मध्य प्रदेश में कंज्यूमर कोर्ट के आदेश के बावजूद 50% केस में पीड़ित उपभोक्ता आज भी न्याय के इंतज़ार में!

author-image
Ruchi Verma
एडिट
New Update
मध्य प्रदेश में कंज्यूमर कोर्ट के आदेश के बावजूद 50% केस में पीड़ित उपभोक्ता आज भी न्याय के इंतज़ार में!

BHOPAL: हाल ही में विश्व उपभोक्ता दिवस गुजरा। पीड़ित उपभोक्ताओं को इन्साफ दिलाने और दोषियों को सज़ा देने के लिए 1986 में देश में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम विधेयक पारित किया गया था। 1991, 1993 और 2003 में बदलाव के बाद संशोधित उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 लागू हुआ। इस अधिनियम के तहत उपभोक्ताओं को कई अधिकार दिए गए। और उपभोक्ताओं के अधिकारों को संरक्षण और न्याय देने के लिए उपभोक्ता फोरम (अब उपभोक्ता अधिकार संरक्षण आयोग) का गठन भी किया गया। इन उपभोक्ता संरक्षण आयोगों में पीड़ित उपभोक्ताओं के केसेस की सुनवाई होती है। लेकिन चौंकाने वाली बात है कि इन उपभोक्ता संरक्षण आयोगों द्वारा निबटाए गए केसेस में से 50% से भी ज्यादा केसेस में दोषी पार्टी दिए गए आदेशों का पालन ही नहीं करती है। और इस वजह से सालों लम्बी लड़ाइयां लड़ने के बावजूद पीड़ित उपभोगताओं को उनका मुआवजा समय पर नहीं मिल पा रहा है। जानकारी के अनुसार वर्ष 2003 से लेकर वर्ष 2022 तक जिला उपभोक्ता आयोग ने जो फैसले किए हैं, उनमें से 734 मामलों में उपभोक्ताओं को अभी तक न्याय नहीं मिला है। ऐसे मामलों में आदेश का पालन नहीं होने से इससे संबंधित उपभोक्ताओं ने अब आस ही छोड़ दी है।





सीहोर के जीवन पनसोरिया ने लड़ी 7 साल लम्बी लड़ाई, पर आज तक नहीं मिला मुआवजा





सीहोर के जीवन पनसोरिया का ही मामला लें तो उनका केस उपभोक्ता अदालत में साल तक चला। और इसमें अब आदेश होने के बावजूद आज तक उनको मुआवजा नहीं मिला है। दरअसल, सीहोर के बंशकार मोहल्ला गंज निवासी 33 वर्षीय जीवन ने 7 अक्टूबर, 2015 को सीहोर के ही सिटी केयर मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पीटल के संचालक डॉ. हितेश शर्मा पर परिवाद धारा-12 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के प्रावधानों के अंतर्गत मेडिकल नेग्लिजेंस/ सेवा में कमी का मामला दायर किया था। जीवन का आरोप था कि उसने अपना हाथ फैक्चर होने पर 15 मई 2015 को डॉ. हितेश शर्मा को दिखाया था। जिसके बाद डॉक्टर ने उनका ऑपरेशन कर रॉड डाली और प्लास्टर कर दिया। जीवन का आरोप है कि डॉक्टर ने उनके हाथ में प्लेट की जगह तार डालकर ऑपरेशन कर दिया और एक माह के स्थान पर 19 से 20 दिन में प्लास्टर काटा दिया। इसकी वजह से उनक हड्डी जुड़ी ही नहीं, बल्कि उसकी हालत बिलकुल वैसी ही थी जैसी दुर्घटना एवं ऑपरेशन के समय। और तो और इसकी शिकायत जब पीड़ित जीवन पनसेरिया ने डॉक्टर से की तो उन्होंने किस तरह का कोई सही जवाब न देते हुए कहा कि गोली खाने से हड्डी खुद ही जुड़ जायेगी। जबकि भोपाल स्थित एक अन्य डॉक्टर सुनील आसवानी को दिखने पर उन्होंने जीवन को बताया कि पूर्व में जिस डॉक्टर ने ऑपरेशन किया था उसके द्वारा ऑपरेशन में लापरवाही की गई एवं हाथ की हड्डी नही जुडी है। इसके लिए एक बार फिर परेशन कर सर्जरी करना पडेगी, जिसमें फिरसे 25,000 /- रु. का खर्च आयेगा। जबकि पहले ही इस सर्जरी और दवाइयों पर पीड़ित उपभोक्ता जीवन पनसेरिया के कुल  30,000/- रु. खर्च हो चुके थे। जिसके लिए डॉक्टर द्वारा जीवन को सम्पूर्ण राशि की रसीद भी नहीं दी गई।





इस पूरे मामले में पीड़ित उपभोक्ता और डॉक्टर की की बात सुनने के बाद भोपाल जिला उपभोक्ता संरक्षण आयोग ने आदेश दिया कि सिटी केयर मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पीटल के संचालक डॉ. हितेश शर्मा पीड़ित जीवन पनसेरिया के इलाज में लपरवाही के दोषी हैं, जिसकी वजह से पीड़ित उपभोक्ता को भारी आर्थिक व मानसिक परेशानी से गुजरना पड़ा। इसपर भोपाल जिला उपभोक्ता संरक्षण आयोग ने 16 नवंबर 2022 को यानी केस शुरू होने के 8 सालों बाद दोषी डॉक्टर को आदेश दिया कि वो पीड़ित उपभोक्ता को आदेश से दो माह के भीतर क्षतिपूर्ति के रूप में राशि रुपये 50,000 रुपये और केस में खर्चे के रूप में 5,000 रुपये दे। इस पूरे मामले में ये भी आदेश हुआ किअगर दोषी डॉक्टर दो महीनों के अंदर आदेशित राशि पीड़ित को नहीं देता है। तो दोषी को आदेश दिनांक से अदायगी दिनांक तक 9% की दर से ब्याज भी देना पड़ेगा। पर 16 नवंबर 2022 की वो तारीख थी और आज चार महीने बीत चुके हैं, पर आज तक जीवन पनसेरिया को किसी भी तरह का कोई मुवावजा नहीं मिला है। डॉक्टर भी सीहोर स्थित अपना सिटी केयर मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पीटल बंद करके जा चुके हैं और उनका कोई अता-पता ही नहीं।





यानी जीवन ने उपभोक्ता अदालत पर और नियमों पर भरोसा करते हुए अपने हक़ की लड़ाई 8 सालों तक लड़ी।लेकिन इसका उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ। आज जीवन के पार नौकरी है लेकिन जब साल 2015 में जीवन ने ये लड़ाई शुरू की थी, तो उस वक़्त वो एक मजदूर हुआ करते थे जो 8 सदस्यीय परिवार को संभालते थे। गरीबी से जूझते  हुए उन्होंने अपने हक़ की लड़ाई लड़ी। पर हाथ लगी तो सिर्फ निराशा। जब जीवन से बात की गई कि क्या वो आगे भी लड़ाई लड़ेंगे तो उनका कहना है, "मैं पहले ही बहुत पैसा और ताकत खर्च कर चुका हूँ। अब मुझमे और हिम्मत नहीं है।" साफ़ है कि जीवन पनसोरिया जैसे मामलों में पीड़ित उपभोक्ता पहले ही उपभोक्ता संरक्षण आयोग में इन्साफ की आस में सालों घिस चुका होता है। और उसमें इतनी शक्ति नहीं बचती कि वो इसमें अपना और समय, पैसा और एनर्जी दे पाए।





आयोग के अधिकारियों का मत अलग





इस मामले में जब द सूत्र ने भोपाल जिला आयोग की सदस्य प्रतिभा पांडे जी से बात की तो उन्होंने इस डाटा से असहमति जताते हुए कहा कि "कुछ केसेस में आदेशों की एक्सेक्यूशन में पार्टियों की वजह से देरी होती है। कई बार वो वक़्त मांगती हैं । लेकिन फिर भी देर-सबेर 90% केसेस में काम हो जाता है। अगर फिर भी दोषी पार्टी आदेश का पालन नहीं करती है तो उसके खिलाफ वारंट जारी किया जाता है।"







publive-image



मध्य प्रदेश राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग







248 मामलों में वारंट जारी





17 जनवरी 2023 तक तक के आंकड़े देखें तो उपभोक्ता आयोग में 2003 से लेकर 2022 के ऐसे कुल 734 मामले हैं जिनमें जनवरी 2023 तक आदेश की पालना नहीं हुई थी। इनमें से 248 मामलों में वारंट जारी है वहीं 486 मामले राज्य आयोग या राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग में चल रहे हैं। लेकिन इनमें अब उपभोक्ता भी मौजूद नहीं रहते हैं। 248 जारी वारंट में से 180 मामलों में जमानती वारंट हैं वहीं 68 मामलों में गिरफ्तारी वारंट जारी किए गए हैं। लेकिन ये तामील नहीं हो पा से रहे हैं। इनमें से ज्यादातर मामले निजी सहकारी समितियां और बिल्डर के खिलाफ हैं। एक्सपर्ट्स का कहना है कि तामील नहीं होने के पीछे कई कारण हैं। कई बार अनावेदक/कंपनी अपना एड्रेस बदल देती हैं तो कई बार दूसरे शहर में शिफ्ट हो जाते हैं। कई मामलों में आरोपियों को कोर्ट से जेल की सजा हो चुकी है। ये लोग पैसे, प्रॉपर्टी अपने पत्नी और बच्चों के नाम कर देते हैं।





आगे बढ़ने से पहले जानिये क्या है उपभोक्ता संरक्षण आयोग





दरअसल, सरकार ने उपभोक्ताओं के अधिकारों की रक्षा के लिए उपभोक्ता आयोग (पूर्व में उपभोग्ता फोरम) स्थापित किए हैं। यही उपभोक्ता न्यायालय के रूप में काम करते हैं। उपभोक्ता संबंधी तमाम विवादों, ग्राहकों की तमाम शिकायतों एवं अन्य मामलों में यही आयोग फैसला करता है और पीड़ित उपभोग्ता को न्याय दिलाता है। यह आयोग उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय यानी मिनिस्ट्री ऑफ़ कंस्यूमर अफेयर्स  के अधीन कार्य करता है। बता दें की उपभोक्ता संरक्षण अधिनियिम 1986 में अस्तित्व में आया और इसके बाद  संशोधित उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 लागू हुआ।





अगर संतुष्ट न हो जिला उपभोक्ता संरक्षण आयोग के आदेश से तो क्या है आगे का रास्ता





पीड़ित उपभोग्ता अपने केस को लेकर जिला उपभोग्ता संरक्षण आयोग जा सकता है, जहाँ नियमानुसार उसके मामले का निबटारा 90 दिनों में होना चाहिए। हालाँकि जिला उपभोग्ता संरक्षण आयोग के फैसले पर पीड़ित आवेदक या अनावेदक को कोई आपत्ति है, तो इसके आगे की सुनवाई के लिए राज्य उपभोग्ता संरक्षण आयोग में अपील की जा सकती है। और अगर यहाँ भी हुई सुनवाई से कोई भी एक पक्ष संतुष्ट न हो तो राष्ट्रीय उपभोग्ता संरक्षण आयोग जाय जा सकता है। उपभोग्ता अधिकारों को लेकर इसके आगे की लड़ाई कोर्ट में लड़ी जाती है। ज्ञात हो कि जिला आयोगों में एक करोड़ और राज्य उपभोक्ता आयोग में 10 करोड़ रुपए तक के मामलों की सुनवाई की जाती है।





आयोगों के आदेशों पर अमल न होने पर क्या कहता है उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019





वैसे तो ज्यादातर केसेस में आयोग दोषी पार्टी को आदेश का निर्वहन करने के लिए दो माह का समय दिया जाता है। लेकिन अगर कंज्यूमर के हक में आए फैसले पर अगर प्रतिवादी अमल नहीं करता है, तो उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 के अंतर्गत उसे 25 हज़ार रुपये से 1 लाख रुपए तक की पेनल्टी और 3 साल तक की सज़ा या दोनों दी जा सकती है। सज़ा भुगतने के बाद भी आदेश का पालन करना बाकी रहता है तो जरूरत के मुताबिक आदेश का पालन करवाने के लिए प्रॉपर्टी भी जब्त की जा सकती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के तहत जिला आयोग, राज्य आयोग या राष्ट्रीय आयोग को इस तरह के मामलों पर निर्णय के लिए  प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्ति प्राप्त है। लेकिन ऐसे केसेस का प्रतिशत बेहद कम है जहाँ दोषी पार्टी को जेल भेजा गया हो या उनकी प्रॉपर्टी भी जब्त हुई हो।





उपभोक्ता अधिकार के मामले में सिर्फ आदेशों की अवमानना ही एक परेशानी नहीं है। बल्कि, ज्यादातर जिला/ राज्य उपभोग्ता संरक्षण आयोगों में स्टाफ का भी टोटा है। साथ ही दाखिल केसेस के मुकाबले आयोगों की संख्या में भी भारी कमी है। इसकी वजह से  पेंडिंग केसेस के संख्या तो लगातार बढ़ती ही जा रही है, साथ ही स्टाफ की कमी के चलते केस भी सालों लंबे खिंच रहे हैं। सैकड़ों की संख्या में स्थानीय उपभोक्ता वर्षों से अपने फैसले का इंतजार कर रहे हैं।





आयोगों की कमी उपभोक्ता हितों के मामले सालों तक लटके





उपभोक्ता फोरम में आवेदकों/पीड़ितों को न्याय के लिए ज्यादा लंबे समय तक इंतजार नहीं करना पड़े, इसके लिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 के तहत दायर प्रत्येक मुकदमे का निस्तारण 90 दिन में अनिवार्य रूप से हो जाना चाहिए। पर ऐसा बहुत कम ही देखा गया है, जब किसी का निपटारा 90 दिन में किया गया हो। फोरम की कम संख्या, उपभोक्ता आयोगों में अध्यक्ष और सदस्यों की कमी और इस कारण बढ़ती पेंडेंसी के कारण 90 दिनों में उपभोक्ता को न्याय मिलना संभव नहीं हो पा रहा है। केस सॉल्व होने में उपभोक्ताओं को औसतन 3 साल से अधिक का समय लग रहा है।





उपभोक्ता आयोगों में अध्यक्ष और सदस्यों की कमी





प्रदेश के ज्यादातर उपभोक्ता आयोगों में अध्यक्ष व सदस्यों की कमी से समय पर नहीं हो रही सुनवाई नहीं हो पा रही है। जानकारी के अनुसार प्रदेश में एक दर्जन से भी अधिक फोरम में दो माह पहले ही सदस्यों और अध्यक्षों का कार्यकाल पूरा हो चुका है। हालांकि नए सदस्य व अध्यक्षों की नियुक्ति को लेकर चल रही प्रक्रिया तो पूरी हो गई है, लेकिन कई फोरम में अभी उन्होंने ज्वाइन नहीं किया है। इसके चलते मौजूदा आयोगों में मौजूद उपभोक्ता अदालत सिविल कोर्ट का रूप धारण करने लगी है, जैसे सिविल कोर्ट में वर्षों मुकदमे चलते हैं। ऐसे में रोजाना दर्ज होने वाले केसों से पेंडेंसी का आंकड़ा भी बढ़ता जा रहा है। और जबलपुर का ही मामला लें तो जबलपुर जिला उपभोक्ता की दोनों बेंच के अध्यक्ष रिटायर होने के बाद पेमेंट की संख्या 5 हजार से अधिक हो गई है।





इस बारे में द सूत्र ने बात की जबलपुर उपभोक्ता संरक्षण आयोग क्रमांक 1 में पदस्थ सुषमा पांडे से तो जानिए उन्होंने बताया, "जबलपुर उपभोक्ता संरक्षण आयोग क्रमांक 1 में मेरे अलावा 1 सदस्य अमित सिंह तिवारी और हैं। अध्यक्ष अभी तक नहीं थे। लेकिन वो भी जल्द ही पदभार ग्रहण करेंगे। जैसे ही वो ज्वाइन करेंगे तो पेंडिंग केसेस को भी निबटा लिया जाएगा। हालांकि, ये सही है कि पेंडिंग केसेस की संख्या बढ़ती जा रही है। लेकिन  क्रमांक 1 और क्रमांक 2 - दोनों फोरम मिलकर कोशिश कर रहें हैं कि इन्हे निबटा दिया जाए।"





प्रदेशभर में 1.5 लाख से अधिक केस पेंडिंग





राज्य के उपभोक्ता फोरमों में दर्ज़ शिकायतों की जल्द सुनवाई नहीं होने से पेंडिंग मामले बढ़ते जा रहे हैं। ज्यादातर जिलों में पेंडेंसी मामलों की संख्या 3 हजार से अधिक हैं, यानी प्रदेशभर में पेंडिंग केसों की संख्या डेढ़ लाख से अधिक है। 28 फरवरी, 2023 तक पेंडिंग मामले...







  • जबलपुर: 5000 केस पेंडिंग



  • भोपाल 1: 977 केस पेंडिंग


  • भोपाल 2: 2112 केस पेंडिंग


  • सीहोर: 1200-1300 केस पेंडिंग


  • विदिशा: 700 केस पेंडिंग


  • रायसेन: 125 केस पेंडिंग






  • 300 केस में होना चाहिए एक आयोग





    देश के सभी आयोगों में पेंडेंसी के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। इसका एक कारण लोगों में बढ़ती अवेयनेस भी है। पिछले दस वर्षों में अपने उपभोक्ता अधिकारों को लेकर जिले के वाशिंदों में जागरूकता बढ़ी है। उपभोक्ता अब छोटी-छोटी राशि को लेकर भी शिकायत दर्ज करा रहे हैं। यहाँ पर फोरमों की कम संख्या से मामलों का निपटारा करने में परेशानी आती है। वैसे तो नियमों के अनुसार 300 केस में एक बेंच का नियम है। पर भोपाल, इंदौर और जबलपुर को छोड़कर ज्यादातर जिलों में मामलों में सुनवाई के लिए 1 बेंच ही है।





    कहाँ-कितने बेंच







    • भोपाल         2-3



  • इन्दौर           2


  • जबलपुर       2


  • अन्य जिलों में 1






  • हालाँकि, इन मुश्किलों को देखते हुए तीसरे फोरम की बेंच का प्रस्ताव तैयार करके शासन को भेजा जा चुका है..जिस पर अभी भी कार्यवाही बाकी है।





    (जबलपुर इनपुट्स: ओ पी नेमा)



    Madhya Pradesh NCDRC CONSUMER PROTECTION ACT 2019 WORLD CONSUMER RIGHTS DAY MP State Consumer Disputes Redressal Commission Consumer Commissions District Consumer Disputes Commissions CONSUMER RIGHTS