के चेयरमेन डॉ. वेदप्रकाश शर्मा से अभिमत लिया गया। आरटीआई एक्टिविस्ट और मामले में शिकायतकर्ता धर्मेंद्रसिंह गौर का कहना है कि वेदप्रकाश शर्मा के अभिमत में भी कई कमियां निकाली गई थी, पर बीयू में आज तक उन पर कोई पालन नहीं किया गया।







आरटीआई में नहीं दे रहे खर्चे की जानकारी





बीयू में हुई नियुक्तियों का जांच प्रतिवेदन हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस अभय गोहिल ने 30 मई 2016 को प्रस्तुत किया। विवि प्रबंधन ने इस प्रतिवेदन के आधार पर कार्रवाई करने की बजाए करीब तीन साल बाद 12 जुलाई 2019 को इस प्रतिवेदन पर रिटायर्ड जिला न्यायाधीश डॉ. अनिल पारे से अभिमत मांगा जो उन्होंने 27 सितम्बर 2019 को रजिस्ट्रार को सौंप दिया। इस पर आपत्ति आई तो विधि आयोग के चेयरमेन और रिटायर्ड हाईकोर्ट जज डॉ. वेदप्रकाश शर्मा से दोबारा अभिमत लिया। जाहिर सी बात है इस पर लाखों खर्च किए गए पर कार्रवाई कुछ नहीं की। खर्चों की जानकारी के लिए आरटीआई एक्टिविस्ट धर्मेंद्रसिंह गौर ने सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत आवेदन भी लगाया, पर कोई जानकारी नहीं दी गई।







8 महीने में 80 बैठक का खर्च 24 लाख रूपए





मामले में एक विषय भी खासा चर्चा में रहा था कि बीयू ने राजभवन के अगस्त 2016 में दिए पहले आदेश के अनुसार जस्टिस अभय गोहिल को 30 हजार रुपए मानदेय देने को कहा था। जस्टिस गोहिल ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई तो राजभवन ने सितंबर 2016 को 10 हजार रुपए की बढ़ोतरी कर 40 हजार रुपए का भुगतान करने की स्वीकृति दी। बीयू ने यह राशि मार्च 2018 में संशोधित आदेश का हवाला देकर पहुंचाई तो उन्होंने इस राशि को लौटा दिया। बता दें कि इसके बाद उन्होंने 8 महीने में 80 बैठक कर करीब 100 पेज की रिपोर्ट सौंपी थी। इसके बाद 30 हजार रुपए बैठक के हिसाब से करीब 24 लाख रुपए मानदेय की मांग की गई थी। हालांकि यह रूपए जस्टिस गोहिल को दिए गए या नहीं, इस संबंध में अधिकृत जानकारी नहीं मिल पाई है, पर इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि बीयू ने जांच के नाम पर लाखों रूपए फूंके पर कार्रवाई कुछ नहीं की।  







बीयू की राह पर एनएलआईयू, कार्रवाई की जगह अब रिपोर्ट का होगा रिव्यू





एनएलआईयू यानी राष्ट्रीय विधि संस्थान विश्वविद्यालय भोपाल भी बीयू की राह पर ही चल रही है। यहां भी हुए एक फर्जीवाड़े के मामले में जांच रिपोर्ट आने के बाद कार्रवाई की जगह अब उस पर एक अन्य रिटायर्ड जज से रिव्यू कराया जाएगा। एनएलआईयू के 126 विद्यार्थियों का फर्जी डिग्री लेने के प्रकरण मामले में पूर्व हाईकोर्ट जज अभय गोहिल की रिपोर्ट पर रिव्यू किया जाएगा।



रिव्यू पूर्व हाईकोर्ट जज एके जैन करेंगे। उन्हें ये रिपोर्ट सितंबर अंत तक एनएलआईयू को सौंपना है। एनएलआईयू से 126 विद्यार्थियों ने फेल होने के बाद भी पास होने की डिग्री ली हुई है। इसमें करीब 13 न्यायाधीश हैं। शेष विद्यार्थी अदालत में अधिवक्ता और बड़ी-बड़ी कंपनियों में विधिक सलाहकार के तौर पर पदस्थ हैं। मामले में जब एनएलआईयू के रजिस्ट्रार घायूर आलम से संपर्क करने की कोशिश की तो उन्होंने मोबाइल कॉल रिसीव नहीं किया और न ही मैसेज का कोई रिप्लाई दिया।







ओवर राइटिंग कर बदले गए स्टूडेंट के नंबर





गोहिल रिपोर्ट 2017 में आने के बाद परीक्षा शाखा के तत्कालीन असिस्टेंट रजिस्ट्रार रंजीत सिंह को आरोपी मानकर बर्खास्त किया गया था। रिपोर्ट के आधार पर एनएलआईयू की सामान्य परिषद ने दोषी प्रोफेसरों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने के लिए नोटिस देकर जवाब-तलब कराए थे। प्रोफेसरों ने जवाब बंद लिफाफे में जमा कर दिए हैं। जानकारी के मुताबिक करीब आधा दर्जन प्रोफेसरों की नियुक्तियां फर्जी तरीके से हुई हैं। बता दें कि विभिन्न सत्रों के स्टूडेंट को फर्जी तरीके से पास किया गया था। एक विद्यार्थी की कॉपी में 8 अंक प्रोफेसर ने मूल्यांकन कर दिए, जबकि एनएलआईयू के ट्रब्यूलेशन रिकार्ड (टीआर) में उसके अंक ओवर राइटिंग कर 80 किए गए। ऐसे ही अंक कई स्टूडेंट के ओवर राइटिंग करके बदले गए थे। इनकी डिग्रियों को लेकर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।





विक्रम विश्वविद्यालय में पीएचडी अपात्रों का चयन, 2 माह बीत जाने के बाद भी कार्रवाई नहीं





उज्जैन विक्रम विश्वविद्यालय में पीएचडी घोटाले के मामले में चल रही जांच 2 माह बीतने के बाद भी अब तक पूरी नही हुई है। मामले का खुलासा युवक कांग्रेस प्रदेश सचिव बबलू खिंची के द्वारा किया गया था। बबलू खिंची ने शिकायत में कहा था कि कुलपति एवं शोध समिति के सदस्यो ने अपने चहेतों को उपकृत करने के लिए आन्सर-शीट मे कांट-छांट और छेड़-छाड़ कर फेल को पास कर दिया। जिसके बाद कुलपति अखिलेश पांडे ने मामले में कमेटी गठित कर जांच करने और दोषियों पर मुकदमा दर्ज करवाने की बात कही थी। कुलपति ने इस मामले में बताया कि कॉलेज के प्रोफेसरों की टीम जांच कमेटी में शामिल है जिनके द्वारा मामले से जुड़े लोगों के बयान लिए जा रहे है, जांच टीम की रिपोर्ट आने के बाद एफआईआर पर निर्णय लिया जाएगा। अभी मामले की जांच जारी है। बता दें कि मामले में पीएचडी चयन परीक्षा समिति के सदस्य डॉ. प्रमोद कुमार वर्मा, गणपत अहिरवार, वाईएस ठाकुर पर सीधे आरोप लगाए गए थे कि इन्होंने इंजीनियरिंग विषय की आंसर शीट में की गई हेरफेर की कॉपी भी दी है,जो समिति के तीनों सदस्यों द्वारा जांची गई है।







एक्सपर्ट कमेंट : जब दो जांचकर्ता अधिकारी के मतों में अंतर तब अभिमत लेना उचित





हाईकोर्ट के वकील विशाल बघेल का कहना है कि अभिमत लेना तब जरूरी है जब कुछ विरोधाभास हो। यदि एक ही जांच दो अधिकारियों ने मिलकर की हो और दोनों के मतों में अंतर हो तब तो अभिमत लेना उचित है। तथ्यों के आधार पर की गई जांच पर कार्रवाई की जगह यदि अभिमत ही लेते फिरेंगे तो यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं और न ही कानून के हिसाब से सही है। ऐसे में तो दोषियों पर कार्रवाई ही नहीं होगी। जांच होगी और आप अभिमत लेते रहेंगे।



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