Indore. पार्टी से बाहर थे नेता, लौटे तो सीधे मेयर का टिकट लेकर, विधानसभा भी लड़े

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Lalit Upmanyu
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Indore. पार्टी से बाहर थे नेता, लौटे तो सीधे मेयर का टिकट लेकर, विधानसभा भी लड़े

Indore.एक ऐसा नेता जो लंबे समय तक अपनी पार्टी (कांग्रेस) से बाहर रहा, लेकिन जब लौटा तो सीधे मेयर का टिकट लेकर। ऐसा तब हुआ जब पार्टी के कई बड़े नेता मेयर का टिकट तो ठीक, उसे पार्टी में लेने तक को राजी नहीं थे। बात इंदौर, भोपाल से होते हुए दिल्ली तक पहुंच गई थी। 



साल 2010 का इंदौर नगर निगम का चुनाव। भाजपा और कांग्रेस दोनों में मेयर प्रत्याशी लेकर खासी हलचल थी। भाजपा ने तो कुछ दिन की भागदौड़ के बाद अपने वरिष्ठ नेता कृष्णमुरारी मोघे को प्रत्याशी बना दिया लेकिन कांग्रेस के पास सामान्य वर्ग का ऐसा कोई नेता नहीं था (या था भी तो टिकट के लायक नहीं समझा गया) जिसे मोघे के सामने खड़ा किया जा सके। इसी ऊहापोह में कांग्रेस के एक गुट को याद आई पंकज संघवी की।  यहां तकनीकी दिक्कत यह थी उन्हें काफी समय पहले ही पार्टी से निकाला जा चुका था। चूंकि पंकज लंबे समय तक पार्टी में रहे थे और 1996 में सुमित्रा महाजन के सामने लोकसभा का चुनाव शानदार तरीके से लड़ चुके थे, लिहाजा पार्टी के एक वर्ग को उनकी राजनीतिक और आर्थिक हस्ती का पता था। उन्हें पार्टी में वापस लेने की कवायद शुरू हुई ही थी कि दूसरा तबका उन्हें बाहर ही रखने की कवायद में लग गया। घमासान बढ़ता गया। पहले इंदौर में समर्थन और विरोध के स्वर उठे फिर ये आवाजें भोपाल और दिल्ली तक जा पहुंची। 



दिल्ली में हुआ फैसला



पंकज को लेकर पार्टी में ही दो गुट हो गए थे। विरोध और समर्थन दोनों तरफ बड़े नेता शामिल थे। जिसकी जहां तक पहुंच थी वहां तक विरोध और समर्थन जता आया। एक दौर ऐसा आया कि लगा पंकज के लिए पार्टी के दरवाजे खुल गए हैं तो आखिरी कोशिश में पार्टी के एक बड़े नेता ने अपने घोर विरोधी नेता को कार में बैठाया और दिल्ली की सड़कों  पर पौन घंटे तक यह समझाते रहे कि पंकज को पार्टी में वापस क्यों नहीं लेना चाहिए।  बता दें कि जो दो नेता कार में थे उनमें भी आपस में कभी पटरी नहीं बैठी । आज भी नहीं बैठती है इसके बावजूद उन बड़े नेता ने सिर्फ पंकज को रोकने के लिए अपने विरोधी नेता से बात की। खैर, दिल्ली-भोपाल के समीकरण का हिसाब-किताब लगाया गया तो नतीजा यह निकला कि पंकज को पार्टी में लिया जा सकता है। 



मेयर का टिकट भी



पार्टी में वापसी के बाद दूसरा मोर्चा खुला मेयर के टिकट का।  जो धड़ा पंकज को पार्टी में लाया था, उसका मूल उद्देश्य ही यह था कि साथ में मेयर का टिकट भी पंकज को ही दिलवा दिया जाए। यहां फिर कई नामों और गुटों का अड़ंगा पंकज के सामने आया। लंबी तनातनी चली।  बैठकों, समीक्षाओं का दौर चला। गुटबाजी तो चली ही। अंततः पंकज ने यह लड़ाई भी जीती और मेयर का टिकट लेकर इंदौर लौटे। मतलब, जो नेता हफ्तेभर पहले तक पार्टी में ही नहीं था, वो न केवल पार्टी में आया बल्कि साथ में मेयर का टिकट भी ले आया। हालांकि, पंकज वह चुनाव 3200 वोटों के मामूली अंतर से हार गए।  यह इंदौर के मेयर चुनाव में कांग्रेस की सबसे छोटी हार थी।



विधानसभा टिकट भी ले आए



पंकज 2010 में मेयर का चुनाव हारे। उन्होंने कई विधानसभा क्षेत्रों में मोघे पर बढ़त भी बनाई। मजबूती से चुनाव लड़ने का नतीजा यह हुआ कि जब 2013 के विधानसभा चुनाव आए तो पंकज को क्षेत्र क्रमांक-5 से विधानसभा का भी टिकट दे दिया गया। मेयर के चुनाव में इस विधानसभा में उन्होंने शानदार प्रदर्शन किया था। यह एक किस्म का दुर्लभ प्रकरण था कि जो नेता कुछ समय पहले तक पार्टी में नहीं था वो अंदर आने के बाद  दो बड़े चुनाव लड़ लिया। हालांकि वे पांच नंबर का चुनाव भी महेंद्र हार्डिया से हार गए। यह उनकी हार की हैट्रिक थी। इससे पहले वे लोकसभा और मेयर का चुनाव हार चुके थे। 2019 का लोकसभा चुनाव भी इंदौर से पंकज ही लड़े थे। यह उनका चौथा चुनाव और चौथी हार थी। 



सेबोटेज के आरोप में हुए थे बाहर



पंकज संघवी को पार्टी विरोधी गतिविधियों के चलते बाहर निकाला गया था। साल 2008 के विधानसभा चुनाव में पांच नंबर से शोभा ओझा चुनाव लड़ीं थीं। तब पंकज भी दावेदार थे। शोभा चूंकि इससे ठीक पहले 2003 का विधानसभा चुनाव पांच नंबर से हार चुकी थीं, लिहाजा पंकज अपनी दावेदारी कर रहे थे। हालांकि, हार के बावजूद शोभा दूसरी बार उसी विधानसभा से टिकट ले आईं। शोभा दूसरा चुनाव भी हार गईं। तब पंकज पर आरोप  लगे थे कि उन्होंने पार्टी के खिलाफ काम किया। जांच-पड़ताल के बाद अंततः उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया था। 




 


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