देव श्रीमाली, Gwalior. चंबल अंचल दुनिया भर में अपनी अदावत के लिए कुख्यात है। इसी अदावत अर्थात दुश्मनी के कारण चम्बल अंचल दस्युगर्भा बन गया और डाकू ही चम्बल की पहचान बन गए। लेकिन चम्बल की यह पहचान सिर्फ उन लोगों के जेहन में जो सिर्फ इस अंचल की कहानियाँ और किस्से पढ़-सुनकर धारणा बनाते है। अगर हम चम्बल में जाकर देखेंगे तो वहां दुश्मनी से ज्यादा मित्रता के किस्से-कहानियां ही चर्चा का विषय रहते हैं। चम्बल विद्रोही राजनीति का गढ़ है। वहां के युवा सत्ता की जगह संघर्ष की राजनीति करने के लिए जाने जाते हैं और वोटर भी उन्ही के साथ रहते हैं। इसी विपक्षी राजनीति के गर्भ से पांच दशक पहले निकले पांच मित्रों की अटूट मित्रता की कहानी यहाँ हर चौपाल पर भी सुनाई जाती है और इसकी मिसालें भी दी जातीं है। ये ऐसे पांच दोस्तों का किस्सा है जिन्होंने उच्च शिक्षा पाई, लेकिन अपने जीवन के लिए इन्होंने रास्ता चुना सियासत का। सिर्फ सियासत के जरिये सत्ता का नहीं, बल्कि संघर्ष का। सभी ने फर्श से अपनी सियासत शुरू की और पांचों मध्यप्रदेश विधानसभा की देहरी लांघकर अंदर पहुंचे। दल एक हो या अलग, दिल एक दूसरे के पास ही रहे। 50 साल से।
चम्बल के राजनीतिक वीथियों में ही नहीं, गांव- गांव की चौपालों तक पर जिस दोस्ती के किस्से सुनाये जाते हैं, वे हैं - ब्रजेन्द्र तिवारी, गजराज सिंह सिकरवार, डॉ गोविन्द सिंह, राम लखन सिंह और केपी सिंह कक्काजू। ख़ास बात ये है कि ये पांचों विधायक रह चुके हैं। दो अभी भी विधायक है। एक चार बार सांसद रह चुके हैं और दो के बेटे अभी विधायक हैं। नब्बे के दशक के बाद से ऐसा मौक़ा कभी नहीं आया, जब इस मित्र कुनबे का कोई न कोई सदस्य मध्यप्रदेश विधानसभा का सदस्य न रहा हो।
झगड़े से बनी थी पहली जोड़ी
इस दोस्त मण्डली की धुरी शुरू से ही खांटी सोशलिस्ट बृजेन्द्र तिवारी ही रहे। फक्कड़ स्वभाव और ईमानदार छवि वाले तिवारी को समाजवादी विचार और राजनीतिक आबोहवा विरासत में मिली थी। उनके पिता विष्णुदत्त तिवारी राष्ट्रीय स्तर के समाजवादी नेता थे। लोहिया, जय प्रकाश नारायण से लेकर जॉर्ज फर्नांडीज तक के मित्र। ग्वालियर में समाजवादी राजनीति के शक्तिशाली केंद्र थे वे। 1977 में वे जनता पार्टी से विधायक भी बने। यही वजह रही कि उनके बेटे छात्र जीवन से ही राजनीति में रमने लगे और तब ग्वालियर में छात्र राजनीति बड़ी सशक्त थी। सो वे भी उसमें सक्रिय हो गए। इनकी दोस्ती में पहली एंट्री हुई राम लखन सिंह की। मूलतः भिंड जिले के माधुपुरा गाँव के रहने वाले राम लखन सिंह के बड़े भाई जगमोहन सिंह कुशवाह कृषि विभाग में अधिकारी थे। बात 1967 की है। राम लखन अपने भाई के घर पढ़ने आये। उनके भाई किराए से कमरा लेकर रहते थे, उनके पास ही बृजेन्द्र तिवारी का परिवार भी किराए से रहता था। मुहल्ले के सभी लड़के सड़क पर साथ-साथ खेलते थे। इसी खेल में एक दिन दोनों में जमकर झगड़ा हो गया। पहले तो लगा कि झगड़ा हिंसा तक पहुंचेगा, लेकिन थोड़ी देर में एक दोस्त ने पहल की और दोनों को शांत करवाकर गले मिलवाया और दोस्ती करवाई। बस, वर्ष-दर-वर्ष बीतते गए, और यह दोस्ती और भी मजबूत होती चली गई।
आंदोलन से जुड़ा तीसरा दोस्त
अब इस मित्र ग्रुप में नई एंट्री होती है। इन शख्स का नाम है गजराज सिंह सिकरवार। मूलतः मुरैना जिले के सिकरवारी इलाके के गाँव से गजराज सिंह पढ़ने के लिए ग्वालियर आए। बात 1969-70 की है। वे जयेन्द्रगंज स्थित राजपूत बोर्डिंग में रहते थे और साइंस कॉलेज में पढ़ते थे। राकेश नारायण दीक्षित और अरुण भार्गव इनके मित्र थे, जो तिवारी और सिकरवार के भी मित्र थे। बात 1972-73 की है, तब तिवारी जीवाजी विवि छात्र संघ के अध्यक्ष थे। उस समय समाजवादी युवजन सभा ने बृजेन्द्र तिवारी के नेतृत्व में छात्रों के प्रवेश के मामले को लेकर साइंस कॉलेज में बड़ा आंदोलन शुरू किया। कॉलेज से निकलकर आंदोलन जीवाजी विश्व विद्यालय पहुंच गया। छात्रों की भीड़ ने रात भर विवि को घेरकर रखा। तत्कालीन वाइस चांसलर भंडारकर विवि बंद करके घर चले गए। इस बीच ग्वालियर के तत्कालीन एसपी अयोध्या नाथ पाठक विवि के अंदर आ गए तो छात्रों ने पूछा कि वे बगैर इज़ाज़त अंदर कैसे आ गए, वक्त की नज़ाकत देख वे उलटे पैर लौट गए। छात्रों ने अपनों में से ही नया वाइस चांसलर और रजिस्ट्रार चुन लिया। नवीन भार्गव नामक छात्र कुलपति चुना गया। उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ला को सीधे फोन लगाकर कहा कि मैं जेयू का वाइस चांसलर भार्गव बोल रहा हूँ, उन्हें सारी बात बताई, लेकिन आंदोलन लंबा खिंचने लगा। गजराज सिंह उस समय मुरैना स्थित अपने गाँव में थे। उनके दोस्त केपी सिंह को भेजकर उन्हें बुलाया गया। इसके बाद वे भी ब्रजेन्द्र तिवारी के पक्के दोस्त बन गए।
चौथे दोस्त की एंट्री भी आंदोलन ने कराई
केपी सिंह जिन्हें अब लोग कक्काजू के नाम से ज्यादा पुकारते हैं, पढ़ने के लिए शिवपुरी से ग्वालियर आये थे। तब तक ब्रजेंद्र तिवारी-गजराज सिंह का पैनल जीवाजी विवि की राजनीति में पैठ बना चुका था। बात 1977-78 की है। उन्होंने माधव कॉलेज में एडमिशन लिया। उन्हें पंडित सीताराम शर्मा ने अपने पास ही जनकगंज में रहने के लिए कमरा दिलवा दिया। पंडित जी भी इस ग्रुप की धुरी थे। छात्रसंघ चुनाव आये तो केपी सिंह को माधव कॉलेज में अध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ाया गया। वे जीत भी गए। उस समय एमपी में वीरेंद्र कुमार सखलेचा की सरकार थी। उन्होंने मीसा कानून से मिलता-जुलता लोक विच्छिन्निता विधेयक पास करवा दिया। यह मुख्यता कर्मचारी विरोधी कानून था। सखलेचा ग्वालियर आ रहे थे। उन्हें नए हाईकोर्ट भवन का शिलान्यास करना था, जो जीवाजी क्लब के सामने खाली पड़े मैदान पर बनना था जहां बाद में सिंधिया परिवार ने उत्सव और परिणय वाटिका नामक दो मैरिज गार्डन बनवा दिए हैं। युवजन सभा ने तय किया कि सखलेचा का विरोध किया जाए। उस समय राकेश शर्मा साइंस कॉलेज के महासचिव थे। वे ही आंदोलन के अगुआ थे। सखलेचा मंच पर आये। मंच पर राजमाता सिंधिया, बृजेन्द्र तिवारी के विधायक पिता विष्णुदत्त तिवारी, समाजवादी विधायक रमा शंकर सिंह भी थे। राकेश शर्मा जुलूस लेकर पहुंचे और नारेबाजी करने लगे। सब नेताओं का दबाव था कि प्रतीकात्मक विरोध हो गया और छात्र अब चले जाएं, लेकिन शर्मा नहीं माने। वे जुलूस लेकर मंच तक पहुँच गए। इसके बाद पुलिस जब गिरफ्तारी करने लगी तो बृजेन्द्र तिवारी अपने पापा का साथ छोड़कर आंदोलनकारियों के साथ हो गए। इससे छात्र आंदोलन भड़क गया। दूसरे दिन संभाग भर के कॉलेजों में हड़ताल का ऐलान हुआ। तय हुआ छात्र जुलूस लेकर कलेक्ट्रेट घेरेंगे। रात को तय हो गया, लेकिन उसी दिन माधव महाविद्यालय छात्रसंघ का शपथ ग्रहण आयोजन था। इसके मुख्य अतिथि थे पीडब्ल्यूडी मिनिस्टर बाबू जबर सिंह। केपी सिंह पर कॉलेज प्रबंधन ने हड़ताल में शामिल न होने का दबाव बनाया। केपी सिंह भी चाहते थे शपथ हो जाए। उन्हें समझाया आंदोलन जरूरी है, शपथ बाद में भी हो जाएगी। शपथ के पहले ही तिवारी कॉलेज गेट पर पहुंचकर भाषण देने लगे। सभी छात्र आंदोलन में आ गए और शपथ ग्रहण नहीं हो सका। बाद में मुख्य अतिथि के तौर पर हरियाणा सरकार में मंत्री सुषमा स्वराज को बुलाकर शपथ दिलाई गई। इसी दौर से केपी सिंह इस मित्र समूह के अभिन्न हिस्सा बन गए।
फिर मिला पांचवां दोस्त और गहराती गई दोस्ती
इस दोस्ताना ग्रुप के एक और सदस्य हैं डॉ गोविन्द सिंह। वे वर्तमान में विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष है। वे लहार से पढ़ने भिंड आये और अपने चाचा लाल सिंह कुशवाह के यहाँ रहते थे। वे एडवोकेट थे और राम लखन सिंह के चाचा राम शंकर सिंह के पक्के दोस्त थे जो कि कलेक्ट्रेट में ऑफिस सुपरिंटेंडेंट थे। बाद में जब लाल सिंह जी भूमि विकास बैंक के अध्यक्ष बने तो सेवानिवृति के बाद राम शंकर सिंह उसके उपाध्यक्ष बन गए। दोनों के बीच घरोपा सम्बन्ध थे लिहाजा राम लखन सिंह और गोविन्द सिंह में भी दोस्ती हो गई। दोनों आयुर्वेद चिकित्सा की शिक्षा लेने भी गए। जब गोविन्द सिंह वापिस भिंड लौटे तो उन्होंने लहार में प्रायवेट प्रेक्टिस शुरू कर दी, लेकिन कॉलेज काल से ही राजनीति से जुड़ाव था। वे तत्कालीन विधायक समाजवादी नेता रमा शंकर सिंह से जुड़े। 1980 में जब जनता पार्टी टूटी तो समाजवादी दल भी बिखरा। इसमें डॉ गोविन्द सिंह और डॉ राम लखन सिंह एक साथ रहे और रमा शंकर अलग चले गए। इसके बाद गजराज सिंह, बृजेन्द्र तिवारी, केपी सिंह, डॉ राम लखन सिंह और डॉ. गोविन्द सिंह की मित्रता की गूँज पूरे अंचल में होने लगी। इस बीच लहार में डॉ सिंह मार्केटिंग सोसायटी के अध्यक्ष बन गए, फिर पार्षद और फिर नगर पालिका अध्यक्ष।
पांच दोस्त पाचों एमएलए
नब्बे के दशक तक ये अंचल की समाजवादी राजनीति का एक जाना-पहचाना नाम बन चुके थे। धरना, प्रदर्शन, आंदोलन और लोगों की मदद कर - करके यह लोग भिंड, मुरैना, ग्वालियर और शिवपुरी जिलों में अपना बड़ा समर्थक समूह खड़ा कर चुके थे। तभी सबने तय किया कि पांचों लोग विधानसभा का चुनाव लड़ें। 1990 में जब मप्र विधानसभा के चुनाव आये तो बृजेन्द्र तिवारी गिर्द ग्वालियर, गजराज सिंह सुमावली मुरैना, डॉ गोविन्द सिंह लहार और डॉ राम लखन सिंह ने जनता दल से चुनाव लड़ा। हालाँकि गोविन्द सिंह पिछले चुनाव में उतरे थे, लेकिन असफल रहे थे। परिणाम आये तो सब चौंक पड़े। दो दोस्त विधानसभा पहुँच गए। गजराज सिंह और गोविन्द सिंह ने जीत दर्ज की। राम लखन सिंह मामूली वोटों के अंतर् से हार गए और बृजेन्द्र तिवारी भी नहीं जीत सके। लेकिन 1993 में राम लखन सिंह बीजेपी में शामिल हो गए और गोविन्द सिंह कांग्रेस में। गजराज सिंह जनता दल में ही रहे तो तिवारी समता दल में। इस बार मित्र ग्रुप में विधायक संख्या बढ़कर तीन हो गयी। गोविन्द सिंह लहार और केपी सिंह पिछोर से कांग्रेस और डॉ राम लखन सिंह भिंड से बीजेपी के विधायक बन गए। राम लखन सिंह 1995-96 में भिंड-दतिया संसदीय क्षेत्र से सांसद चुन गए और फिर लगातार चार बार जीते। 1998 में डॉ गोविन्द सिंह, केपी सिंह और गजराज सिंह विधानसभा में पहुंचे। पार्टियां दो। पहले दो कांग्रेस से और गजराज सिंह बीजेपी से। कांग्रेस वाले दोनों मित्र दिग्विजय सिंह मंत्रिमंडल का हिस्सा भी बने।
बेटों को भी भिजवाया विधानसभा
डॉ गोविन्द सिंह 1990 से लगातार लहार विधानसभा क्षेत्र से अपराजेय विधायक बने हुए हैं। गजराज सिंह ने 2013 के चुनाव में खुद को पीछे कर अपने बेटे सत्यपाल सिंह सिकरवार को बीजपी के टिकट पर उतारा और वे जीते। 2018 में उन्होंने अपने बड़े बेटे डॉ सतीश सिंह सिकरवार को ग्वालियर पूर्व से बीजेपी प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतारा, लेकिन वे हार गए। लेकिन जब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस की सरकार गिराकर बीजेपी में शामिल हुए और उप चुनाव हुए तो सतीश ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया और बीजेपी के मुन्नालाल गोयल को हराकर विधायक बन गए। हाल ही में गजराज सिंह की बहू और सतीश की पत्नी डॉ शोभा सिकरवार ने कांग्रेस से ग्वालियर नगर निगम में मेयर का चुनाव लड़ा और 57 साल बाद बीजेपी को उसके अभेद्य गढ़ में हराकर सभी को चौंका दिया। भिंड में रामलखन सिंह के बेटे संजीव सिंह संजू बीएसपी के टिकट पर विधानसभा चुनाव में उतरे और 55 हजार मतों के रिकॉर्ड अंतर से जीत हासिल की। कुछ दिनों पहले ही वे बीजेपी में शामिल हो गए। वर्तमान सदन में दो चाचा और दो भतीजे विधायक है। दल अलग हैं, दिल एक हैं।