BHOPAL. टाइगर जिंदा है, ये जुमला जिन्हें याद है वो ये समझ गए होंगे कि मध्यप्रदेश की सियासत में फिलहाल कौन-कौनसे टाइगर हैं। दोनों टाइगर जिंदा यानि कि दमदार हैं। पर, ये दम कब तक संग रहेगा ये कहा नहीं जा सकता। हो सकता है कि चुनाव नजदीक आते-आते टाइगर का दम कुछ कम हो जाए। बीजेपी वैसे भी ऐसी पार्टी है जो सख्त फैसलों के लिए ही जानी जाती है। इन फैसलों को और सख्त बनाने के लिए पार्टी के एक दिग्गज नेता जिले-जिले जाकर सर्वे कर रहे हैं। फोकस उन सीटों पर है जहां बीजेपी पूरी ताकत लगाने के बावजूद हार गई। अब बीजेपी की जीत की सारी हसरत इन्हीं सीटों पर टिकी है, जिन्हें नाम दिया आकांक्षी सीटों पर। ऐसी हर सीट पर फैसला बहुत सोच-समझकर होगा और जब टिकट कटेंगे तो बहुत से सिंधिया समर्थक भी नपेंगे ये तय माना जा रहा है। न्यूज स्ट्राइक में हम आपको बता रहे हैं उन सिंधिया समर्थकों के नाम जिनके टिकट कटना तय माना जा रहा है और उन नेताओं के भी जो 3 साल से रणछोड़ की तरह सही वक्त का इंतजार कर रहे थे। अब एक बार फिर उनकी पूछ-परख बढ़ने वाली है।
सिंधिया नहीं कर सकेंगे दलबदलुओं की किस्मत का फैसला
चुनावी साल में हर गुजरता दिन प्रत्याशियों के दिल की धड़कनें बढ़ा रहा है। जो लोग टिकट की आस लगाए बैठे हैं, खासतौर से भारतीय जनता पार्टी में उनमें से बहुतों को भी ये अहसास है कि उनका टिकट कट सकता है। पार्टी में यूं तो टिकट के बहुत से पैमाने तय हैं, लेकिन इस बार एक और बात पर ज्यादा गौर किया जा रहा है और वो है गुटबाजी या पट्ठावाद। राजनीति का ये पैटर्न अब तक बीजेपी में कम ही देखा जाता रहा है। या रहा भी तो कभी खुलकर सामने नहीं आया, लेकिन इस बार बीजेपी में अपने अपने गुट पार्टी से ऊंचे होते नजर आ रहे हैं। जिसका इल्जाम सिंधिया समर्थकों के सिर है। खुद बीजेपी में ही 2 तरह के दल हो चुके हैं पुराने भाजपाई और नए भाजपाई। जिनकी वजह से जमीनी स्तर पर जमकर अफरा-तफरी मची हुई है। उपचुनाव के समय पर दल बदलकर आने वाले सभी नेताओं को बिना सोच-विचार के टिकट दिया गया था। जिसे वादा निभाने की मजबूरी भी करार दिया गया, लेकिन इस बार दलबदलुओं की किस्मत का फैसला सिंधिया नहीं कर सकेंगे। पार्टी लाइन के अनुसार ही ये तय होगा कि उन्हें टिकट मिल सकता है या नहीं।
बीजेपी को आई पुराने नेताओं की याद
सिंधिया समर्थकों के लिए इस बार सिर्फ महाराज के दरबार में जी हुकम बजाना काफी नहीं होगा। उपचुनाव से लेकर अब तक उनका परफॉर्मेंस तय करेगा कि वो एक बार फिर टिकट के हकदार होंगे या नहीं। अगर वो बीजेपी के लिटमस टेस्ट में ही फेल हो गए तो टिकट मिलना तकरीबन नामुमकिन है। फाइनल फैसले में अभी वक्त है, लेकिन कुछ नाम तय हो चुके हैं। जिन्हें टिकट मिलना तय है और कुछ सिंधिया समर्थक ऐसे हैं जिनका पत्ता कटना भी तय माना जा रहा है। बीजेपी के इंटरनल सर्वे के आगे महाराज की सिफारिश या कोई और जैक उनके सियासी भविष्य को संवार नहीं सकेगा। अब पार्टी एक बार फिर उन पुराने नेताओं को याद कर रही है जिसकी वजह से जमीनी स्तर पर उसकी पूछ-परख बरकरार है।
बराबरी का होगा सलूक
ज्योतिरादित्य सिंधिया को दल बदले 2 साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है, लेकिन अब भी उनके प्रति और उनके समर्थकों के प्रति लोगों की जिज्ञासा कम नहीं हुई है। उनके आने के बाद शर्त के मुताबिक बीजेपी ने हर काम पूरा किया। न तो उनके स्वागत में कोई कसर छोड़ गई और न ही उनके कद को कम होने दिया गया, लेकिन अब 2023 का टिकट पाना सिंधिया समर्थकों के लिए बहुत आसान नहीं होगा। क्योंकि वादा सिर्फ उपचुनाव तक सीमिति था। अब कोई नया मेहमान नहीं है। सलूक सबके साथ बराबरी का होगा। जो परफॉर्मेंस से चूका है उनके लिए सिर्फ महाराज की सरपरस्ती काफी नहीं होगी।
इनके टिकट पर संकट के बादल
- एदल सिंह कंसाना
राहुल लोधी को छोड़कर शेष सभी वो सिंधिया समर्थक हैं जो उपचुनाव में जीत हासिल नहीं कर सके। वादे के मुताबिक इन्हें निगम मंडल में पद हासिल है, लेकिन अब इनके टिकट पर संशय है।
इनके टिकट पर संकट के बादल
- अंबाह विधायक कमलेश जाटव
ये वो नाम हैं जिनका टिकट अलग-अलग कारणों से खतरे में है। हालांकि टिकट वितरण पर फिलहाल पार्टी में कोई खुलकर बात नहीं करना चाहता। सिंधिया समर्थकों में प्रद्युम्न सिंह तोमर, गोविंद सिंह राजपूत, महेंद्र सिंह सिसोदिया, तुलसीराम सिलावट ये नाम मजबूत कैंडिडेट के रूप में सामने आ रहे हैं।
बीजेपी के फैसले के पीछे ठोस वजह
इस ठोस फैसले के पीछे एक ठोस वजह भी मानी जा रही है। कहा जा रहा है कि अब बीजेपी समझ चुकी है कि नई बीजेपी और पुरानी बीजेपी के बैर से उसे कितना नुकसान हो रहा है। पट्ठावाद के चक्कर में पुराना भाजपाई, जो पार्टी का मजबूत आधार भी हैं वो मायूस हैं। उनकी मायूसी का असर पुराने कार्यकर्ताओं पर भी पड़ रहा है। लिहाजा अब पुराने नेताओं को फिर उनकी मायूस खोह से बाहर निकालकर एक्टिव करने के प्रयास जारी हैं।
इनकी बढ़ेगी पूछ-परख
- मुरैना से रुस्तम सिंह
ये भी माना जा रहा है कि दमोह का टिकट अब जयंत मलैया की सहमति से तय होगा। नेपानगर से मंजू दादू, करैरा से रमेश खटीक को भी पार्टी फिर याद कर सकती हैं। नए और पुराने के बीच संतुलन बैठाकर बीजेपी आकांक्षी सीटों को हकीकत में बदलना चाहती है। ये कोशिश कितनी कारगर होगी। बीजेपी सख्त फैसला लेने के लिए तो तैयार है, लेकिन यही फैसला कहीं दूसरे अंदाज में जी का जंजाल ना बन जाए।
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बीजेपी कौनसा बीच का रास्ता निकालेगी?
कहते हैं 2 नावों की सवारी में डूबना तय होता है। बीजेपी तो ऐसी नावों पर सवार हैं। जिसकी सवारियां ही नाव में छेद करने को तैयार हैं। हर कदम फूंक-फूंककर रखना है और हर फैसला सोच-समझकर लेना है। 2 गुटों में बंटी पार्टी में पट्ठावाद से तो पार पाना है और गुटबाजी भी खत्म करना है। पर फिलहाल स्थिति आगे कुआं पीछे खाई के समान है। नयों को मान दिया तो पुराने रूठने का डर है। पुरानों को याद किया तो नए लोग नैया डुबा सकते हैं। अब देखना ये है कि बीजेपी ऐसा कौनसा बीच का रास्ता निकालती है जिससे कुएं या खाई में गिरे बगैर चुनावी नैया पार लग सके।