जब रीवा नगर पालिका चुनाव में पल्लेदार ने इलाकेदार को हरा दिया, दो नपा अध्यक्ष जो गृहमंत्री बने!

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The Sootr CG
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जब रीवा नगर पालिका चुनाव में पल्लेदार ने इलाकेदार को हरा दिया, दो नपा अध्यक्ष जो गृहमंत्री बने!

जयराम शुक्ल. रीवा (Rewa) के नगर निगम (city corporation) का इतिहास (history) 1920 से शुरू होता है। 11 अक्टूबर 1946 में रीवा स्टेट म्युनिसिपल एक्ट लागू हुआ। तब आबादी के हिसाब से रीवा नगर पालिका (nagar palika) थी और पार्षदों (councillor) के माध्यम से अध्यक्ष चुने जाते थे। 1981 में रीवा विधिवत नगर निगम (nagar nigam) बना लेकिन पहला चुनाव (election) हुआ 1994 में। तब से अब तक के इसके इतिहास में एक से एक दिलचस्प किस्से जज्ब हैं। किस तरह एक पल्लेदार ने एक इलाकेदार को हरा दिया। दो ऐसे भी अध्यक्ष हुए जो आगे चलकर गृह मंत्री (Home Minister) बने। चलिए रीवा नगर निगम से जुड़े दिलचस्प किस्सों की शुरूआत करते हैं एकदम प्रारंभ से।





यादवेन्द्र सिंह जो विन्ध्य प्रदेश के गृह मंत्री थे





आजादी के पहले रीवा रियासत थी और राजा थे मार्तंड सिंह। तब चुनाव जैसी व्यवस्था नहीं थी। 1948 में रीवा रियासत के विलय के बाद विन्ध्य प्रदेश की अंतरिम मंत्रिपरिषद बनी। मुख्यमंत्री थे कप्तान अवधेश प्रताप सिंह और गृहमंत्री यादवेन्द्र सिंह। विन्ध्य प्रदेश में पहला आम चुनाव 1952 में हुआ और इस चुनाव में यादवेन्द्र सिंह मनगंवा विधानसभा से युवा तुर्क श्रीनिवास तिवारी से हार गए। इसके बाद कांग्रेस सरकार ने इन्हें रीवा नगर पालिका का अध्यक्ष मनोनीत किया। यादवेंद्र सिंह उत्कट विद्वान, इतिहासकार व मशहूर वकील रहे। नगर पालिका अध्यक्ष रहते ही एक उप चुनाव के माध्यम से विधानसभा पहुंचे और अध्यक्षीय छोड़ दी। इस तरह रीवा नगरीय निकाय के पहले अध्यक्ष चुने जाने का श्रेय इन्हें जाता है।





कांग्रेसी रहते हुए डॉक्टर लोहिया का नागरिक अभिनंदन किया..।





रीवा नगर पालिका के पहले निर्वाचित अध्यक्ष बने रणबहादुर सिंह (अर्जुन सिंह के बड़े भाई राव रणबहादुर अलग हैं)। यह पचास का दशक था और रीवा समाजवादियों का एक तरह से तीर्थ सा बन चुका था। जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया के दौरे प्रायः होते रहते थे। इनका आंदोलन कांग्रेस और सामंतों के खिलाफ होता था। लेकिन तब नगरपालिका अध्यक्ष दलनिर्पेक्ष होते यद्यपि चुने किसी न किसी दल की ओर से ही जाते थे। रणबहादुर सिंह समाजवादी नेताओं के मेजबान होते थे। इन्हीं की अध्यक्षीयकाल में डॉ.राममनोहर लोहिया का ऐसा भव्य नागरिक अभिनंदन हुआ था जो आज भी इतिहास में गौरवशाली घटना के तौर पर दर्ज है।





मुनिप्रसाद शुक्ल जो बाद में मध्यप्रदेश के गृहमंत्री भी हुए





तब राजनीति क्षेत्र और जाति से ऊपर उठकर थी। कांग्रेस नेता मुनिप्रसाद शुक्ल थे तो सीधी के पर राजनीति रीवा की करते थे। समाजवादियों के प्रखर विरोध के बावजूद भी शुक्ल जी कांग्रेस पार्षद दल के नेता चुने गए और नगरपालिका के अध्यक्ष हुए। इनके कार्यकाल में महान अभिनेता पृथ्वीराज कपूर का रीवा के व्यंकट भवन में नागरिक अभिनंदन किया गया था। बाद में मुनिप्रसाद रीवा शहर और गुढ़ विधानसभा से चार बार विधायक चुने गए। 1980 में अर्जुन सिंह ने इन्हें अपने मंत्रिपरिषद में बतौर गृह और राजस्व मंत्री शामिल किया।





अध्यक्षीय में रहा वकीलों का दबदबा





मुनिप्रसाद के बाद क्रमशः मकसूदन तिवारी, शेख हफीजुद्दीन सिद्दीकी, जनार्दन पाण्डेय नगर पालिक निगम के अध्यक्ष बने। मकसूदन पंडितजी विद्वान अधिवक्ता थे उनके साथ एक दिलचस्प बात जुड़ी थी। वे स्वयं कांग्रेसी थे लेकिन उनका घर समाजवादियों का मशहूर अड्डा था। श्रीनिवास तिवारी और उनकी युवा मंडली उन्हीं के घर पर ही रहकर पढ़ी और राजनीति की। इस दौर के आने तक रीवा में समाजवादी दलों का जोर बहुत था। सिरमौर से चुनाव लड़ने वाले यमुनाप्रसाद शास्त्री ने रीवा शहर में अपनी पकड़ मजबूत की। मुस्लिम बस्तियों में वे मसीहा से बन गए। शास्त्री जी ने नगरीय चुनाव में शिक्षाविद् हफीजुद्दीन सिद्दीकी को उतारा और अध्यक्ष बनवाने में सफल रहे।





कोठी में अंतिम संस्कार का विरोध





हफीजुद्दीन के बाद कांग्रेस के जनार्दन पांडे अध्यक्ष बने, ये भी मशहूर वकील थे। कक्का के नाम से मशहूर पान्डेय जी उत्कट जिद्दी और क्रोधी थे। एक बार एक बड़े इलाकेदार की अन्त्येष्टि ही रोक दी। हुआ ये कि उनकी मौत के बाद जब उनके परिजन शहर के बीचों-बीच बनी कोठी के एक विशाल परिसर में ही अन्त्येष्टि करने लगे तो खबर मिलने पर अध्यक्ष जनार्दन जी वहां पहुंचे, श्रद्धांजलि दी लेकिन इस हठ को लेकर बैठ गए कि शहर के भीतर श्मशान नहीं बनने देंगे। जहां श्मशान है वहीं अन्त्येष्टि होगी। भारी तनाव के बीच कैसे भी मामला निपटा। जनार्दन पान्डेय को राजनीति के दुर्वासा अवतार के तौर पर याद किया जाता है।





पल्लेदार ने इलाकेदार को हराया और टॉकीज के मैनेजर बने अध्यक्ष





नगरीय राजनीति की तासीर ही कुछ अलग होती है। एक दौर था जब टॉकीज के मैनेजर क्या गेटकीपर से भी दोस्ती हो जाए तो लोग खुद को धन्य मानते थे। ऐसे में एक मारवाड़ी की व्यंकट टॉकीज के मैनेजर मास्टर महेन्द्र सिंह की बड़ी ख्याति थी। उनके साथ एक दिलचस्प बात यह जुड़ी थी कि फिल्म से पहले दर्शक एक घंटे उनकी पूजा देखते थे। मास्टर साहब चुनाव लड़कर पार्षद बन गए। उन दिनों शत्रुघ्न सिंह तिवारी कांग्रेस के बड़े नेता थे उन्होंने मास्टर महेन्द्र सिंह को नगर पालिका का अध्यक्ष बनवा दिया। सबसे दिलचस्प किस्सा है शेख हबीब मंसूरी का, ये गल्लामंडी में पल्लेदार थे। यमुनाप्रसाद शास्त्री ने इन्हें प्रसोपा से पार्षदी लड़वा दी। मंसूरी जीत भी गए। कई और समाजवादी व निर्दलीय पार्षद चुनकर आए। जब अध्यक्ष के निर्वाचन का वक्त आया तो कांग्रेस ने डॉक्टर सज्जन सिंह को अपना उम्मीदवार बना दिया। ये सन 70 के आसपास की बात है। डॉ. सज्जन सिंह प्रतिष्ठित चिकित्सक के साथ ही अर्जुन सिंह के लघुभ्राता और चुरहट के इलाकेदार थे। शास्त्री जी की सक्रियता ने मुकाबले को कश्मकश बना दिया। परिणाम निकला तो शेख हबीब मंसूरी नगरपालिका के अध्यक्ष चुन लिए गए। दूसरे दिन अखबार की सुर्खियों में था..पल्लेदार से हारे इलाकेदार!



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