Singrauli : चले थे सिंगापुर बनाने.. बन रहा सिंगूर !

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Arvind Mishra
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Singrauli : चले थे सिंगापुर बनाने.. बन रहा सिंगूर !

Singrauli. धुआं उगलती दर्जनों विद्युत उत्पादन इकाइयों की तपन, कोयला खदानों से निकलने वाली धूल, रासायनिक कचरायुक्त पानी के सेवन से बेहाल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सपनों के सिंगापुर 'सिंगरौली' ने हाल ही में अपना 14वां स्थापना दिवस मनाया है। शिवराज सरकार के हर दौर में ये पूर्णतः सरकारी आयोजन होता है, बीच में कमलनाथ सरकार ने  कोई उपयोगिता नहीं के तर्क के साथ इसे जरूर बन्द करा दिया था। इस बार के आयोजन में 'नगर गौरव उत्सव' भी जोड़ दिया गया। 24 मई से 29 मई तक चले इस आनंदोत्सव के बीच यहां के निवासियों के मन में यहां के अपार कोयला भण्डार की ही तरह व्याप्त विस्थापन, बेरोजगारी, शोषण, कुपोषण और प्रदूषण जैसी गम्भीर समस्याओं की वजह से सालों से छुपी विद्रोह रूपी चिंगारी भी सुलगती प्रतीत हो रही है। ऐसा लगता है कि यदि अब भी इन समस्याओं के निदान का सार्थक प्रबंध नहीं किया गया तो ये चिंगारी कभी भी ज्वालामुखी बन अनियंत्रित रूप ले सकती है। तब ऐसे हालात में सिंगरौली, सिंगापुर बने या ना बने इसे सिंगूर बनने से कोई नहीं रोक सकता।





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खनिज संपदा का भंडार लेकिन दुर्दशा पर आता है रोना





काबिल-ए-गौर हो कि सिंगरौली की कोख में कोयला, कोरंडम, अभ्रक जैसी बहुमूल्य खनिज सम्पदाओं का अपार भण्डार है। विकास की राह पर जब यहां के लोग नजर दौड़ाते हैं तो गर्व से इतरा उठते हैं कि उनकी सिंगरौली की कोख से निकले कोयला-पानी की बदौलत हमारा भारत निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है। लेकिन जब यहां की सरजमी पर पले-बढ़े पेड़-पौधों, पर्वत-पहाड़, जंगल-जमीन की नित होने वाली दुर्दशा पर नजर उठाते हैं तो सिंगरौली की कोख में पलने वाली खनिज सम्पदाओं को लेकर रोना आ जाता है। काश यदि ये सम्पदा इसकी कोख में नहीं होती तो शायद यहां पलने वाले पेड़-पौधे, जीव-जंतु, इंसान-पशु, जंगल-जमीन की ये दुर्दशा नहीं होती।





उद्योगपतियों के हवाले 80 हजार एकड़ की जमीन





विकास की दौड़ में अब तक लगभग 80 हजार एकड़ के हिस्से को सिंगरौलीवासियों से छीनकर उद्योगपतियों के हवाले कर दिया गया है और जमीनों पर आश्रित लाखों किसानों, मजदूरों, वनवासियों, जीव-जंतुओं को आश्रय विहीन और रोजगार विहीन कर दिया गया है। ये ठीक है कि इस प्रक्रिया के दौरान सभी आश्रितों के समुचित पुर्नवास और रोजगार का वादा किया गया था लेकिन इस निर्देश और वादे का पालन यहां कितना हुआ, शायद किसी ने भी इस ओर ध्यान देना जरूरी नहीं समझा। जिसकी वजह से इन सभी की हाय और पीड़ा की चीत्कार आज आक्रोश और विद्रोह की चिंगारी का रूप धरती जा रही है।





आजादी के पहले से ही हितों की बलि चढ़ाते आ रहे हैं लोग





यहां के लोग अपने देश की उत्तरोत्तर प्रगति के लिए यूं तो आजादी के पहले से ही अपने हितों की बलि चढ़ाते आए हैं। बात चाहे पंडित गोविंद वल्लभ पंत सागर (रिहंद जलाशय) की हो या फिर एनसीएल और एनटीपीसी जैसी परियोजनाओं की स्थापना की। इतिहास गवाह है कि इन सबके निर्माण के लिए यहां पलने वाले बच्चे-बच्चे ने हंसते-हंसते अपने हितों की बलि चढ़ाकर विस्थापन का दंश झेला है। यही नहीं इसके बाद राष्ट्रीय जरूरत का सम्मान करते हुए सिंगरौली ने एक बार फिर से विस्थापन रूपी कालकूट का सेवन करना स्वीकार कर लिया। यही वजह रही कि आज इसके हर हिस्से में रिलायंस पावर, एस्सार पावर, हिन्डाल्को, जेपी, डीबी, सैनिक माइन्स, एपी माइन्स जैसे तरह-तरह नामों की गगनचुंबी चिमनियां खड़ी होकर एक मुस्तफा 20 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन के लिए बेकरार हैं।





विकास की तैयारी के पीछे कितनी बर्बादी





कभी सोचा है कि विकास की इस तैयारी के पीछे यहां कितनी बर्बादी हुई है। शायद आपको भान भी नहीं होगा कि ऊर्जा उत्पादन की इस तैयारी ने प्रदूषण, रासायनिक कचरे के रूप में हवा तक को जहरीला बनाकर प्रदूषण के मामले में सिंगरौली को सबसे ऊंचे पायदान पर पहुंचा दिया है। यहां निवासरत हर प्राणी तरह-तरह की बीमारियों से पीड़ित हो चुका है लेकिन इन परियोजनाओं में उन्हें इलाज की सुविधा देने के बदले भगा दिया जाता है। हालात ये हैं कि विस्थापित हुआ यहां का जन-जन आज शोषण का शिकार है जिसे रोजगार, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी जैसी बुनियादी जरूरतों के लिए हर कदम पर शोषित होना पड़ रहा है। विस्थापितों को कोफ्त तब होती है जब अनिल अंबानी, अडानी जैसे उद्योगपति परियोजनाओं का संचालन तो यहां करते हैं, प्रदूषण की समस्या यहां बढ़ाते हैं और सुविधाओं की बात भोपाल में करते हैं। आपको शायद याद होगा कि यही अंबानी जी थे जिन्होंने 2010 में खजुराहो सम्मेलन के दौरान पर्यावरण का उच्च स्तरीय रिसर्च सेंटर भोपाल में खोलने की बात कही थी। उस समय यदि यहां के कर्ताधर्ता चुप नहीं बैठे होते तो शायद अब तक वो रिसर्च सेंटर जरूरत के मुताबिक यहां खुल गया होता और तब शायद पर्यावरण प्रदूषण के मामले में इसकी गति ये नहीं हुई होती।





सिंगापुर ना बन पाए, सिंगूर की तरह जरूर बन जाएगी !





यूं तो इंस्टीट्यूट ऑफ माइन्स, उच्च स्तरीय मेडिकल कॉलेज खोले जाने की राह आसान हो गई है लेकिन विस्थापितों के पुर्नवास और विकास के लिए समुचित व्यवस्था बनाना और प्रदूषण नियंत्रण शेष है। यदि इस ओर समुचित ध्यान दे दिया जाए तो शायद इसकी पहचान और कुछ दिनों तक सिंगरौली के रूप में बनी रह सकती है। वरना मुख्यमंत्री शिवराज की इच्छानुरूप ये सिंगापुर बन पाए या न बन पाए सिंगूर की तरह जरूर बन जाएगी।





सिंगरौली के प्रदूषण का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित





सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट और पर्यावरणविद अश्विनी दुबे ने कहा कि सिंगरौली और रिहंद जलाशय में व्याप्त प्रदूषण के संदर्भ में अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और NGT की पिछले 10 सालों की सैकड़ों ऐसी रिपोर्ट (जिनमें रिहंद जलाशय और सिंगरौली में व्याप्त प्रदूषण को लेकर गहरी चिंता जताई गई है) गूगल पर अपलोड हैं। यही नहीं मेरी अपील पर मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है जिसके तहत सिंगरौली के प्रदूषण के लिए जिम्मेदार सभी कंपनियों को भी सुप्रीम कोर्ट में पेश किया जा चुका है।



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