BHOPAL. कांग्रेस के एक बुजुर्ग नेता से हाल ही मैंने जानना चाहा कि चुनाव लड़ने के मामले में कांग्रेस और बीजेपी के बीच क्या बुनियादी फर्क पाते हैं? उनका जवाब बड़ा ही वस्तुनिष्ठ रहा, वे बोले- कांग्रेस खेलने से पहले यानी मैदान के बाहर ही इतनी वार्मअप हो जाती है कि उसकी खेलने की ऊर्जा खत्म हो जाती है जबकि बीजेपी सतत खेल के मैदान में ही वार्मअप करती रहती है। वह चुनाव के खेल को लंबी रेस की स्पर्धा मानकर चलती है। विन्ध्य के संदर्भ में देखें तो यह बात सोलह आने सही लगती है।
कांग्रेस और बीजेपी में दिलचस्प जद्दोजहद
6 महीने पहले जब नगरीय निकाय और पंचायतों के चुनाव हुए थे और उसके जो परिणाम सामने आए उसके आधार पर हम मानकर चल रहे थे इस बार कांग्रेस फ्रंट रनर रह सकती है, लेकिन अब वह हांफती-सी दिखने लगी है। बीजेपी के एक बाद एक ताबड़तोड़ आयोजनों ने उसे और उसके नेताओं को लोगों की जुबान पर ला दिया है। 2018 के विधानसभा चुनाव के बरक्स विन्ध्य को देखें तो कांग्रेस और बीजेपी के बीच दिलचस्प जद्दोजहद है। कांग्रेस इस क्षेत्र में अपने खोए हुए जनाधार को पाना चाहती है जबकि बीजेपी की पूरी कोशिश पिछले नतीजों की यथास्थिति बनाए रखने की है।
बीजेपी सरकार का मेरूदंड बना विंध्य
पिछले चुनाव में बीजेपी को यहां 30 में से 24 सीटें मिली थीं। दो उपचुनाव हुए उसमें अनूपपुर में बीजेपी ने कांग्रेस की सीट छीनी तो रैगांव में कांग्रेस ने। यानी कि हिसाब बराबर। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यहां की आम सभाओं में मतदाताओं को शाष्टांग दंडवत करके आभार जता चुके हैं। इस बार बीजेपी की सरकार का मेरूदण्ड विन्ध्य ही बना। भले ही ज्योतिरादित्य सिन्धिया ने पलटी मारकर कांग्रेस की सरकार गिरा दी हो पर पर 24 सीटों का ठोस आधार विन्ध्य ने ही दिया। यहां कांग्रेस में कोई ऐसा विधायक भी नहीं था जो सिंधिया के प्रभाव में रहा हो और पाला बदल किया हो। बिसाहूलाल का मामला अलग है। वे बीजेपी के ऑपरेशन लोटस के पहले चरण के किरदार थे।
बीजेपी सरकार में विंध्य को प्रभावी नेतृत्व नहीं मिला
2020 में जब बीजेपी की सरकार बनी तो विन्ध्य के लोग आस लगाए बैठे थे कि इस क्षेत्र को प्रभावशाली प्रतिनिधित्व मिलेगा, लेकिन नहीं मिला। बीजेपी ने जिन राजेन्द्र शुक्ल को अपना पोस्टर बॉय बनाकर पूरे विन्ध्य में दौड़ाया उन्हें सत्ता में आने के बाद हाशिए में डाल दिया। पहले मीना सिंह को फिर बिसाहू लाल को कैबिनेट में रखा, रामखेलावन को राज्यमंत्री बनाया लेकिन ये तीनों नेता अपनी विधानसभा से बाहर ही नहीं निकल सके। गिरीश गौतम को स्पीकर बनाकर ब्राह्मण वर्ग को साधने की कोशिश की पर उनका हाल यह रहा कि उन्होंने अपने उत्तराधिकारी बेटे को ही स्थापित करने में पूरी ऊर्जा खपा दी। बेटे राहुल को स्थापित तो नहीं कर पाए उल्टे घर की पंचायत में ही उलझकर रह गए। यहां के लोग उन्हें श्रीनिवास तिवारी की तरह ताकवर और प्रभावशाली बनने की अपेक्षा कर रहे थे, लेकिन उनकी राजनीति देवतालाब क्षेत्र के गांवों के नाली-नर्दे और अनुदान राशि के बंटवारे में उलझकर रह गई।
कांग्रेस को जो करना चाहिए था नहीं किया
नगरीय निकाय के चुनावों में बीजेपी को विन्ध्य के प्रायः सभी जिला मुख्यालयों में मुंह की खानी पड़ी। सतना नगर निगम का मेयर पद कांग्रेस के बागी सईद अहमद की बदौलत मिला। रीवा, सिंगरौली नगर निगम से हारी ही। सीधी, शहडोल, उमरिया जैसे जिले हाथ से निकल गए। जिला पंचायतों के सदस्यों में भी कांग्रेस का ही बहुमत रहा। अप्रत्यक्ष प्रणाली के चुनाव ने बीजेपी की लाज बचा ली। नगरीय निकाय और पंचायतों का चुनाव एक तरह से मतदाताओं के बीजेपी के खिलाफ गुस्से का प्रकटीकरण रहा। कांग्रेस ने मिलजुलकर चुनाव लड़े। उस निरंतरता को जारी रखने के लिए कांग्रेस को जो करना चाहिए वो नहीं किया। कमलनाथ ने इस इलाके को उपेक्षित ही रखा। जिस क्षेत्र में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया हो उस इलाके में मुख्यमंत्री रहते हुए कमलनाथ महज दो बार आए। सरकार गिरने बाद से अब तक दो बार आए लेकिन उनका आयोजन कांग्रेस का रायता फैला गया। सतना में महारैली में आए, लेकिन आयोजक सिद्धार्थ कुशवाहा डब्बू ने अजय सिंह राहुल और राजेन्द्र सिंह समेत सभी कद्दवरों को आयोजन से दूर रखा। नतीजा टांय-टांय फिस्स.. एक लाख लोगों को जोड़ने के दावे के विपरीत बमुश्किल 5 हजार लोग जुटे। इसी तरह फरवरी के शुरुआत में उमरिया में हुए आयोजन में भी अजय सिंह राहुल से दूरी बनाकर रखी। विन्ध्य में कांग्रेस के पास ले देकर अजय सिंह राहुल ही एक चेहरा हैं जिनके समर्थक प्रायः हर कस्बे या गांव में हैं। चुरहट से वे भले ही चुनाव हार गए हों लेकिन अभी भी उनके पीछे खड़े होने वाले समर्थकों की संख्या अन्य से ज्यादा है। सांगठनिक तौर पर कांग्रेस का काम रीवा में अपेक्षाकृत बेहतर रहा। अनुभवी संगठक पूर्व सांसद प्रतापभानु शर्मा ने यहां कांग्रेस की मुर्दानगी काफी हद तक दूर की है, लेकिन मुश्किल यह कि बीजेपी नेताओं के मुकाबले बड़े चेहरे अब शेष नहीं बचे। इस बार प्रत्याशियों को लेकर भी जुएं-सा दांव खेलना होगा।
बीजेपी हर स्तर पर विंध्य को साधे रखना चाहती है
बीजेपी इस मामले में बेहद सतर्क है। 2018 के बाद प्रतिपक्ष में रहते हुए शिवराज सिंह 4 बार आए। सत्ता में आने के बाद तो वे प्रायः हर हफ्ते किसी न किसी बहाने इस क्षेत्र पहुंच रहे हैं। सतना और रीवा को छोड़ शेष सभी जिले जनजातीय बाहुल्य है। बीजेपी का इन पर कितना फोकस है इस बात का अंदाजा जनवरी में शहडोल में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की सभा से लगा सकते हैं। 24 फरवरी को सतना में शबरी जयंती पर कोल महाकुंभ में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहुंचे। रीवा-सीधी के बीच विश्वस्तरीय टनल का लोकार्पण नितिन गडकरी कर चुके हैं। गडकरी की सदारत पर विन्ध्य क्षेत्र में 6 नेशनल हाइवे शुरू हुए या काम चल रहा है। 15 फरवरी को रीवा एयरपोर्ट की सौगात देने ज्योतिरादित्य सिंधिया आए थे। यानी कि हम देख सकते हैं कि बीजेपी हर स्तर पर विन्ध्य को साधे रखना चाहती है और इस पर कामयाब होती भी दिख रही है।
अभी बराबरी के मुकाबले में कांग्रेस-बीजेपी
कांग्रेस यहां युवाओं और छात्रों के आक्रोश को भुनाने का काम कर सकती थी। यहां के बच्चे करियरिस्ट हैं। भर्तियों में लगने वाली अड़पेंच और बेहतर शैक्षणिक संस्थान मुद्दे बन सकते थे, लेकिन कांग्रेस अपनी अलग लकीर खींचने की बजाय बीजेपी की लीक पर ही हांफते हुए चल रही है। विन्ध्य में कांग्रेस यदि आक्रामकता के साथ आगे आए तो अब तक के नुकसान की कुछ हद तक भरपाई कर सकती है पर अफसोस जहां शिवराज सिंह की हर नब्ज पर अंगुली है, वहीं कमलनाथ विन्ध्य को लेकर अब तक अपनी कोई समझ ही नहीं बना पाए। यदि आज चुनाव होते हैं तो बीजेपी और कांग्रेस मुकाबले पर बराबरी में खड़ी दिख रही हैं। पिछले 6 महीनों में कांग्रेस जहां पर थी वहां से नीचे उतरी है और बीजेपी आगे बढ़ी है। यानी कि दोनों फिलहाल 5-5 अंक पाने की हकदार दिखती हैं।