मुंबई. स्वर कोकिला लता मंगेशकर 6 फरवरी 2022 को पंचतत्व में विलीन हो गईं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमिताभ बच्चन समेत कई हस्तियों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। इस बीच मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐलान किया कि इंदौर में लता जी के नाम से संगीत अकादमी, संगीत महाविद्यालय, संगीत संग्रहालय और उनकी प्रतिमा स्थापित की जाएगी।
एक उस्ताद ने ये कहा था: लता मंगेशकर के जीवन पर मशहूर टीवी प्रेजेंटर हरीश भिमानी (महाभारत सीरियल में मैं समय हूं बोलने वाले) ने 'लता दीदी- अजीब दास्तां है ये' किताब लिखी हैं। इसके मुताबिक, 1952 के किसी महीने में लता कलकत्ता गई थीं। वहां एक मिश्र संगीत महोत्सव था। मिश्र यानी ध्रुपद-धमार, टप्पा-ठुमरी से लेकर फिल्मी संगीत भी था। यह समारोह चार रातों का था।
लता जी के अलावा समारोह में उस्ताद बड़ें गुलाम अली खां भी थे। लेकिन कुछ ऐसी गड़बड़ हो गई कि लता मंगेशकर को उस्ताद साहब से पहले गाने के लिए क्रम दिया गया। दरअसल, किसी समारोह में अपने उस्ताद से ठीक पहले गाना खुद को उनके सामने बड़ा दिखाना माना जाता है और ठीक बाद में गाना उन्हें चुनौती देना।
लता ये बिल्कुल नहीं कर सकती थीं। पहले तो उन्होंने आयोजकों को मना किया और जब वे नहीं माने तो उन्होंने उस्ताद साहब से ही शिकायत की और कहा कि मैं ऐसा नहीं कर सकती। यह सुनते ही बड़े खां साहब जोर से हंसे और कहा कि मुझे बड़ा मानती हो और उस्ताद भी तो मेरी बात मानो, तुम ही पहले गाओ। लता ने उनकी बात मान तो ली। लेकिन उन्होंने अपनी हिट फिल्मों बैजू बावरा, बड़ी बहन, महल, दुलारी के गीतों को छोड़कर मालती माधव फिल्म का गीत बांधी प्रीत फुलडोर... गाया।
राग जयजयवंती में बंधे इस गीत का असर ऐसा हुआ कि जो गाना फिल्म में मशहूर नहीं हुआ, उस दिन हिट हो गया। बाद में जब बड़े खां साहब मंच पर आए तो उन्होंने लता को ससम्मान मंच पर बैठा लिया। इसके कई सालों बाद खां साहब अपना सुर मंडल पेट पर टिकाए पं. जसराज के साथ गीतों-बंदिशों की चर्चा कर रहे थे। तभी कहीं से लता जी कि चर्चा आ गई और उनका कोई गीत भी कानों तक पहुंचा. खां साहब बेसाख्ता कह उठे- कमबख्त कभी बेसुरी नहीं होती, वाह- क्या अल्लाह की देन है।
हमेशा सीखती रहीं लता: एक बार भिमानी ने लता जी पूछा था- क्या उस्ताद साहब वाकई आपके उस्ताद थे? मेरा मतलब है कि क्या आपने उनसे गंडा बंधवाया (यह गुरु-शिष्य परंपरा का हिस्सा है, गुरु शिष्य को रक्षासूत्र या धागा बांधकर उसे स्वीकार करता है) था? लता दीदी ने कहा- मैं उनसे हमेशा सीखती रही हूं। वह मेरे उस्ताद हैं। बिना गंडा बंधवाए ही उन्हें सुन-सुन कर उनसे खूब सीखती रही हूं। एकलव्य भी तो गुरु द्रोण की प्रतिमा बनाकर उनसे सीखता रहा था। फिर वे अपने आप में ही बोलीं, काश! मैं उनसे सीख पाती।
आशा भोंसले: जब हम छोटे थे, तो मैं दीदी के सबसे करीब थी। वह मुझे गोद में उठाकर, हर जगह भागती थीं। हम उन दिनों सांगली में रहते थे। हम दोनों एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए थे कि वह मुझे हर दिन अपने साथ स्कूल ले जाती थीं। एक दिन शिक्षक ने हम दोनों को एक ही कक्षा में बैठाने से मना कर दिया। जब शिक्षक ने हम दोनों को वहां रहने से मना कर दिया तो हम लोग रोते हुए घर पहुंचे और फिर दीदी ने मेरे बिना पाठशाला जाने से मना कर दिया। बाबा ने कहा, वे हमारे लिए एक निजी शिक्षक की व्यवस्था कर देंगे। यह उनके स्कूली जीवन का अंत था। मुझे याद आता है कि हम दोनों का पहला युगल (Duet) गाना, मयूर पंख फिल्म से 'ये बरखा बहार, सौतनिया के द्वार ना जा था। हमने शायद, 1950 में इस गाने की रिकॉर्डिंग की थी।
पहला फिल्मी गाना पिता ने ही हटवाया: लता ने पहली बार 1942 में मराठी फिल्म किटी हसाल के लिए गाना गाया, लेकिन पिता दीनानाथ मंगेशकर को बेटी का फिल्मों के लिए गाना पसंद नहीं आया और उन्होंने फिल्म से गीत हटवा दिया। पिता की मौत के समय लता 13 वर्ष की थीं। नवयुग चित्रपट फिल्म कंपनी के मालिक और इनके पिता के दोस्त मास्टर विनायक ने इनके परिवार को संभाला और लता मंगेशकर को गायक बनाने में मदद की।
दिलीप कुमार के ताने के कारण सीखी उर्दू: लता को दिलीप साहब छोटी बहन मानते थे। 1974 में लंदन के रॉयल एल्बर्ट हॉल में लता अपना पहला कार्यक्रम कर रही थीं, वहां दिलीप भी मौजूद थे। लता पाकीजा के गाने इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा से शुरुआत करना चाहती थीं, मगर दिलीप कुमार की नजर में ये गाना उतना उम्दा नहीं था और इसी बात पर वे लता से नाराज हो गए।
एक बार दिलीप कुमार ने हिंदी-उर्दू गाने गाते वक्त लता के मराठी उच्चारण पर टिप्पणी कर दी थी। इसके बाद उन्होंने उर्दू सीखने की ठान ली। किताब 'लता मंगेशकर इन हर ओन वॉयस में उन्होंने इसका जिक्र किया उर्दू सीखने के लिए लता ने एक टीचर रखा और उर्दू पर पकड़ बनाई। लता कहती थीं, यह हर किसी की जिंदगी में होता है कि सफलता से पहले असफलता मिलती है, लेकिन कभी हार नहीं माननी चाहिए। आप जो चाहते हैं, एक दिन जरूर मिलेगा।
रफी से साढ़े तीन साल का झगड़ा: 1960 के दशक में लता अपनी फिल्मों में गाना गाने के लिए रॉयल्टी लेना शुरू कर चुकी थीं, लेकिन उन्हें लगता था कि सभी गायकों को रॉयल्टी मिले तो अच्छा होगा। लता, मुकेश और तलत महमूद ने एक एसोसिएशन बनाई थी। उन सबने रिकॉर्डिंग कंपनी HMV और प्रोड्यूसर्स से मांग रखी कि गायकों को रॉयल्टी मिलनी चाहिए, लेकिन उनकी मांग पर कोई सुनवाई नहीं हुई।
फिर सबने HMV के लिए रिकॉर्ड करना ही बंद कर दिया। तब कुछ और रिकॉर्डिंग कंपनी ने मोहम्मद रफी को समझाया कि ये गायक क्यों झगड़े पर उतारू हैं। गाने के लिए जब पैसा मिलता है तो रॉयल्टी क्यों मांगी जा रही है। उन्होंने रॉयल्टी लेने से मना कर दिया। मुकेश ने लता से कहा, 'लता दीदी, रफी साहब को बुलाकर मामला सुलझा लिया जाए। फिर सबने रफी से मुलाकात की। सबने रफी साहब को समझाया तो वे गुस्से में आ गए। रफी लता की तरफ देखकर बोले, 'मुझे क्या समझा रहे हो। ये जो महारानी बैठी हैं, इसी से बात करो।' तो इस पर लता ने भी गुस्से में कह दिया, 'आपने मुझे सही समझा, मैं महारानी ही हूं।'
इस पर रफी ने कहा, 'मैं तुम्हारे साथ गाने ही नहीं गाऊंगा।' लता ने भी पलट कर कह दिया, आप ये तकलीफ मत करिए, मैं ही नहीं गाऊंगी आपके साथ।' इस तरह से लता और रफी के बीच करीब साढ़े तीन साल तक झगड़ा चला।
3 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार: 1973 में लता को 'बीती ना बिताई रैना..' गाने के लिए पहला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला। फिल्म 'कोरा कागज' के 'रूठे रूठे पिया मनाऊं कैसे...' गाने के लिए दूसरा और तीसरा राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार फिल्म 'लेकिन' के गाने 'यारा सीली सीली...' के लिए मिला।
किसी ने आवाज खारिज की, किसी ने सरस्वती कहा: संगीत की दुनिया में 8 दशक तक राज करने वाली लता मंगेशकर के गाने को एक बार खारिज कर दिया गया था। फिल्म 'शहीद' के निर्माता शशधर मुखर्जी ने यह कहते हुए लता को खारिज किया था कि उनकी आवाज बहुत पतली है। संगीतकार ओपी नैयर ने भी कभी लता जी नहीं गवाया। वे कहते थे कि लता की आवाज उनके गानों में फिट नहीं बैठती। हिंदी सिनेमा के शोमैन कहे जाने वाले राजकपूर लता की आवाज से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने लता को सरस्वती का दर्जा दे रखा था।
गीतकार को दी धमकी: हरीश भिमाणी की किताब इन सर्च ऑफ लता मंगेशकर में उनके एक गीतकार पर भड़कने का जिक्र है। ये उन दिनों की बात है, जब फिल्म महल की शूटिंग हो रही थी। गीतकार नक्शाब ने उनके पैन की तारीफ कर दी। लता ने उन्हें पैन दे दिया, लेकिन वे भूल गईं कि इस पैन पर उनका नाम लिखा था। नक्शाब यह पैन इंडस्ट्री में सबको दिखाकर यह जताने की कोशिश करने लगे कि लता और उनके बीच कुछ चल रहा है। जब यह बात लता को पता लगी तो पहले वह खामोश रहीं।
एक और रिकॉर्डिंग के दौरान नक्शाब और लता का आमना सामना हुआ तो उस समय भी गीतकार यह जताने की कोशिश कर रहे थे कि लता उनके प्यार में पड़ गई हैं। यहां भी लता ने गुस्सा पी लिया। एक दिन नक्शाब लता के घर तक पहुंच गए। वह अपनी बहनों के साथ अहाते में खेल रहीं थीं। यहां लता से नहीं रहा गया और नक्शाब को सड़क पर ले गई और कहा- मेरी इजाजत के बिना घर आने की हिम्मत कैसे हुई। धमकाते हुए उन्होंने कहा, अगर दोबारा यहां देखा तो टुकड़े करके गटर में फेंक दूंगी। भूलना मत, मैं मराठा हूं।
किशोर कुमार से पहली मुलाकात: 40 के दशक में लता ने फिल्मों में गाना शुरू ही किया था, तब वह अपने घर से लोकल ट्रेन से मलाड जाती थीं। वहां से उतरकर स्टूडियो बॉम्बे टॉकीज जाती थीं। रास्ते में एक लड़का उन्हें घूरता और पीछा करता था। एक बार लता खेमचंद प्रकाश की फिल्म में गाना गा रही थीं। तभी वह लड़का भी स्टूडियो पहुंच गया। उसे वहां देख लता ने खेमचंद से कहा कि चाचा, ये लड़का मेरा पीछा करता रहता है। तब खेमचंद ने कहा, अरे! ये तो अपने अशोक कुमार का छोटा भाई किशोर है। उसके बाद दोनों ने उसी फिल्म में पहली बार साथ में गाना गाया।
पहला गाना, जिससे जानने लगे लोग....: 1949 में ‘आएगा आने वाला' के बाद उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़ने लगी। इस बीच उस समय के सभी प्रसिद्ध संगीतकारों के साथ लता ने काम किया। अनिल बिस्वास, सलिल चौधरी, शंकर-जयकिशन, एसडी बर्मन, आरडी बर्मन, नौशाद, मदन मोहन, सी. रामचंद्र जैसे दिग्गज संगीतकारों ने उनकी प्रतिभा का लोहा माना।