तामिया के आसपास के गांवों में,आदिवासियों की आबादी अधिक है। वे सीधे साधे,तंदुरुस्त,शारीरिक रूप से सक्षम और काम में व्यस्त रहने वाले लोग होते हैं। उनके शरीर से चर्बी, कोसों दूर रहती है। वे छल कपट में विश्वास नहीं रखते। फॉरेस्ट महकमे और उसके कर्मियों से उनका विशेष लगाव रहता रहा है। जंगल महकमे के जितने भी काम होते,उसे करने में उनकी सहायता ली जाती है। तेंदूपत्ता सीजन आने पर ग्रामीण आदिवासी पत्ते के संग्रहण कार्य में व्यस्त हो जाते हैं। इससे उन्हें जंगल महकमे के माध्यम से अच्छी खासी राशि मिल जाती है। जंगल के वन मार्गों के रखरखाव, कूपों में कटाई-छटाई, सफाई, फायर प्रोटेक्शन के काम, भवनों के रखरखाव, चौकीदारी आदि जैसे कामों में आदिवासियों की सहायता ली जाती है। खेती सीजन आने पर वे अपने खेतों में काम करते रहते हैं। जब उनके पास काम नहीं होता, तो वे जंगलों में निकल जाते हैं। कभी मछली मारते, तो कभी जमीन से कंद निकालते, शहद के छत्तों से शहद निकाल कर एवं छोटे जानवरों का शिकार कर भोजन की व्यवस्था करते रहते हैं। इस तरह दिन भर जंगलों में व्यस्त रहने के बाद वे शाम को वापस घर लौट आते हैं।
फॉरेस्ट गार्ड की सुरक्षा में साथ जाते थे ग्रामीण
फॉरेस्ट गार्ड जब अपनी बीट में भ्रमण करने जाते, तो वे एक दो ग्रामीणों को सुरक्षा व सहायता की दृष्टि से अपने साथ ले जाते। जंगलों के आस-पास और भीतर रहने वाले आदिवासी जंगलों पर ही निर्भर रहते हैं। जंगलों के कारण उन्हें रोजगार उपलब्ध होता है और राशि प्राप्त होती रहती है। उन्हें लघु वनोपज से भी आमदनी होती रहती है। उनकी अधिकांश रोजमर्रा की आवश्यकताएं भी जंगलों से ही पूरी होती हैं। अगर उनके पास आज के खाने की सामग्री उपलब्ध होती है, तो वे कल की फिक्र नहीं करते। काम करने उसी समय निकलते हैं, जब उनके पास खाने-पीने के इंतजाम का अभाव हो जाता है ।
जंगलों में मिशनरी की शुरूआत की आहट प्रारंभ हो चुकी थी
होली के बाद हम लोग जंगलों के निरीक्षण के लिए निकले। जंगल के रास्ते झिरपा रेंज के एक आदिवासी गांव के आगे एक कूप का निरीक्षण करने पहुंचे। जीप से वापस लौटते समय हमने देखा कि रास्ते में बड़े-बड़े पत्थर और लकड़ी के बड़े-बड़े टुकड़े रख कर रास्ता अवरूद्ध कर दिया गया था। जैसे ही हम लोग जीप से उतरे, तो बहुत सारी आदिवासी महिलाओं ने हमें घेर लिया। होली के बाद जब भी कोई अधिकारी जंगलों में दौरे पर जाता, तब ग्रामीण महिलाएं इसी तरह रास्ता रोक कर होली त्यौहार के उपलक्ष्य में इस प्रकार का नेंग लेती थीं। हम लोगों ने भी उनको निराश नहीं किया। नेंग प्राप्त करने के बाद उन्होंने हमें शुभकामनाएं दी और इसके बाद ही उन्होंने रास्ते से अवरोध हटाए। छिंदवाड़ा के आसपास के जंगलों के निरीक्षण दौरान भीतरी व अंदरूनी क्षेत्रों में मिशनरी के काम देखने को मिले। मिशनरी के चर्च के साथ धर्मार्थ के काम तो हो रहे थे, लेकिन इस दौरान कुछ आदिवासियों के क्रिश्चियन नाम भी सुनने को मिलते रहते। शायद यह धर्म परिवर्तन का प्रभाव था। मिशनरी का एक केंपस उन दिनों तामिया बिजौरी में विकसित हो रहा था।
तेंदुआ की सरलता और निडरता
झिरपा से माहुलझिर जाने के लिए हम लोग शाम को जीप से कच्चे रास्ते से निकले। जब हम लोग आगे बढ़ रहे थे, तब मार्ग के बाजू में एक पहाड़ी के ऊंचे टीले पर एक तेंदुआ चलता हुआ दिखाई दिया। हम लोगों ने जीप को रोक लिया, ताकि तेंदुए को अच्छी तरह से देख सकें। जीप की हेड लाइट जल रही थी। हम लोगों ने देखा कि तेंदुआ धीरे-धीरे चलते हुए जीप के सामने आ गया और कुछ अंतराल के बाद वह जीप की रोशनी में सामने रास्ते पर ही बैठ गया। हम लोग चालू जीप में बैठे- बैठे इस दुर्लभ दृश्य का आनंद काफी देर तक उठाते रहे। हम लोगों ने तेंदुए को छेड़ना उचित नहीं समझा। कुछ समय के बाद वह तेंदुआ उठ कर,धीरे धीरे जंगल के भीतर की ओर चला गया। उस तेंदुए की सरलता व निडरता को देख कर हम लोग आश्चर्यचकित थे। मूक वन्य प्राणी इसी सरलता के कारण शिकारियों की गोलियों का शिकार होते रहते हैं।
अंग्रेजों की देन है सागौन का प्लांटेशन
जंगल महकमे में सागौन प्लांटेशन लगाने का कार्यक्रम नियमित रूप से चलता रहता था। इसके लिए स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले सतकटा या साल जंगलों को काट कर सागौन के प्लांटेशन लगाए जाते थे। यह प्रथा अंग्रेजो के समय से प्रचलित थी। इसका मुख्य उद्देश्य सागौन के पेड़ परिपक्व होने पर उनसे प्राप्त इमारती लकड़ी बेचने से अधिकतम आय जंगल महकमे को हो सके। हम लोगों को ट्रेनिंग के समय जंगलों के प्रबंधन के लिए एक कन्वर्शन टू यूनीफार्म सिस्ट्म भी पढ़ाया जाता था। इस सिस्ट्म के अनुसार स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले जंगलों को काट कर सभी आयु के सागौन अथवा किसी एक विशिष्ट प्रजाति के जंगल तैयार करने की व्यवस्था होती है।
अधिक आय की चाह में सागौन प्लांटेशन
प्रकृति ने हर क्षेत्र व पहाड़ों की ढलानों पर स्वाभाविक रूप से उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त विभिन्न प्रजातियों के पेड़ पौधे उपलब्ध कराए। इनका हमें पालन पोषण और उचित देख-रेख कर उनका समय-समय पर दोहन कर उन्हीं प्रजातियों के पौधों को वहां लगा कर फलने फूलने के प्रयास करने चाहिए थे। लेकिन अधिक आय प्राप्त करने के उद्देश्य से हमने स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले जंगलों की कटाई कर उसके स्थान पर एक प्रजाति अर्थात सागौन के पेड़ लगाना जारी रखा।
सागौन प्लांटेशन से ग्रामीणों को मजदूरी के अलावा कुछ नहीं मिला
स्वाभाविक रूप से पाए जाने वाले जंगलों में विभिन्न प्रजातियों के पेड़ पौधे पाए जाते हैं। इन जंगलों की बदौलत ग्रामीणों की जरूरतों की पूर्ति होती रहती है। ग्रामीणों को जंगल से जलाऊ लकड़ी, महुआ फूल, आम, आंवले, इमली एवं अन्य प्रजातियों के फल फूल, पत्तियां, जड़ी-बूटियां, बांस आदि लगातार मिलती रहती हैं। इन पेड़ों से पक्षियों और वन्य प्राणियों को भी पर्याप्त भोजन प्राप्त होता रहता है। इससे प्रकृति का इकोलॉजिकल संतुलन भी बना रहता है, लेकिन पौधारोपण द्वारा सागौन के जंगल तैयार करने से गांव वालों को ये सब वस्तुएं प्राप्त होना बंद जाती हैं। सागौन वृक्षारोपण ग्रामीणों को मजदूरी उपलब्ध करवाने के अतिरिक्त किसी काम के नहीं होते। इससे उनका जीवन भी नीरस हो जाता है। सागौन के वृक्षारोपण में अगर किसी प्रकार की बीमारी फैल जाती है, तो इससे पूरे वृक्षारोपण क्षेत्र में नुकसान होता है। इस विषय पर गहन अध्ययन कर सागौन वृक्षारोपण को सीमित क्षेत्र में ही तैयार किया जाना चाहिए।
खाद्यान्न ले जाने के लिए कलेक्टर की लेनी पड़ती थी अनुमति
छिंदवाड़ा की पदस्थापना के दौरान उस समय मध्यप्रदेश में एक जिले से दूसरे जिले में खाद्यान्न ले जाने पर पूर्णत: प्रतिबंध था। बालाघाट फॉरेस्ट स्कूल के डायरेक्टर मुझसे तीन साल सीनियर अधिकारी एमएस सोलंकी थे। वे फॉरेस्टर क्लॉस को ले कर छिंदवाड़ा दौरे पर आने वाले थे। क्लॉस के लिए पर्याप्त खाद्यान्न ट्रक में साथ रख कर चलना पड़ता था, जिसे एक जिले से दूसरे जिले में ले जाने के लिए उनको कलेक्टर से अनुमति लेनी पड़ती थी। मुझे याद है कि स्वतंत्रता के पूर्व 1944-45 में भी द्वितीय विश्व युद्ध के समय भी यही स्थिति थी। उस समय भी एक जिले से दूसरे जिले में खाद्यान्न ले जाना प्रतिबंधित था। यहां तक कि गेहूं के आटे को भी ले जाने पर भी इसी तरह की रोक थी। पकड़े जाने पर नियमानुसार कार्रवाई की जाती थी। प्रत्येक जिले में आटे की दर अलग-अलग थी। किसी जिले में सस्ता, तो किसी जिले में महंगी दर पर आटा मिलता था। उस समय लोग गद्दे के खोल में रूई के स्थान पर लगभग पन्द्रह किलो गेहूं का आटा भर कर होल्डऑल में गद्दे को रख कर चोरी छिपे लाते थे। उस समय के इस तरह की अभाव की घटनाएं अब केवल कहानियों में ही रह गई है। नई पीढ़ी इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती है। (लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं)