Indore. प्रदेश के मालवा-निमाड़ अंचल में मतांतरण (धर्म परिवर्तन) के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा है। कमोबेश हर जिले में इसके खिलाफ न केवल रैलियां निकल रही हैं, बल्कि यह बड़ी मांग भी उठ रही है कि मतांतरण करने वाले आदिवासियों को आरक्षण सहित उन सभी सुविधाओं से वंचित (डिलिस्टिंग) किया जाए जो जनजाति में रहते हुए मिलती हैं। यह पहला मौका है जब आदिवासी समुदाय के भीतर ही मतातंरण के खिलाफ
इतने बड़े पैमाने पर आवाज उठ रही है। हालांकि इस आंदोलन के राजनीतिक मायने भी निकाले जा रहे हैं। बीते कुछ दिनों में डिलिस्टिंग की मांग को लेकर झाबुआ, आलीराजपुर, इंदौर, धार, देवास, खरगोन, बड़वानी आदि जिलों में रैलियां निकल चुकी हैं। सूत्रों के मुताबिक अब इन रैलियों को संभागीय और फिर प्रादेशिक स्तर का स्वरूप देने की तैयारी है। जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले होने वाले इस आंदोलन के समर्थकों का कहना है कि आदिवासी समुदाय मूलतः प्रकृति पूजक है । वो सनातन काल से अपने आराध्य को पूजता आया है। प्रलोभन में आकर कुछ लोग इन परंपराओं और संस्कारों को छोड़कर ईसाई और अन्य धर्म अपना रहे हैं तो फिर उन्हें इस समुदाय को मिलने वाले लाभ भी छोड़ना चाहिए । अगर वे नहीं छोड़ते हैं तो सरकार उन्हें आरक्षण सहित अन्य लाभों से वंचित करे।
दो-दो वर्ग का लाभ ले रहे हैं
जनजाति समुदाय का गुस्सा इस बात को लेकर है कि ये लोग दो-दो वर्गों का लाभ ले रहे हैं। राष्ट्रीय आदिवासी एकता मंच के राष्ट्रीय महामंत्री मदन सिंह वास्केल और प्रांतीय महिला मंत्री डॉ. रेखा नागर कहती हैं- एक तरफ तो मतांतरण कर ये लोग हमारी सनातन काल की परंपराएं छोड़ रहे हैं दूसरी तरफ आरक्षण व अन्य सरकारी लाभ लेने के लिए खुद को आदिवासी भी बता रहे हैं। इसके अलावा मतांतरण कर जिस धर्म को अपनाया है उसके अल्पसंख्यक वर्ग के लाभ भी ले रहे हैं। मतलब दोनों वर्गों का लाभ लेकर इस लाभ के असली पात्र लोगों का हक मार रहे हैं। ये या तो घर वापसी करें या इन्हें डीलिस्टि कर एक ही वर्ग में गिना जाए।
अनुच्छेद 342 की व्याख्या पर भी मतांतर
आदिवासी वर्ग को परिभाषित करने के लिए देश के संविधान में अनुच्छेद 342 है। इसे लेकर आंदोलन के दोनों पक्ष अलग-अलग व्याख्या कर रहे हैं। आदिवासियों के संगठन जयस नारी शक्ति की राष्ट्रीय प्रभारी सीमा वास्कले कहती हैं- अनुच्छेद 342 में आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति में नोटिफाइड किया गया है। जिसमें साफ कहा गया है कि आदिवासी धर्म से संबंधित नहीं हैं। मतलब आदिवासी हिंदू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध, इसाई किसी धर्म में नहीं आते हैं। आदिवासी धार्मिक नहीं सांस्कृतिक समाज है । जो आदिवासी अन्य धर्म में शामिल हो गए हैं उनकी प्रकृतिवादी सांस्कृतिक रूप से घर वापसी होना चाहिए न कि उन्हें डिलिस्टिंग किया जाना चाहिए। डिलिस्टिंग की मांग करने वाले दरअसल भ्रम फैलाकर आदिवासियों की संख्या कम करने का प्रयास कर रहे हैं।
कोर्ट कह चुकी है दो-दो वर्ग का लाभ गलत है
आदिवासी से ईसाई बनने के बाद भी दोनों वर्गों (आदिवासी और ईसाई) के लाभ लेने के मुद्दे पर देश की सर्वोच्च अदालत भी ऐतराज जता चुकी है। दरअसल एवान लांकेई रिम्बाई बनाम जयंतिया हिल्स डिस्ट्रिक्ट काउंसिल व अन्य के एक मुदकमें में मेघालय के एक सरकारी आदेश को गुवाहाटी उच्च न्यायालय और बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने वैध ठहराया। कोर्ट ने कहा-ऐसे मुखिया (प्रधान) को परंपरा के अनुसार गांव के धार्मिक अनुष्ठान एवं प्रशासनिक दोनों कार्य एक साथ करना पड़ते हैं। एक धर्मांतरित ईसाई ऐसा नहीं कर सकता। ऐसा धर्मांतरित ईसाई अब देश में कहीं भी गांव का मुखिया (प्रधान) नहीं बन सकता। ऐसे लोग अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यक दोनों को देय सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं जो अनुचित, अनैतिक और संविधान की मूल भावना के विपरीत है।
राजनीतिक मायने भी हैं इसके
धर्म परिवर्तन कर चुके आदिवासियों की घर वापसी या डिलिस्टिंग के राजनीतिक मायने भी कम नहीं हैं। बरसों तक आदिवासी समुदाय का झुकाव कांग्रेस की तरफ रहता आया है। झाबुआ की लोकसभाऔर आलीराजपुर व आसपास की कई विधानसभा सीटें तो कई दशक तक कांग्रेस के ही पास रहीं। कालांतर में भाजपा ने इस समुदाय में घुसपैठ की । उसके बाद आदिवासी वर्ग का रूख बदला। अभी भी झाबुआ की लोकसभा सीट भाजपा के पास है। वहीं जिले की कुछ विधानसभा सीटों पर भी भाजपा काबिज है। आदिवासियों की घर वापसी पर जहां भाजपा को फायदा हो सकता है। यदि आदिवासी वर्ग अपने नए धर्म में बना रहता है तो इसका सीधा फायदा कांग्रेस को होना है क्योंकि अमूमन ईसाई समाज का झुकाव कांग्रेस की तरफ ज्यादा होता है।
47 सीटें आदिवासी बाहुल्य हैं
मध्यप्रदेश में दस साल (2008 और 2013 के चुनाव तक ) आदिवासी वोट बैंक भाजपा से जुड़ा रहा लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में आदिवासियों ने कांग्रेस को खूब समर्थन दिया। प्रदेश की कुल 47 आदिवासी बहुल्य सीटों में से कांग्रेस ने 30 सीटें जीत ली थीं, जबकि भाजपा को 16 पर संतोष करना पड़ा था। एक सीट निर्दलीय जीते थे। वहीं 2008 और 2013 में यह आंकड़ा बिलकुल उलट था। तब भाजपा ने 47 में से 31 सीटें जीती थीं और कांग्रेस को 16 सीटें मिली थीं। उसके बाद से भाजपा आदिवासी वोट बैंक को लेकर सतर्क हो गई है और लगातार इसी वर्ग पर फोकस कर रही है। यहां तक कि केंद्र सरकार ने भी मप्र में आदिवासी वोट बैंक पर ध्यान लगा रखा है । इसका संकेत इस बात से मिलता है कि नवंबर 2021 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब भोपाल आए थे तो उनका कार्यक्रम का फोकस आदिवासी वर्ग पर ही था। इसी प्रकार गृह मंत्री अमित शाह 22 अप्रैल को आदिवासियों से जुड़े आयोजन में हिस्सा लिया। प्रदेश सरकार भी आदिवासी वर्ग से जुड़े हर पहलू पर ध्यान दे रही है। डिलिस्टिंग अभियान को परोक्ष रूप से पार्टी के ही अन्य कदमों का हिस्सा माना जा सकता है।
आदिवासी वर्ग के लिए हाल में भाजपा के कदम
-15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा के जन्म दिवस पर जनजातिय गौरव दिवस मनाया।
-भोपाल रेलवे स्टेशन का नाम गौंड रानी कमलापति के नाम पर किया।
-आदिवासी हितों की रक्षा के लिए पेसा एक्ट लागू किया।
-इंदौर के भंवरकुआ चौराहे का नाम टंट्या मामा के नाम पर किया।
-89 आदिवासी विकास खंडों में उचित मूल्य की दुकान आदिवासियों को ही सौंपी गई। पीएम मोदी खुद इस आयोजन में शामिल हुए।