BHOPAL. अब से कुछ दिन पहले तक मध्यप्रदेश की फिजाओं में एक ही सवाल तैर रहा था। दो तरह से- पहला सीधा और दूसरा थोड़ा घुमाकर। सीधा यूं कि सीएम कब बदल रहे हैं? और घुमाकर यूं कि बदलाव कब हो रहा है? जब घुमाकर पूछा जा रहा था तब बदलाव में बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा भी शामिल थे, लेकिन अब सवाल बदल गया है। किसकी सरकार बन रही है? नया सवाल अब ज्यादा सीधा और सपाट हो गया है। यानी अब सभी का मानस बनने लगा है कि कोई राजनीतिक चमत्कार या अनहोनी हो जाए तो ही मुख्यमंत्री या अध्यक्ष बदलेंगे, वरना यही जोड़ी विधानसभा चुनाव कराएगी।
किसकी सरकार बनेगी?
ये एक ऐसा सवाल है जो काउंटिंग वाले दिन तक हवा में तैरता रहता है। इसलिए इसके उत्तर में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, केवल विश्लेषण ही किया जा सकता है। जमीनी हालात क्या हैं?...मुद्दे क्या हैं?...सत्ता-विरोधी लहर है क्या? अगर है तो क्या इतनी ज्यादा है कि सरकार ही पलट दे?...क्या एक ही चेहरा और एक ही पार्टी देख-देखकर जनता ऊब गई है?...क्या कांग्रेस के नेताओं और उसके संगठन की पर्याप्त तैयारी है?... सिंधिया फैक्टर क्या गुल खिलाएगा?...क्या कांग्रेस एकजुट रह पाएगी?.. जयस क्या रोल प्ले करने वाला है?..ये वो जिज्ञासाएं हैं जिनके जवाब हर कोई जानना चाहता है।
एंटी इन्कंबेंसी को बीजेपी करेगी डिफ्यूज या कांग्रेस करेगी यूज ?
हम 9 महीने पहले विश्लेषण कर रहे हैं सो अभी से बहुत ज्यादा दावे के साथ कहना जल्दबाजी होगी। इस बीच नर्मदा जी में बहुत-सा पानी बह जाएगा। हां, चूंकि बीजेपी सत्ता में है इसलिए सत्ता-विरोध (एंटी इन्कंबेंसी) उसके ही खिलाफ होगा ये लाजिमी-सी बात है। इसी स्वाभाविक तथ्य को ध्यान में रखते हुए ये कहा जा सकता है और कहा भी जा रहा है कि थोड़ी-सी बढ़त कांग्रेस को मिली हुई है। ऐसा कई दफा महसूस भी हो रहा है। हाल ही में प्रदेश में कई जगहों पर जिस तरह से विकास यात्राओं का विरोध देखने को मिला उससे भी सहज ही आंकलन किया जा सकता है कि जनता में बीजेपी के खिलाफ अच्छा खासा गुस्सा खदबदा रहा है। अब इस गुस्से को बीजेपी कैसे डिफ्यूज करती है या कांग्रेस कैसे यूज करती है इसी से तय होगा कि दिसंबर 23 में बतौर मुख्यमंत्री वल्लभ भवन की लिफ्ट में कौन सवार होगा? संभवतः इसी गुस्से और जमीनी हकीकत को ध्यान में रखकर कहा जा रहा है कि इस बार बीजेपी बहुत सारे मौजूदा विधायकों के टिकट काटेगी। यानी गुजरात फॉर्मूला अप्लाई किया जाएगा। पार्टी के कर्ता-धर्ताओं का भी मानना है कि जनता विधायक से नाराज है, पार्टी से नहीं। इसलिए नया चेहरा सामने आते ही जनता का गुस्सा भी काफूर हो जाएगा। इसलिए ये भी कहा जा रहा है कि विकास यात्रा निकालने के पीछे मूल आइडिया ही ये था कि इसके जरिए मौजूदा बीजेपी विधायक की लोकप्रियता का आंकलन किया जा सके। ताकि टिकट काटते वक्त कोई बवाल ना मचे। वैसे विकास यात्राओं में दिखाई दे रही नाराजगी का एक पहलू और भी है। जनता की ये नाराजगी प्रेशर कुकर के सेफ्टी वॉल्व की तरह भी काम कर सकती है। जनता का जो गुस्सा वोटिंग के वक्त ईवीएम पर निकलना चाहिए, वो यात्राओं में ही निकल गया और बीजेपी संभल गई।
चुनावी मुद्दे तो बहुतेरे हैं..?
जहां तक मुद्दों का सवाल है तो मुद्दे तो बहुतेरे हैं। बेरोजगारी की समस्या युवा वर्ग को परेशान किए है। भ्रष्ट्राचार चरम पर है। महंगाई से जनता त्रस्त है और सबसे बड़ा मुद्दा है- कार्यकर्ताओं की नाराजगी। असल में उत्तरप्रदेश में चुनाव जीतने के बाद बीजेपी में कई सारे नेता इस बात की वकालत करने लगे हैं कि अगर हितग्राही (वो वोटर जो सरकार कि किसी न किसी योजना का लाभ उठा रहा है) ही पार्टी से खुश है और वोट डाल रहा है तो फिर कार्यकर्ता की उपयोगिता ही क्या है? इन नेताओं का तर्क है कि कार्यकर्ता सिर्फ और सिर्फ वोटर को घर से निकालकर पोलिंग बूथ तक लाने का ही तो काम करता है। और अगर वोटर (हितग्राही) खुद-ब-खुद वोट डालने आ रहा है तो फिर उसके और पार्टी के बीच में कार्यकर्ता को क्यों लाना चाहिए?
सत्ता के सामने कार्यकर्ताओं की नाराजगी का खतरा
इस अनदेखी से कार्यकर्ताओं की नाराजगी का खतरा बीजेपी के सामने खड़ा हो सकता है। इसके सिवाय बीजेपी का जमीनी कार्यकर्ता इस बात की भी बार-बार शिकायत करते मिल जाता है कि आखिर हमें पिछले 20 साल के राज में मिला ही क्या? सारा माल तो बड़े नेताओं ने समेट लिया। हालांकि कुछ लोग ये भी मानते हैं कि ये बहुत ही सामान्य-सा मनोविज्ञान है। कहीं भी अगर कोई पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रहती है तो कई कार्यकर्ताओं में इस तरह की तात्कालिक नाराजगी उभरना बहुत ही साधारण-सी बात है। ऐसे में ये मान लेना कि कार्यकर्ता पार्टी के विरोध में काम करने लगेगा या चुप होकर घर बैठ जाएगा शायद सही नहीं होगा। हालांकि क्षेत्रीय संगठन महामंत्री अजय जामवाल ने हाल ही में नसीहत दे डाली है कि कार्यकर्ताओं को भूलना नहीं है। बीजेपी जितनी जल्दी ये गलती सुधारेगी उसकी सेहत उतनी ही जल्दी ठीक होगी।
सिंधिया फैक्टर बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती
हां, सिंधिया फैक्टर जरूर इस दफा बीजेपी के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है। इसे पार्टी कैसे डील करेगी, चुनाव नतीजों को तय करने में ये बहुत ही ज्यादा अहम साबित होगा। ग्वालियर-चंबल ही नहीं बल्कि प्रदेश की उन सभी सीटों पर बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी होने वाली हैं जहां सिंधिया समर्थक डटे हुए हैं। 2019 में जो कुछ हुआ वो तस्वीर का एकदम अलग रंग था। उस वक्त चूंकि सरकार बनाने का मामला था इसलिए बीजेपी के समर्पित कार्यकर्ता ने भी मन मसोसकर संगठन और बड़े नेताओं का आदेश मान लिया था और सिंधिया के साथ आए कांग्रेस से आयातित नेता के लिए झंडा-डंडा उठा लिया था, लेकिन एक बार फिर ऐसा हो पाएगा फिलहाल ऐसा दिखता नहीं है। एक आंकलन ये भी है कि सिंधिया को बीजेपी से जितना मिलना था मिल चुका है, अब तो उन्हें कैडर बेस्ड पार्टी के अनुशासित सिपाही की तरह रहना ही पड़ेगा। टिकट बंटवारे में भी उनकी कितनी सुनी जाएगी इस बारे में भी फिलहाल कोई दावा नहीं किया जा सकता है, लेकिन कांग्रेस जैसी तो नहीं चलेगी ये पक्का है। इन्हीं सब कारणों से ये कहा जा रहा है कि ग्वालियर-चंबल पर इस बार जो कब्जा करेगा वही मध्यप्रदेश पर राज करेगा।
कांग्रेस अपनों से ही परेशान
कांग्रेस हर बार की तरह इस बार भी अपनों से ही परेशान है, लेकिन उसके लिए सबसे अच्छी बात ये है कि सिंधिया अब उनके साथ नहीं हैं। लिहाजा टिकट बंटवारे में ज्यादा सहूलियत होगी। उधर अजय सिंह या अरुण यादव चाहे जो बयान दें लेकिन ये 100 फीसदी तय है कि अगर सरकार बनने लायक नंबर आते हैं तो सीएम का सेहरा कमलनाथ के सिर ही बंधना है। पार्टी के नजरिए से देखें तो ये बात अच्छी है कि आमतौर पर मुख्यमंत्री को लेकर दूसरे नेताओं और कार्यकर्ताओं में कोई संशय नहीं है।
चुनाव में जयस का अहम किरदार
मध्यप्रदेश के चुनाव में इस बार एक और अहम किरदार रहेगा- जयस.. यानी जय युवा आदिवासी संगठन। इस पर सबकी नजरें लगी रहेंगी। यहां बता दें कि एमपी में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की कुल संख्या 47 है, लेकिन प्रदेश के लगभग 2 करोड़ आदिवासी मतदाता सीधे-सीधे 84 सीटों पर अपना असर दिखाते हैं। इन वोटों को साधने में कम से कम ऊपरी तौर पर तो बीजेपी कहीं ज्यादा गंभीर दिखाई दे रही है बनिस्बत कांग्रेस के। इसी वजह से पिछले कुछ वक्त से उसका फोकस आदिवासी समाज पर बहुत ज्यादा बढ़ गया है। पहली आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाना हो या प्रदेश में पेसा एक्ट लागू करना हो और या फिर टंट्या मामा और गोंड राजा शंकर शाह, रघुनाथ शाह की याद में बड़े कार्यक्रम करना हो, सभी मोर्चों पर बीजेपी फिलहाल कांग्रेस से मीलों आगे दिखाई दे रही है। साफ है कि इस दफा आदिवासी वोट को अपनी तरफ खींचने में वो कोई कसर छोड़ना नहीं चाहती।
बीजेपी की आदिवासी सीटों पर कब्जा जमाने की कोशिश
कांग्रेस इस बारे में कम से कम इस वक्त तो काफी पीछे है। यहां हमें ध्यान रखना चाहिए कि 2018 के चुनाव में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 में से 30 सीटें कांग्रेस के खाते में गई थी। बीजेपी को सिर्फ 16 आदिवासी सीटें ही मिल पाई थीं। जबकि इसके विपरीत 2013 में बीजेपी ने इन्हीं 47 सीटों में से 31 सीटें जीती थीं और कांग्रेस को सिर्फ 15 आदिवासी सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। बीजेपी की पूरी कोशिश है कि 2018 में खोई हुई आदिवासी सीटों पर वो वापस कब्जा जमा ले। वैसे जयस किसे नुकसान पहुंचाएगी और किसे उसके मैदान में रहने का फायदा होगा, इसका सीधा कोई गणित दिखाई नहीं देता है। ये तो सीट दर सीट निर्भर करेगा। हालांकि ये माना जा रहा है कि मान-मनौव्वल या दूसरे साधनों को अपनाने की नौबत आई तो बीजेपी इस मामले में कांग्रेस को पीछे छोड़ सकती है। कुल मिलाकर जयस जिस तरह से अंदर ही अंदर तैयारी कर रहा है, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि ये संगठन इस दफा नतीजों को तय करने में ‘की रोल प्ले’ करेगा।
दोनों ही पार्टियों को 10 में से 5-5 नंबर
कुल मिलाकर चुनाव के ठीक 9 माह पहले कहा जा सकता है कि मैच अभी खुला हुआ है। दोनों ही पार्टियां बराबरी पर यानी टाई पर खड़ी हुई हैं। नंबर देना चाहें तो दोनों ही पार्टियों को 10 में से 5-5 नंबर दिए जा सकते हैं। अब देखने वाली बात ये होगी कि इधर बीजेपी सिंधिया फैक्टर, ग्वालियर-चंबल का इलाका और एंटी इन्कंबेंसी को कैसे डील करती है, तो उधर आदिवासियों को कौनसी पार्टी बेहतर तरीके से साधती है? क्योंकि पिछली बार भी मैच लगभग बराबरी पर ही छूटा था। कांग्रेस भले ही सीटों के मामले में बीजेपी से 5 सीटें आगे थी (कांग्रेस-114, बीजेपी-109) लेकिन वोट परसेंट के मामले में बीजेपी ने 0.13 (दशमलव एक तीन) फीसदी ज्यादा वोट हासिल करके कांग्रेस से बहुत ही मामूली-सी बढ़त हासिल कर ली थी। बीजेपी को 41.02 और कांग्रेस को 40.89 फीसदी वोट मिले थे।