Indore. बीते बीस सालों से इंदौर में कांग्रेस न केवल मेयर बल्कि अपनी परिषद तक देखने को तरस गई है। वजह तो कई हैं, लेकिन सबसे बड़ी वजह गुटबाजी और उम्मीदवार का चयन रहा है। इस बार कांग्रेस ने उम्मीदवार चयन की बाधा तो काफी पहले ही सर्वसम्मति से पार कर ली है लेकिन सवाल अब भी यही है कि क्या कांग्रेस बीस साल से जमा भाजपा का तिलस्म तोड़ पाएगी।
इन दो दशक की बात करें तो कांग्रेस ने मेयर के कम से कम दो चुनाव बहुत दमदारी से लड़े हैं, जबकि बाकी दो चुनाव तकरीबन एकतरफा रहे हैं। इस बार तिलस्म टूटने का सवाल इसलिए खड़ा हो रहा क्योंकि कांग्रेस ने करीब साल भर पहले ही विधायक संजय शुक्ला को मेयर का उम्मीदवार घोषित कर दिया है। अभी तक अंतिम दिन तक प्रत्याशी पर विवाद होता रहा है। शुक्ला ने एक नंबर विधानसभा में जिस हिसाब से बीजेपी के पंद्रह साल पुराने गढ़ को भेदकर जीत हासिल की है, उससे कांग्रेसी उम्मीद से हो गए हैं। हालांकि यह उतना आसान नहीं है, जितना कांग्रेसी उम्मीद लगाए बैठे हैं, फिर भी संजय की सक्रियता और बढ़ते ग्राफ ने बीजेपी को बैचेन तो कर ही दिया है।
यहां होती है मुश्किल
कांग्रेस को सबसे ज्यादा मुश्किल शहर की दो विधानसभाओं में होती है। दो नंबर और चार नंबर विधानसभा तीस साल से भाजपा के पास है। यहां कैलाश विजयवर्गीय, रमेश मेंदोला, (दो नंबर से) और लक्ष्मणसिंह गौड़ (अब स्वर्गीय) और मालिनी गौड़ (चार नंबर से) विधायक हैं। इन दोनों विधानसभाओं में ही भाजपा करीब 80 हजार से एक लाख वोटों की लीड ले लेती है जिसे पाटना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होता। यह इंदौर की राजनीति का स्थायी तत्व बन चुका है । दूसरी मुश्किल यह है कि शहर की छह सीटों में से अधिकांश पर भाजपा के विधायक होते हैं। अभी भी संजय के अलावा राऊ से जीतू पटवारी (अर्ध शहरी) विधायक हैं, बाकी चार सीटों पर भाजपा का कब्जा है। ये समीकरण भी कांग्रेस को मुश्किल देता है। शहर की सभी छह सीटों का गणित देख लिया जाए तो कांग्रेस को एक नंबर, तीन नंबर और पांच नंबर विधानसभा के कुछ विशेष हिस्सों से ही मदद मिलती है, बाकी सब जगह भाजपा का दबदबा रहता है। ये ही वजह है कि कांग्रेस की कई नेता तो चुनाव लड़ने से ही मना कर देते हैं। उनका पहला जवाब यही होता है कि-दो नंबर और चार नंबर के गड्ढा कैसे भरेंगे।
गुटबाजी, सुस्ती
कांग्रेस में गुटबाजी सबसे बड़ी व्याधि है। क्या सोच सकते हैं कि प्रदेश के सबसे बड़े, व्यापारिक शहर में कांग्रेस के पास मेयर का उम्मीदवार तक नहीं होगा। ऐसा हुआ है। वर्ष 2000 में इंदौर में मेयर के चुनाव में जब भाजपा ने कैलाश विजयवर्गीय को अपना उम्मीदवार बनाया तो कांग्रेस अपना उम्मीदवार तक खड़ा नहीं कर पाई थी। पुराने मंत्री, मेयर और कद्दावर नेता सुरेश सेठ ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा। इस मुद्दे पर कांग्रेस के दो धड़े हो गए। एक गुट सेठ को ही समर्थन देना चाहता था, जबकि दूसरा गुट खिलाफ रहा। हालांकि सेठ करीब 1.06 लाख वोटों से हार गए । उस साल विजयवर्गीय देश में सबसे ज्यादा वोटों से जीतने वाले मेयर बने थे। इसी तरह 1995 के चुनाव में कांग्रेस अपने पार्षदों का टिकट घोषित नहीं कर पाई थी। फ्री फॉर ऑल के नारे के साथ एक-एक वार्ड से कई कांग्रेसी खड़े हो गए थे। पार्टी ने कह दिया था-जो जीता वो कांग्रेसी हो जाएगा। उसके बाद से कांग्रेस लगातार बिखरती गई और बीस साल गुजर जाने के बाद भी नहीं संभल पाई है। कांग्रेस में उम्मीदवार को खुद चुनाव लड़ना पड़ता है, संगठन का साथ यदा-कदा ही मिलता है, इसके विपरीत भाजपा तीन लेयर में अपने उम्मीदवार के लिए चुनाव लड़ती है भले चुनाव छोटा हो या बड़ा। यह फर्क भी कांग्रेस की दुर्गति का एक कारण है।
85 में से 20-25 पार्षद जीतते हैं
इंदौर में 85 पार्षदों की परिषद् है, इनमें से कांग्रेस के बमुश्किल 20-25 पार्षद जीतते हैं। बाकी 60 पर भाजपा का कब्जा रहता है। 70-30 का यह रेशो कई चुनावों से चल रहा है। कमजोर पार्षद उम्मीदवारों का असर मेयर के चुनाव पर भी पड़ता है। इसके विपरीत भाजपा के मजबूत उम्मीदवार मेयर उम्मीदवार को भी ताकत दे देते हैं।
25 सालों में इंदौर के मेयर
-1995 से 2000, मधुकर वर्मा (कांग्रेस)
- 2000 से 2005, कैलाश विजयवर्गीय (भाजपा)
- 2005 से 2010 उमाशशि शर्मा (भाजपा)
- 2010 से 2015 कृष्णमुरारी मोघे (भाजपा)
- 2015 से 2020 मालिनी गौड़ (भाजपा)