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BHOPAL . बॉस (BOSS) इस शब्द से हर कोई वाकिफ है। बॉस दफ्तर का होता है। घर का होता है। पार्टियों का होता है। संगठन का होता है। हर जगह चलती है तो केवल बॉस की और इस बार 2023 के चुनाव में भी बॉस की ही चलने वाली है। इस चुनाव में ये बॉस सबसे खास रहने वाले हैं। एमपी की सियासत भी ये बॉस तय करेंगे और जिसने बॉस की अनदेखी की उसकी लुटिया डूबने वाली है। बॉस वो होता है जिसके हाथ में बागडोर होती है, दफ्तर को चलाने की। घर को चलाने की। आर्गनाइजेशन को चलाने की। गैंग को चलाने की। बॉस ऑर्डर देता है और कर्मचारी उसे मानते हैं। अब मप्र की सियासत को भी बॉस चलाने वाले हैं। कौन है ये बॉस। इसे जानने की उत्सुकता आपको जरूर होगी। ज्यादा सस्पेंस न रखते हुए उस बॉस का खुलासा कर ही देते हैं। बॉस की अंग्रेजी में स्पेलिंग है BOSS अब इस स्पेलिंग में B शब्द का मतलब है ब्राह्मण। O शब्द का मतलब है ओबीसी। S शब्द का मतलब है शैड्यूल कॉस्ट और S का मतलब है शैड्यूल ट्राइब। यानी ब्राह्मण, ओबीसी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति ये चार वर्ग इस बार मप्र की सियासत की धुरी रहने वाले हैं और 2023 के चुनाव में ये चारों वर्ग काफी अहम होंगे। ऐसे संकेत नजर आ रहे हैं।
चारों वर्ग के वोटर्स तय करेंगे कौन होगा सियासत का सरजात
इस बार विधानसभा चुनाव में इसी बॉस का सिक्का चलने वाला है। बॉस यानी ब्राह्मण, ओबीसी, एससी, एसटी। इस वर्ग के वोटर्स जो कहेंगे वो ही बनेगा वल्लभ भवन के पांचवें माले पर बने खास चैंबर में बैठने वाला बॉस। बॉस को साधने के लिए बीजेपी-कांग्रेस दोनों ने ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया है। क्यों कि बॉस अगले चुनाव की दशा और दिशा तय करने वाले हैं। पहले देखिए बॉस के B और O यानी ब्राह्मण और ओबीसी कैसे गेम चेंजर हो सकते हैं। 19 अगस्त वो तारीख है जिस दिन प्रदेश की सियासत का पारा उछला और बॉस के बी लैटर की अहमियत बढ़ गई थी। दरअसल बॉस के बी यानी ब्राह्मणों पर ओ लैटर यानी ओबीसी वर्ग के नेता की तरफ से प्रहार किया गया। ये नेताजी थे प्रीतम लोधी। लोधी ने ब्राह्मणों को लेकर टिप्पणी की और जो टिप्पणी की वो बवाल मचा गई। पार्टी ने तो लोधी को बाहर का रास्ता दिखाया ही। मामला धार्मिक द्वंद तक जा पहुंचा और आरोप प्रत्यारोप का दौर भी चला।
आरोप-प्रत्यारोप के बाद बयानों के समर्थन का भीचल रहा दौर पर
एमपी की राजनीति पर एक समय ब्राह्मणों का वर्चस्व हुआ करता था। नवंबर 1956 में मध्य प्रदेश राज्य के गठन के बाद साल 1990 तक पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों ने करीब 20 सालों तक यहां राज किया है। लेकिन इसके बाद ब्राह्मण समुदाय का वैसा रसूख और प्रभाव नजर नहीं आया। उसकी कई सारी वजहें हैं। मप्र में विंध्य ऐसा क्षेत्र है, जहां सबसे ज्यादा ब्राह्मण वोटर्स है। पिछले चुनाव में शिवराज के माई के लाल वाले बयान के बाद ये माना गया था कि सवर्ण वोटर्स बीजेपी को नुकसान पहुंचाएंगे। ग्वालियर चंबल में नुकसान तो हुआ लेकिन विंध्य में सवर्णों ने बीजेपी का साथ दिया। विधानसभा में ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व देखें तो कांग्रेस के 96 विधायकों में 10 ब्राह्मण विधायक हैं जबकि बीजेपी के 127 विधायकों में 18 विधायक ब्राह्मण हैं। ये 15 फीसदी वोटर्स गेमचेंजर हो सकते हैं। इसलिए परशुराम जंयती के मौके पर कांग्रेस के कमलनाथ परशुराम की जन्मस्थली जानापाव गए तो बीजेपी ने एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया। अब एकबार फिर प्रीतम लोधी के मुद्दे पर लौटते हैं। प्रीतम लोधी ने ब्राह्मणों को लेकर टिप्पणी की तो बीजेपी ने लोधी को पार्टी से बाहर करने में देरी नहीं की।क्योंकि ब्राह्मण समुदाय की तरफ से भारी विरोध हुआ। मामले पर अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज के प्रदेश अध्यक्ष पुष्पेंद्र मिश्रा ने प्रीतम लोधी के बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया दी और बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री पर कही गई बातों का विरोध किया। पुष्पेंद्र ने संत रामभद्राचार्य के ताजा बयान का समर्थन भी किया, जिसमें संत ने प्रीतम लोधी को फटकार लगाई और धीरेंद्र शास्त्री की बात को जायज ठहराया है।
बीजेपी ने ब्राह्मणों को साधने के लिए खेला दांव
कहा जा रहा है कि बीजेपी ने ब्राह्मणों को साधने के लिए ये दांव खेला है। मगर क्यों खेला, दरअसल सिंगरौली नगर निगम का चुनाव बीजेपी केवल इसी फैक्टर की वजह से हार गई। सिंगरौली नगर निगम सीट सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित थी लेकिन बीजेपी ने यहां टिकट दे दिया ओबीसी वर्ग को, जिससे सामान्य वर्ग नाराज हुआ और आम आदमी पार्टी की रानी अग्रवाल यहां से मेयर बन गईं। ब्राह्मणों के एक नई पार्टी आम आदमी पार्टी मिल चुकी है। बीजेपी के लिए ये चिंता का सबब है और इस नए विवाद से कहीं ब्राह्मण पूरी तरह से ही बीजेपी से किनारा ना कर ले इसलिए पार्टी ने ये फैसला लिया। ब्राह्मणों को खुश करने के लिए बीजेपी ने ये फैसला लिया लेकिन इससे क्या ओबीसी वर्ग को नाराज कर दिया है। क्योंकि प्रीतम लोधी ने ओबीसी महासभा ज्वाइन कर ली है और अब ओबीसी वर्ग पार्टी के फैसले से कहीं ना कही नाराज है। जबकि मुख्यमंत्री खुद ओबीसी वर्ग से आते हैं। अब बॉस के दूसरे लैटर ओ का एमपी में कितना प्रभाव है। ये भी देख लीजिए और बाकी के दो एस। यानी एससी और एसटी की ताकत भी अच्छी खासी है।
नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में ओबीसी पर हुई सियासी महाभारत
नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव में ओबीसी पर जो सियासी महाभारत हुई वो सभी ने देखी। होती भी क्यों ना क्योंकि ओबीसी की प्रदेश में 50 फीसदी आबादी है। इसी लिहाज से प्रदेश की सवा सौ सीटों पर इसका सीधा दखल है। दोनों ही दलों में करीब सौ सीटों पर इस वर्ग के विधायक विधानसभा पहुंचते हैं। मप्र में पिछले 18 सालों से मुख्यमंत्री ओबीसी वर्ग से हैं। निकाय चुनाव के दौरान ओबीसी की सियासत चरम पर देखने को मिली थी। कांग्रेस ने ओबीसी आरक्षण को 14 फीसदी से बढ़ाकर 27 फीसदी करने का मुद्दा उठाया तो बीजेपी ने ओबीसी कल्याण आयोग बना दिया जिसने ओबीसी को 35 फीसदी आरक्षण करने की सिफारिश कर दी। दोनों ही दलों ने खुद को ओबीसी हितैषी बताने में कसर नहीं छोड़ी। प्रदेश की सियासत में एक नया गठबंधन जोर पकड़ रहा है वो है ओबीसी, एससी और एसटी यानी एसओएस। डॉक्टर अक्सर पर्चे गोलियों के सामने एसओएस लिखते हैं मतलब होता है जरूरत पड़ने पर गोली लीजिए और इन तीनों वर्गों को लगता है कि अब जरूरत आ गई है। अब तक एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग से जुड़े जितने भी मुद्दे हुए उसमें तीनों वर्ग के नेताओं ने भागीदारी की है। एससी की विधानसभा में 35 सीटें है और एसटी की 47 यानी 82 सीटें तो सीधी इस वर्ग से जुड़ी है। 2018 के चुनाव में एससी वर्ग ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों को बराबर साथ दिया लेकिन एसटी का झुकाव कांग्रेस की तरफ रहा और कांग्रेस की सीटें बढ़ गई थी। इसलिए कहा जा रहा है कि बॉस तय करेगा कि कौन बनेगा 2023 का सरताज।