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देव श्रीमाली, GWALIOR. भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनादि परंपरा के श्रेष्ठ कला मनीषी तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में आयोजित होने वाले तानसेन समारोह का इस साल 98वां आयोजन हो रहा है। इस समारोह की सबसे बड़ी खूबी सर्वधर्म समभाव और इससे जुड़ी अक्षुण्ण परंपराएं है। महान संगीतज्ञ तानसेन उर्फ तन्ना मिश्र और उनके गुरु मोहम्मद गौस की समाधि के सामने आजने वाली शास्त्रीय संगीत की यह अनूठी महफिल है, जिसमें शिरकत करने का मौका मिलना ही कलाकार अपना अहोभाग्य समझते हैं। भारतीय संस्कृति में रची बसी गंगा-जमुनी तहजीब के सजीव दर्शन तानसेन समारोह में होते हैं। मुस्लिम समुदाय से बावस्ता देश के ख्यातिनाम संगीत साधक जब इस समारोह में भगवान कृष्ण व राम और नृत्य के देवता भगवान शिव की वंदना राग-रागनियों में सजाकर प्रस्तुत करते हैं, तो साम्प्रदायिक सदभाव की सरिता बह उठती है।
सिंधिया रियासत काल में शुरू हुआ यह गंगा जमुनी संस्कृति वाला आयोजन
रियासतकाल में फरवरी 1924 में ग्वालियर में उर्स तानसेन के रूप में शुरू हुए इस समारोह का आगाज हरिकथा व मौलूद (मीलाद शरीफ) के साथ ही हुआ था। तब ग्वालियर रियासत पर सिंधिया राज परिवार का राज था। उन्होंने इसे सालाना जलसे का रूप दिया। तब से अब तक बिला नागा उसी परंपरा के साथ तानसेन समारोह का आगाज होता आ रहा है। इतनी सुदीर्घ परंपरा के उदाहरण न केवल देश बल्कि शास्त्रीय संगीत की दुनिया में भी बिरले ही होंगे। तानसेन समारोह में नए आयाम तो जुड़े पर पुरानी परंपराएं अक्षुण्ण रही हैं। अब यह समारोह विश्व संगीत समागम का रूप ले चुका है। साथ ही समारोह की पूर्व संध्या पर उपशास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम “गमक” का आयोजन भी होता है। इस साल भी 97 साल से चली आ रही परंपराओं का निर्वहन करते हुए 98वें तानसेन समारोह का आयोजन 19 से 23 दिसंबर तक हो रहा है।
शहनाई, हरिकथा और मीलाद से होती है शुरुआत
तानसेन समारोह की शुरूआत हमेशा से ही शहनाई वादन से होता है। इसके बाद ढोली बुआ महाराज की हरिकथा और फिर मीलाद शरीफ का गायन। सुर सम्राट तानसेन और प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार पर चादर पोशी भी होती है। प्रसिद्ध संत मठ से जुड़े ढोली बुआ महाराज अपनी संगीतमयी हरिकथा के माध्यम से कहते हैं कि धर्म का मार्ग कोई भी हो सभी ईश्वर तक ही पहुंचते हैं। उपनिषद् का भी मंत्र है "एकं सद् विप्र: बहुधा वदन्ति''।
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हर मूर्धन्य कला साधक ने लगाई है तानसेन समारोह में हाजिरी
हर जाति, धर्म व सम्प्रदाय से ताल्लुक रखने वाले श्रेष्ठ व मूर्धन्य संगीत कला साधकों ने कभी न कभी इस आयोजन में अपनी प्रस्तुति दी है। शास्त्रीय गायक असगरी बेगम, पं.भीमसेन जोशी व डागर बंधुओं से लेकर मशहूर शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, सरोद वादक अमजद अली खां, संतूर वादक पं.शिवकुमार शर्मा, मोहनवीणा वादक पं.विश्वमोहन भट्ट जैसे मूर्धन्य संगीत कलाकार इस समारोह में गान महर्षि तानसेन को स्वरांजलि देने आ चुके हैं। 1989 में तानसेन समारोह में शिरकत करने आए भारत रत्न पंडित रविशंकर ने कहा था "यहां एक जादू सा होता है, जिसमें प्रस्तुति देते समय एक सुखद रोमांच की अनुभूति होती है"। एक बार मशहूर पखावज वादक पागलदास भी तानसेन के उर्स के मौके पर श्रद्धांजलि देने आए,लेकिन रेडियो के ग्रेडेड आर्टिस्ट नहीं होने के कारण समारोह में भाग नहीं ले सके। उन्होंने तानसेन की मजार पर ही बैठ कर पखावज का ऐसा अद्भुत वादन किया कि संगीत रसिक मुख्य समारोह से उठकर उनके समक्ष जा कर बैठ गए। राष्ट्रीय तानसेन समारोह की यह भी खूबी रही है कि पहले राज्याश्रय एवं स्वाधीनता के बाद लोकतांत्रिक सरकार के प्रश्रय में आयोजित होने के बावजूद इस समारोह में सियासत के रंग कभी दिखाई नहीं दिए। यह समारोह तो सदैव भारतीय संगीत के विविध रंगों का साक्ष्य बना है। आधुनिक युग में शैक्षिक परिदृश्य से जहां गुरू शिष्य परंपरा लगभग ओझल हो गई है। भारतीय लोकाचार में समाहित इस महान परंपरा को संगीत कला के क्षेत्र में आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तानसेन समारोह में भी भारत की इस विशिष्ट परंपरा के सजीव दर्शन होते हैं।
बेहट गांव में पांच शताब्दी पहले उगा था संगीत का यह सूर्य
संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहां बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते है तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढ़कर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपरि हैं। लगभग 505 साल पहले ग्वालियर जिले के बेहट गांव की माटी में मकरंद पाण्डे के घर जन्मा तन्ना मिसर अपने गुरू स्वामी हरिदास के ममतामयी अनुशासन में एक हीरे सा परिस्कार पाकर धन्य हो गया। तानसेन की आभा से तत्कालीन नरेश व सम्राट भी विस्मित थे और उनसे अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए निवेदन करते थे। तानसेन की प्रतिभा से बादशाह अकबर भी स्तम्भित हुए बिना न रह सके। बादशाह की जिज्ञासा यह भी थी कि यदि तानसेन इतने श्रेष्ठ है तो उनके गुरू स्वामी हरिदास कैसे होंगे। यही जिज्ञासा बादशाह अकबर को वेश बदलकर बृन्दावन की कुंज-गलियों में खींच लाई थी। वैज्ञानिक शोधों में संगीत के प्रभाव से पशु, पक्षी, वनस्पति, फसलों आदि पर भी असर प्रमाणित हुआ है। तानसेन के समकालीन और अकबर के नवरत्नों में से एक अब्दुल रहीम खान खाना द्वारा रचित इस दोहे में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि
"विधिना यह जिय जानि के शेषहि दिए न कान।
धरा मेरू सब डोलि हैं, सुनि तानसेन की तान।
कला रसिक राजा मानसिंह के काल में हुए तानसेन
आरंभ में तानसेन जब संगीत का ककहरा सीख रहे थे तब ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई। स्वयं राजा संगीत मर्मज्ञ थे। उन्होंने ही विश्वप्रसिद्ध राग ध्रुपद की रचना की। राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहां के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी। तब तानसेन भी वृंदावन चले गए और वहां उन्होनें स्वामी हरिदास एवं गोविन्द स्वामी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत वे शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खां के आश्रय में रहे।
रीवा महाराज से मांगकर ले गए अकबर
इसके पश्चात बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र की राजसभा में सम्मानजनक स्थान पर सुशोभित हुए। मुगल सम्राट अकबर ने तानसेन के गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया।
अनेक राग -रागनियों के जन्मदाता है तानसेन
तानसेन प्रथम संगीत मनीषी थे, जिन्होंने राग मल्हार में कोमल गांधार और निषाद के दोनों रूपों का बखूबी प्रयोग किया। तानसेन को मियां की टोड़ी के आविष्कार का भी श्रेय है। कंठ संगीत में तानसेन अद्वितीय थे। अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में तानसेन के बारे में लिखा है कि उनके जैसा गायक हिंदुस्तान में पिछले हजार वर्षों में कोई दूसरा नहीं हुआ है। उन्होंने जहां मियां की टोड़ी जैसे राग का आविष्कार किया। वहीं पुराने रागों में परिवर्तन कर कई नई-नई सुमधुर रागनियों को जन्म दिया। संगीत सार और राग माला नामक संगीत के श्रेष्ठ ग्रंथों की रचना का श्रेय भी तानसेन को है।
तानसेन की मृत्यु को लेकर मतभेद रहे
कुछ विद्वानों के अनुसार अकबर की कश्मीर यात्रा के समय 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लाहौर में इस महान संगीत मनीषी ने अपनी इह लीला समाप्त की। वहीं कुछ विद्वानों का मत है कि उनका देहावसान 16वीं शताब्दी में आगरा में हुआ था। तानसेन की इच्छानुसार उनका शव ग्वालियर लाया गया और यहां प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार के पास ही इस संगीत सम्राट को समाधिस्थ कर दिया गया।
ऐसे शुरू हुआ तानसेन समारोह
इस समारोह की प्रारम्भ ग्वालियर रियासत के तत्कालीन महाराज माधव राव सिंधिया ने फरवरी 1924 में उर्स तानसेन के रूप में की थी। समारोह के प्रारंभिक वर्षों में इसमें मशहूर नृत्यांगनाएं भी भाग लेती थीं और नृत्य तथा गायन का क्रम अलग-अलग छोल दरियों में रात भर चला करता था। संगीत सम्राट तानसेन की याद को ताजा रखने और संगीत विधा की तरक्की और प्रोत्साहन के लिए तत्कालीन महाराज माधवराव सिंधिया की पहल पर पहले उर्स तानसेन 7, 8 और 9 फरवरी 1924 को मनाया गया था। पहले यह समारोह सिर्फ तीन दिनों का होता था। लेकिन अब यह समारोह इसकी लोकप्रियता को देखते हुए पांच दिवसीय हो गया है। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्री ने स्वतंत्रता के पश्चात इसे राष्ट्रीय स्वरूप देना शुरू किया ।
अर्जुन सिंह के कार्यकाल में मिली नई ऊंचाई
इस आयोजन को अस्सी के दशक में बहुत ऊंचाई और भव्यता मिली। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने तानसेन सम्मान को राष्ट्रीय अलंकरण के रूप में बदला और अलंकरण के साथ दी जाने वाली धनराशि पांच हजार की 1885 में उन्होंने ही इसे बढाकर पचास हजार किया। इसके बाद में मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने 1990 में बढाकर एक लाख रुपये किया। अब दो लाख हो गई है। अर्जुन सिंह ,मोतीलाल बोरा , सुंदर लाल पटवा और दिग्विजय सिंह अपवाद को छोड़कर मुख्यमंत्री के रूप में अलंकरण देने स्वयंम पहुंचते थे लेकिन अब यह निरंतरता नहीं रही। हालांकि विगत साल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने खुद ग्वालियर पहुंचकर तानसेन अलंकरण प्रदान किया था।
52 मूर्धन्य संगीत साधकों को मिल चुका है तानसेन अलंकरण
इस बार के तानसेन संगीत समारोह में सुविख्यात बांसुरी वादक पं. नित्यानंद हल्दीकर को साल 2021 के तानसेन अलंकरण से विभूषित किया जायेगा। तानसेन अलंकरण समारोह 19 दिसंबर को सायंकाल 7 बजे सुर सम्राट तानसेन की समाधि परिसर में आयोजित होगा।
इससे पहले इन्हें मिला तानसेन सम्मान
- 1980- पं. कृष्णराव शंकर पड़ित (गायन)