डाकुओं के लिए कुख्यात मुरैना विधानसभा सीट का सियासी गणित एकदम अलग, कोई विधायक लगातार दो बार चुनाव नहीं जीतता

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Vivek Sharma
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डाकुओं के लिए कुख्यात मुरैना विधानसभा सीट का सियासी गणित एकदम अलग, कोई विधायक लगातार दो बार चुनाव नहीं जीतता

MORENA. मुरैना का नाम  सामने आते ही लोगों के जेहन में डाकू, बागी, दस्यु जैसे शब्द आते हैं और आएंगे क्यों नहीं क्योंकि कई दशकों तक यहां नामी डकैत और दस्यु सम्राट हुए जिनकी पुलिस से अदावत जगजाहिर हैं। यहां के जंगल हमेशा किसी न किसी गैंग से आबाद रहे जहां हमेशा गोली और बम के धमाके गूंजते रहे लेकिन इन सब के अलावा भी मुरैना की अपनी खास पहचान भी है। साथ ही यहां का सियाजी मिजाजी काफी अलग है। यहां के शनि मंदिर में आने वाले लोगों  में आम के साथ-साथ खास भी है क्योंकि मान्यता है कि जिन पर शनि का प्रभाव होता है वो यहां आकर खत्म होता है। बहरहाल मुरैना की गजक तो हर किसी को लुभाती है। यहां की गजक का स्वाद ऐसा है कि हर कोई इसका मुरीद है। मप्र में जब विधानसभा चुनाव होते हैं तो गजक की डिमांड बढ़ जाती है दरअसल जिस मौसम में मप्र में चुनाव होते हैं वो ठंड का मौसम होता है और जो चुनाव जीतता है खासतौर पर ग्वालियर चंबल अंचल में वो गजक से ही मुंह मीठा करवाता है। मुरैना की गजक की मिठास की तरह यहां का सियासी मिजाज नहीं है। आगरा-मुंबई हाईवे पर बसा मुरैना का नाम मोरों की वजह से पड़ा। 





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सियासी मिजाज





मुरैना में पहला चुनाव 1957 में हुआ था और तब ये सीट अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित थी। इसलिए यहां दो विधायक चुने गए थे। 1962 से लेकर 1980 तक ये सीट केवल दो विधायकों के बीच रही जबर सिंह और महाराज सिंह। जबर सिंह जनता पार्टी, जनसंघ और कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े और महाराज सिंह भी जनसंघ और कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े। 1985 के बाद इस सीट पर बदलाव हुआ। 1990 में बीजेपी के सेवाराम ने पहली बार यहां से बीजेपी के लिए खाता खोला। सेवाराम दो बार यहां विधायक रहे लेकिन 1990 के बाद से मुरैना की जनता ने कभी भी उसी उम्मीदवार को दूसरी बार मौका नहीं दिया। ये ट्रैंड 2018 के चुनाव के साथ साथ 2020 के उपचुनाव में भी देखने को मिला।





जातिगत समीकरण





मुरैना गुर्जर बाहुल्य क्षेत्र है और यहां गुर्जर वोटो की संख्या करीब 60 हजार है। ऐसे में इस समुदाय का यहां अच्छा खासा असर है। जातिगत आधार पर देखे तो गुर्जर के बाद एससी वर्ग है जो सियासी समीकरण बदलने का माद्दा रखता है। फिलहाल गुर्जर समुदाय के राकेश मावई इस सीट से विधायक हैं। 





सियासी समीकरण  





मुरैना भी दलबदल वाली सीट है। 2018 में यहां से कांग्रेस के टिकट पर रघुराज सिंह कंसाना ने चुनाव जीता था लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कंसाना भी बीजेपी में शामिल हो गए लेकिन उपचुनाव में कंसाना को हार मिली और ये सीट कांग्रेस के राकेश मावई ने जीत ली। कंसाना ने उस समय हार के पीछे भितरघात को कारण बताया था। अब मुरैना सीट पर रूस्तम सिंह, रघुराज कंसाना समेत कई सारे दावेदार बीजेपी में हो गए है। ऐसे में यहां टिकट के लिए मारामारी नजर आ सकती है तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने इस सीट को जीतकर यहां अपनी अच्छी पकड़ बना ली है। वहीं मुरैना नगर निगम चुनाव में मेयर की कुर्सी भी कांग्रेस के ही खाते में गई है। इसी से मुरैना में बीजेपी की सिर फुटव्वल का अंदाजा लगाया जा सकता है।





मुद्दे





मुरैना में मूलभूत समस्या अभी भी जस की तस है। सीवर लाइन प्रोजेक्ट का काम चल रहा था उसकी वजह से पूरा शहर खुदा पड़ा है। ग्रामीण इलाकों की बात करें तो शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं बड़े मुद्दे है। मुरैना से हर सरकार में कोई न कोई मंत्री जरूर रहा है लेकिन मुरैना का वैसा विकास नहीं हुआ जैसा की उम्मीद की जाती रही है। हाईवे पर बसे मुरैना के पास ही चंबल नदी है और रेत का अवैध खनन भी यहां धड़ल्ले से होता है। कानून व्यवस्था तो हमेशा से ही मुद्दा बनता आया है।



हालांकि मुरैना में कभी भी मुद्दों पर चुनाव नहीं लड़ा जाता है। इसलिए जब बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं से बाचतीत की जाती है तो सारी बातचीत जातिगत मुद्दों पर ही आकर टिक जाती है और अब तो दलबदल ही यहां सबसे बड़ा सियासी मुद्दा है।





बहरहाल इन मुद्दों के अलावा द सूत्र ने यहां के लोगों, स्थानीय पत्रकारों से बातचीत की तो कई सवाल निकल कर सामने आए







  • पूरी विधानसभा में सड़कों की हालत खराब है



  • इंडस्ट्रियल एरिया बमोर की फैक्ट्रियों के प्रदूषण को रोकने के लिए क्या किया


  • अपराध रोकने के लिए क्या किया


  • सीवरेज का घटिया काम हुआ, कौन जिम्मेदार


  • इन सवालों को लेकर जब द सूत्र ने राकेश मावई से संपर्क करने की कोशिश की तो वो सवालों से बचते नजर आए यानी मावई के पास सवालों का जवाब नहीं था।






  • मुरैना सीट से जुड़े रोचक मिथक





    मुरैना विधानसभा सीट से जुड़े कई रोचक तथ्य भी हैं जिन्हे जानना आवश्यक हो जाता है। मुरैना सीट से कोई भी विधायक लगातार दूसरी बार विधायक नहीं बना है। 2018 में रघुराज कंषाना बने तो वे उपचुनाव में हारे और कांग्रेस के राकेश मावई चुनाव जीते। हालांकि एक ही पार्टी के चुनाव चिह्न वाले को 2018 के मुख्य चुनाव और 2020 के उपचुनाव में जीत मिली है. क्योंकि 2018 में कषाना कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे। 



    मुरैना में दूसरा बड़ा मिथक यह है कि मुरैना जिले में अगर कोई मंत्री बनने के बाद चुनाव लड़ा है तो वह हारा ही है। इस बार भी सुमावली से पीएचई मंत्री एदल सिंह कंषाना 11 हजार मतों से हारे। यहां कांग्रेस के अजब सिंह कुशवाहा जीते। वहीं दिमनी से राज्यमंत्री रहे गिर्राज दंडोतिया 27 हजार के लगभग चुनाव हारे,  जिन्हें कांग्रेस के रविन्द्र सिंह तोमर ने हराया। यहां सबसे पहले पीडब्ल्यूडी मंत्री जबर सिंह तोमर रहे जनता दल के समय। इसके बाद जाहर सिंह शर्मा, मुंशीलाल, भाजपा से मंत्री रहे और अपना अगला चुनाव हारे। साथ ही पूर्व आईपीएस और मंत्री रुस्तम सिंह भी चुनाव हार गए थे।





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