शोध पीठ बनी सफेद हाथीः हर साल लाखों खर्च लेकिन न कोई रिसर्च और न पब्लिकेशन

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शोध पीठ बनी सफेद हाथीः हर साल लाखों खर्च लेकिन न कोई रिसर्च और न पब्लिकेशन

राहुल शर्मा । भोपाल. प्रदेश की यूनिवर्सिटी में स्थापित विभिन्न विशेष शोध पीठ (चेयर) सफेद हाथी साबित हो रही हैं। हर साल आम टैक्स पेयर की गाढ़ी कमाई के खर्च से विशेष रिसर्च के नाम पर शुरू की गई इन शोध पीठ (Research Bench) से आम जनता तो दूर इनमें रिसर्च करने वालों का भी कोई भला नहीं हो रहा है। देश की बड़ी शख्सियतों के व्यक्तित्व और कृतित्व या किसी खास विचारधारा से संबंधित शोध और प्रचार के लिए खोली गईं इन पीठों के हाल का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि इनकी यूनिवर्सिटी के मुखिया यानि वाइस चांसलर को ही नहीं पता कि इनमें क्या और किस तरह की रिसर्च चल रही है। द सूत्र ने प्रदेश की दो बड़ी यूनिवर्सिटी में चल रहीं शोध पीठों (University Research Reality check) के बारे में पड़ताल की तो जो हकीकत सामने आई उसे जानकार आप भी चौंक जाएंगे।

प्रभारी को ही नहीं पता पीठ में हुए रिसर्च और पब्लिकेशन की जानकारी

द सूत्र की टीम ने सबसे पहले राजधानी भोपाल की बरकतउल्ला यूनिवर्सिटी (Barkatullah Univerasity Bhopal) में संचालित राजीव गांधी शोध पीठ (Rajiv Gandhi Research Chair) का जायजा लिया। यह पीठ 16 साल पहले 2005 में पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व से संबंधित रिसर्च वर्क के लिए स्थापित की गई थी। पर दो सालों से यहां ताला ही डला हुआ है। इसके वर्तमान प्रभारी कुमरेश कश्यप हैं, जो समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर हैं। उनसे पीठ में अब तक किए गए रिसर्च वर्क, पब्लिकेशन (Research Work and publication) और खास उपलब्धियों के बारे में सवाल करने पर जो जवाब मिला उसे सुनकर आप भी हैरान हो जाएंगे। लाचारी जताते हुए उन्होंने बताया, दरअसल मुझे दो-तीन महीने पहले ही पीठ का प्रभार मिला है। इसलिए वे अभी इसके कामकाज के बारे में कुछ नहीं बता पाएंगे। द सूत्र संवाददाता ने उनसे पीठ में अभी चल रही गतिविधियों, रिसर्च और इससे जुड़े लोगों के बारे में जानकारी लेनी चाही तो उन्होंने पूर्व प्रभारी डॉ.एसएन चौधरी से संपर्क करने की सलाह दी, जो नवंबर 2019 में यूनिवर्सिटी से रिटायर हो चुके हैं। उनके बारे में जानकारी लेने पर पता चला कि वे दो साल पहले भोपाल से शिफ्ट हो चुके हैं। उनका जो कॉन्टैक्ट नंबर मिला उस पर कॉल करने पर वो नॉट रीचेबल मिला। 

UGC ने पीठ का फंड रोका लेकिन कार्यकाल मार्च 2022 तक बढ़ाया

भोपाल में बरकतउल्ला यूनिवर्सिटी कैंपस (Barkatullah University Campus) में पिछले 16 साल से चल रही राजीव गांधी पीठ के बारे में इसके प्रभारी से लेकर अन्य अधिकारी तक से पूछताछ करने पर कोई भी इससे ज्यादा जानकारी नहीं दे पाया। इसके बाद द सूत्र की टीम ने यूनिवर्सिटी के मुखिया यानि वाइस चांसलर प्रो. आरजे राव से जानकारी हासिल करने के लिए संपर्क किया। उन्होंने बताया कि राजीव गांधी पीठ में जो कुछ भी हुआ है एसएन चौधरी कार्यकाल में ही हुआ है। इसे यूजीसी के प्रोग्राम के तहत फंडिग (UGC Programme Funding) की जा रही थी, जो अभी बंद है। लेकिन फंडिंग बंद होने से पीठ का कामकाज बंद नहीं हुआ है। यूजीसी ने पीठ का कार्यकाल मार्च 2022 तक बढ़ाया है। जैसे ही इसकी फंडिंग दोबारा शुरू होगी उसी हिसाब से इसकी गतिविधियां शुरू की जाएंगी। 

RDVV में आधा दर्जन पीठ, दो साल में एक भी शोध नहीं

भोपाल की बरकतउल्ला यूनिवर्सिटी के बाद द सूत्र की टीम ने जबलपुर की रानी दुर्गावती यूनिवर्सिटी (Rani Durgavati University) यानि RDVV में शोध पाठ्यक्रमों (research courses) के नाम पर बनाई गई करीब आधा दर्जन पीठों के कामकाज का जायजा लिया, यहां भी चौंकाने वाली हकीकत सामने आई। इस यूनिवर्सिटी में 2004 में डॉ. भीमराव अम्बेडकर शोध पीठ (Bhimrao Ambedkar Research Chair), 2017 में रानी दुर्गावती शोध पीठ, 2018 में भारतीय ज्ञान शोध पीठ और 2021 में आदिवासी शोध पीठ, श्री गुरूनानक शोध पीठ की शुरुआत बड़े जोर शोर से हुई। इन पीठ की स्थापना के समय यह तय किया गया था कि यहां छात्र-छात्राएं कम से कम खर्च पर ज्यादा से ज्यादा नए नए रिसर्च करेगें, वहीं इन रिसर्च का फायदा संबंधित स्टूडेंट्स के साथ साथ देश और प्रदेश को भी मिलेगा। लेकिन हकीकत यह है कि बीते दो सालों में इन सभी शोध पीठों के जरिए रिसर्च के नाम पर पैसे तो खूब फूंके गए, लेकिन शोध एक भी नहीं हुआ। 

हर रिसर्च पर 50 हजार से लेकर 1 लाख तक खर्च

शोध पीठों में रिसर्च संबंधी कामकाज ठप होने के पीछे रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय प्रशासन की अपनी अलग ही दलील है। वाइस चांसलर कपिलदेव मिश्र ने कहा कि यूनिवर्सिटी शोध पीठों के जरिए हर अनुसंधान पर 50 हजार से लेकर एक लाख रुपए तक खर्च करती है। लेकिन कोरोना (Corona) महामारी की वजह से शोध कार्य पिछले 2 सालों से पूरी तरह बंद हैं। लेकिन यूनिवर्सिटी प्रशासन जल्द ही गुरूनानक शोध पीठ (Guru Nanak Research Chair) के तहत दो नए पाठ्यक्रम शुरू करने जा रहा है। इसमें पंजाबी भाषा के लिए पंजाबी साहित्य अकादमी (Punjabi Sahitya Academy) के सहयोग से विशेष पाठ्यक्रम तैयार किए जाएंगे। 

शोध पीठ के नाम पर टैक्सपेयर्स के पैसे की बर्बादी

बड़ा सवाल यह है कि यूनिवर्सिटी में स्थापित शोध पीठ को ग्रांट भले यूजीसी से मिल रही हो या यूनिवर्सिटी प्रशासन सेल्फ फाइनेंस के जरिए इसका संचालन कर रहा हो लेकिन आखिरकार यह पैसा टैक्सपेयर्स की जेब से ही आता है। यदि जन या समाजहित में उसका उपयोग न हो तो वो जनता के पैसे की बर्बादी ही माना जाना चाहिए। आमतौर पर यूनिवर्सिटी या उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों में देश की बड़ी शख्सियतों के व्यक्तित्व और कृतित्व या किसी खास विचारधारा (ideology) से संबंधित शोध और प्रचार के लिए इन पीठ या चेयर की स्थापना की जाती है लेकिन एक समय बाद ये ठप पड़ जाती है। यही वजह है कि ज्यादातर शोध पीठ अपनी स्थापना का उद्देश्य पूरा नहीं कर पातीं। प्रदेश में प्राइवेट यूनिवर्सिटी को छोड़ दें तो पारंपरिक यूनिवर्सिटी 8, विशेष अधिनियम से स्थापित यूनिवर्सिटी 9 और विभागों द्वारा स्थापित 8 यूनिवर्सिटी हैं। इस तरह से प्रदेश में 25 यूनिवर्सिटी हैं। इनमें अलग-अलग विषयों पर शोध को बढ़ावा देने चेयर या शोध पीठ की स्थापना की गई है। 

अच्छा हुआ बापू...आपके नाम से नहीं बन पाई चेयर

जनवरी 2020 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार के उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी (Jeetu Patwari) ने प्रदेश की सभी यूनिवर्सिटी में गांधी शोध पीठ की स्थापना की घोषणा की थी। प्रदेश की यूनिवर्सिटी में महात्मा गांधी के नाम पर एक और शोध पीठ वजूद में आती उससे पहले ही प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हो गया। इस वजह से बरकतउल्ला यूनिवर्सिटी समेत अन्य यूनिवर्सिटी में महात्मा गांधी चेयर (Mahatma Gandhi Chair) स्थापित नहीं हो सकी। जानकार बताते हैं कि आनन-फानन में यदि बापू के नाम से चेयर की स्थापना हो भी जाती तो उसका वही हश्र होता जो यूनिवर्सिटी में स्थापित की गई अन्य चेयर या शोध पीठ का हुआ या हो रहा है। 

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हिंदी यूनिवर्सिटी में भाषा के लिए 35 लाख की लेबोरेटरी ?   

ऐसा नहीं है कि विशेष शोध के नाम पर टैक्सपेयर का पैसा सिर्फ यूनिवर्सिटी की चेयर और पीठ की स्थापना में ही फूंका जा रहा है। उच्च शिक्षा संस्थानों में मनमानी और फिजूलखर्ची का आपको एक और नायाब उदाहरण बताते हैं। राजधानी की अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी यूनिवर्सिटी  (atal bihari vajpayee university) प्रशासन ने नवाचार के नाम पर हाल ही में 35 लाख रुपये के खर्च से हिंदी भाषा की प्रयोगशाला यानी लेबोरेटरी बनाने का फैसला किया है। जी हां, आपने एकदम सही समझा, हिंदी भाषा की लेबोरेटरी। यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर खेमसिंह डेहरिया ने बताया कि इसके लिए कार्यपरिषद से भी मंजूरी मिल गई है। जल्द ही लेबोरेटरी की स्थापना के लिए टेंडर जारी होने वाले हैं। लेकिन आपको यह जानकार हैरानी होगी कि हिंदी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्थापित हुई इस यूनिवर्सिटी के एमए हिंदी पाठ्यक्रम में कुलजमा सिर्फ छात्र हैं। इसके बाद भी यूनिवर्सिटी प्रशासन हिंदी भाषा की प्रयोगशाला के नाम पर 35 लाख रूपये ठिकाने लगाने का प्रयोग करने जा रही है। शायद यूनिवर्सिटी के मुखिया यानि वीसी को नहीं मालूम कि उन्हें यूनिवर्सिटी चलाने के लिए सरकार से जो फंड मिलता है वो अलग-अलग टैक्स के रूप में जनता की जेब से ही आता है। वैसे तो इस यूनिवर्सिटी के किसी भी कोर्स में एडमिशन की संख्या बहुत अच्छी नहीं फिर भी हिंदी के मुकाबले पत्रकारिता जैसे अन्य कोर्स में एडमिशन फिर भी ज्यादा है। 

जानिए आखिर क्या होगा हिंदी की लैब में

यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार यशवंत पटेल का कहना है कि हिंदी भाषा प्रयोगशाला में हिंदी माध्यम से जर्मन , फ्रेंच, स्पेनिश, अंग्रेजी भाषा (German, frence, english language In hindi medium) सिखाई जाएगी। इस बारे में और सवाल करने पर वे स्पष्ट करते हैं कि कोई भी भाषा सिखाने का मतलब सूक्ष्म से लेकर दीर्घ तक यानि इसमें भाषा से जुड़ा हर तत्व समाहित होता है। इसमें छात्रों को भाषा सही बोलने से लेकर लिखना तक सिखाया जाएगा। प्रयोगशाला की जरूरत के सवाल पर यशवंत पटेल कहते हैं कि ये जरूरी है। यह सिर्फ हिंदी के छात्रों के लिए ही नहीं बल्कि यूनिवर्सिटी में संचालित पत्रकारिता और अन्य कोर्स के छात्रों के लिए भी उपयोगी साबित होगी।  

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