BHOPAL. मध्यप्रदेश में चुनाव से पहले सियासी दलों से उल्टी गंगा बह सकती है। हर बार टिकट बंटने का मौका आता है तो उम्मीदवारों को टिकट कटने का डर होता है। नतीजा ये कि वो पार्टी के बड़े नेताओं के चक्कर काटने पर मजबूर हो जाते हैं या परफोर्मेंस पर फोकस करते हैं। उसके बावजूद पार्टी लाइन का हवाला देकर बहुत से नेताओं के टिकट काट दिए जाते हैं, लेकिन इस बार बागियों की बल्ले-बल्ले है। इस बार बागियों को पार्टी से बाहर होने का डर नहीं है। बल्कि, उनके बाहर होने के डर से कांग्रेस और खासतौर से बीजेपी अब तक बड़े फैसले लेने से डर नहीं है। इस बार बागियों के पास सियासी बाजार में चुनने के लिए इतने विकल्प हैं जितने विकल्प सामान खरीदते समय आम बाजार में नहीं मिलते हैं। क्या भरोसा कुछ की तो बोली भी लग जाए। खैर बागियों को मिल रहे विकल्पों का असर कांग्रेस बीजेपी पर ही नहीं। बसपा और सपा जैसे दलों पर भी पड़ेगा। जो किसी जमाने में प्रदेश में कुछ सीटें तो अपने हाथ में रखते थे। लेकिन इस चुनाव में तो मध्यप्रदेश में एक भी सीट बचाने के लाले पड़ रहे हैं।
बसपा की स्थिति है, अकेला चना क्या ही भाड़ फोड़ पाएगा
मध्यप्रदेश चुनाव से बमुश्किल सात माह पहले बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर सियासी जमीन टटोलने की कोशिश कर रही है। सियासी जमीन तलाशने का जिम्मा सौंपा है रामबाई को। जो अचानक बीजेपी सरकार और ज्योतिरादित्य सिंधिया पर हमलवार हो गई हैं। फिलहाल तो बसपा की स्थिति ये है कि अकेला चना क्या ही भाड़ फोड़ पाएगा। वो भी तब जब बसपा और सपा दोनों ही अपनी सियासी जमीन मध्यप्रदेश में गंवा ही चुके हैं।
- 2013 में हुए चुनाव के बाद बसपा के पास प्रदेश में सात सीटें थे जबकि सपा के पास एक।
बसपा का गिरता ग्राफ
- 2003 में पार्टी को 7.26 %
यूपी में सपा की सरकार बनी तो बसपा वो दम नहीं मार सकी
अब बसपा का दावा है कि वो इस बार 230 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और कम से कम 111 सीटें जीत ही लेगी, लेकिन इसकी संभावनाएं बहुत कम है। चुनावी विशेषज्ञों के मुताबिक यूपी में किसकी सरकार है एडजॉइनिंग जिलों में उसके विधायकों की संख्या कुछ ज्यादा रही है। मसलन जब यूपी में बसपा की सरकार थी तब एमपी में उसके सात विधायक थे। सपा की सरकार बनी तो बसपा वो दम नहीं मार सकी और अब तो ताकत दिखाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि यूपी में बीजेपी काबिज है।
क्या ऐसे में बसपा-सपा प्रदेश में कमाल दिखा सकेंगी?
ये सवाल तब है जब बसपा और सपा के मैदान में हिस्सा बांटने कुछ और दल सियासी मैदान में उतर आए हैं। जिन बागियों के विधायकों के भरोसे बसपा और सपा चुनावी जीत तलाश रही है। उन बागियों के लिए तो इस बार चुनावी मैदान में सियासी प्लाटर तैयार है। जहां बड़े दल से लेकर सबसे हैपनिंग दल तक की च्वाइस है तो जातिगत आधार पर उनके क्षेत्र में कमाल दिखा पाने में सक्षम कुछ नए दलों का भी ऑप्शन है। इनमें से कोई दल चुनावी नतीजों में वन सीट वंडर बन जाए या उससे भी ज्यादा कमाल दिखा जाए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए।
प्रदेश की 16 में से 6 नगर निगमों में बगावत दिखाई दी
मध्यप्रदेश में बागियों ने नगर सरकार के समय से ही बीजेपी कांग्रेस की नाक में दम कर दिया था। अब जरा सोचिए प्रदेश स्तर की सरकार बननी होगी तो बागी प्रत्याशी क्या तेवर दिखाएंगे। नगर सरकार के समय प्रदेश की 16 में से 6 नगर निगमों में बगावत के सुर सुनाई दिए। पार्टी से बगावत कर 7 उम्मीदवार महापौर के लिए चुनाव में लड़े। इनमें कांग्रेस के 4 और बीजेपी के 3 बागी नेता थे। ग्वालियर की कांग्रेस महिला मोर्चा की पूर्व जिला अध्यक्ष रुचि गुप्ता और सतना में कांग्रेस के सईद अहमद ने चुनाव लड़ने के लिए पार्टी ही बदल ली।
आप बागियों के लिए सबसे मजबूत विकल्प हो सकती है
अहमद ने बीएसपी के टिकट पर किस्मत आजमाई, जबकि रुचि आम आदमी पार्टी से चुनाव लड़ीं। वहीं, कटनी में बीजेपी की बागी प्रीति सूरी चुनावी मैदान में निर्दलीय लड़ीं। छिंदवाड़ा में कांग्रेस से बागी हुए बालाराम परतेती मैदान में उतरे। देवास में प्रदेश कांग्रेस महासचिव शिवा चौधरी की बहू मनीषा चौधरी निर्दलीय चुनाव लड़ीं। रतलाम में बीजेपी से बागी होकर अरुण राव निर्दलीय महापौर चुनाव लड़े। वैसे तो पार्टियों में टिकट की घोषणा के बाद बगावत के सुर बुलंद होना आम बात है, लेकिन इस बार माजरा कुछ अलग है। इस बार चुनावी मैदान में सिर्फ कांग्रेस बीजेपी अकेले नहीं है। न ही सिर्फ बसपा और सपा जैसे जाने पहचाने दुश्मन हैं। इनके अलावा आम आदमी पार्टी बागियों के लिए सबसे मजबूत विकल्प है। वहां भी दाल नहीं गली तो जयस, आजा समाज पार्टी भी है जो सभी सीटों पर प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर चुकी हैं। हो सकता है कि ओबीसी महासभा भी चंबल और बुंदेलखंड के कुछ इलाकों में दम मार जाए। ऐसा हुआ तो बागियों के पास विकल्पों की कोई कमी नहीं होगी।
बागियों के डर से पार्टियां सर्वे रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई नहीं कर रहीं
अब तक कांग्रेस की नजरें उन बागियों पर थीं जिनके टिकट बीजेपी से कटते हैं, लेकिन अब न सिर्फ कांग्रेस बल्कि आप, जयस, आजाद समाज पार्टी सहित बसपा सपा की नजरें भी ऐसे बागियों पर जमा है। माना जा रहा है कि बीजेपी के बागियों को कांग्रेस में ठिकाना मिल सकता है, लेकिन कांग्रेस के बागियों को बीजेपी का विकल्प नहीं मिल सकता। इस लिहाज से कांग्रेस के बागियों के पास एक विकल्प कम हो सकता है। बागियों को मिलने वाले इसी ऑप्शन के डर से पार्टियां अब तक अपनी सर्वे रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई करने से कतरा रही हैं। बीजेपी अपने इंटरनल सर्वे के आधार पर फैसला लेने का ऐलान कई बार कर चुकी है। पर ऐसा करती है तो चुनाव से सात महीने पहले ही बागियों का सिरदर्द मोल ले सकती है।
इन्हीं दलों के डर से बीजेपी और कांग्रेस फिलहाल बैकफुट पर हैं
नए दलों या संगठनों के आने से ही बागी उम्मीदवारों के हौसले बुलंद है। जिन्हें पहले से ही अपने टिकट कटने का अंदेशा हो। संभव है कि वो इन दलों से चर्चा शुरू भी कर चुके हों। ताकि अचानक टिकट कटने पर विकल्प उनके हाथ में रहे। वैसे भी इन पार्टियों को पहले से चुनावी खेल के धुरंधर खिलाड़ियों की जरूरत है उतनी ही जरूरत बागियों को भी एक ठोस दल या संगठन की है। कांग्रेस बीजेपी लाख ये दावे कर लें कि बागियों के मैदान में उतने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। पर ये तय है कि बागियों का नाम या उस पार्टी की पहचान जो टिकट काटेगी वो कांग्रेस या बीजेपी के ही हिस्से के होंगे। इसलिए पेशानी पर बल पड़ना भी लाजमी ही है।