सांची में कल से 2 दिन का बौद्ध महोत्सव, जहां बुद्ध के शिष्यों की अस्थियां रखीं, वो तहखाना एक ही बार खुलता है, जानें सब

author-image
Atul Tiwari
एडिट
New Update
सांची में कल से 2 दिन का बौद्ध महोत्सव, जहां बुद्ध के शिष्यों की अस्थियां रखीं, वो तहखाना एक ही बार खुलता है, जानें सब

अंबुज माहेश्वरी, RAISEN. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 45 किमी दूर है सांची। यहां दुनिया का सबसे बड़ा स्तूप है। 26 और 27 नवंबर को यहां हर साल बौद्ध महोत्सव का आयोजन होता है। इसमें दुनियाभर से पर्यटक और बौद्ध भिक्षु जुटते हैं। नवंबर के आखिरी में ही क्यों बौद्ध महोत्सव होता है, सांची स्तूप क्यों खास है, आइए आपको बताते हैं...



अशोक ने स्तूप बनवाया, पुष्यमित्र ने खंडित किया, बेटे अग्निमित्र ने फिर बनवाया



बेतवा नदी किनारे बने सांची स्तूप रायसेन जिले में हैं। यह विदिशा से 10 किमी दूर है। तीसरी शताब्दी ईसा में मौर्य सम्राट अशोक ने सांची का मुख्य स्तूप बनवाया था। आज यहां छोटे-बड़े कई स्तूप हैं, जिनमें से स्तूप नंबर-2 सबसे बड़ा है। यह चारों ओर से कई तोरण द्वारों से घिरा है। स्तूप नंबर-1 के पास छोटे-छोटे अन्य कई स्तूप हैं। कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। स्तूप का निर्माण अशोक ने पत्नी महादेवी को सौंपा था। महादेवी विदिशा के एक व्यापारी की बेटी थीं। सम्राट अशोक और महादेवी की शादी भी सांची में हुई थी। स्तूप का निर्माण ईंटों से हुआ था। 



publive-image



ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में शुंग वंश के सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने स्तूप का विध्वंस किया था। इसके बाद पुष्यमित्र के बेटे अग्निमित्र ने पत्थरों से स्तूप को बनवाया। शुंग काल के आखिर तक स्तूप के मूल रूप का करीब दोगुना विस्तार हो चुका था। इस दौरान स्तूप के गुंबद को चपटा करके एक हिस्से के ऊपर छतरियां बनवा दी गईं। कहा जाता है कि द्वार पर बनाई गई कलाकृतियां और द्वारों के आकार को सातवाहन राजा शातकर्णी ने निर्धारित किया था। बुद्ध के अवशेषों पर ही स्तूप बनवाए गए, लेकिन सांची में बुद्ध के दो शिष्यों सारिपुत्र और महामौदगल्यायन के अवशेष रखे हैं।



14वीं सदी में स्तूप की स्थिति बिगड़ी, ब्रिटिश अफसर ने 19वीं सदी में खोजा



14वीं शताब्दी तक स्तूप दयनीय स्थिति में पहुंच गया था। उस दौर के किसी भी शासक ने स्तूप के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया। 1615 तक भारत की भूमि पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने पैर पसारने शुरू कर दिए थे। समय के साथ सांची स्तूप की स्थिति भी दयनीय होती गई। खजाने के लालच में लोगों ने स्तूप के पास खूब खुदाई की। 1818 में एक ब्रिटिश अधिकारी जनरल टेलर ने सांची के स्तूप की खोज की। इन्होंने स्तूप के बारे में जानकारी जुटाई। स्तूप की निर्जन हो चुकी अवस्था को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन मार्शल को इसके पुनर्निर्माण का काम सौंपा। सर मार्शल ने 1912 में दोबारा स्तूप का पुनर्निर्माण शुरू कराया। 1919 तक स्तूप को दोबारा खड़ा कर लिया गया। ये वही निर्माण है, जो आज हमें सांची में दिखता है। 1919 में सर मार्शल ने स्तूप के संरक्षण के लिए एक पुरातात्विक संग्रहालय की स्थापना की, जिसे बाद में सांची पुरातत्व संग्रहालय में बदल दिया गया।



जब इंग्लैंड से अस्थियां सांची लाए, तब से मनाते हैं महोत्सव



महाबोधि सोसाइटी के तपस्वी के मुताबिक, 1851 में जनरल कनिंघम और कैप्टन मेसी सांची और सतधारा स्तूपों से सारिपुत्र और महामौदगल्यायन की अस्थियों को  ब्रिटेन ले गए। अस्थि कलश को इंग्लैंड के विक्टोरिया अल्बर्ट म्यूजियम में रख दिया था। 1936 में श्रीलंका की महाबोधि सोसाइटी ने इन अस्थियों को भारत लाने का प्रयास किया। भोपाल के तत्कालीन नवाब और महाबोधि के प्रयासों से अस्थियों को सांची लाया गया। चेतियागिरी विहार का निर्माण कराया। 30 नवंबर 1952 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने दोनों शिष्यों की पवित्र अस्थियों को सांची में स्थापित करवाया। तब से ही हर साल नवंबर में बौद्ध सांची महोत्सव मनाया जा रहा है। हर साल नवंबर के आखिरी शनिवार और रविवार को बौद्ध महोत्सव मनाया जाता है। महोत्सव के अस्थि कलशों को चेतियागिरी विहार के तलघर से निकालकर श्रद्धालुओं के लिए रखा जाता है। इन दो दिनों में भारत समेत श्रीलंका, जापान, वियतनाम, सिंगापुर और थाइलैंड सहित अन्य देशों से श्रद्धालु आएंगे।



भिक्षु ये भी बताते हैं कि सालभर अस्थि कलश बोधि विहार के एक सुरक्षित कमरे में रहते हैं। इसकी एक चाबी कलेक्टर के पास होती है, तो दूसरी चाबी हमारे पास होती है। दोनों चाबियां जब एक साथ लगाई जाती हैं, तभी ताला खुलता है। अस्थि कलश के दर्शन से शांति मिलती है।


MP News एमपी न्यूज Sanchi buddhist festival Sanchi Stupa sanchi stupa history सांची बौद्ध महोत्सव सांची स्तूप सांची स्तूप इतिहास