भोपाल. एक महात्मा ने एक बार अपने प्रवचन में कहा कि जीव और निर्जीव दोनों में ईश्वर होता है। संसार की हर वस्तु में ईश्वर का दर्शन किया जा सकता है। इस प्रवचन का उनके एक शिष्य पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। वह शिष्य पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, पत्थर और जंगली जीवों में ईश्वर देखने लगा। कुछ दिन बाद वह शिष्य जंगल के रास्ते से उन्हीं महात्मा का प्रवचन सुनने जा रहा था। सामने से हाथी आ रहा था। महावत ने शिष्य से चिल्लाकर कहा- हाथी पागल है, हट जाओ। पर शिष्य के दिमाग में महात्मा के वही शब्द गूंज रहे थे- जीव और निर्जीव दोनों में ईश्वर है। शिष्य नहीं हटा। हाथी ने उसे सूंड़ में लपेटकर पटक दिया। शिष्य बेहोश हो गया। जहां ये घटना हुई, प्रवचन स्थल वहां से ज्यादा दूर नहीं था। सूचना मिलने पर लोग पहुंच गए।
इलाज के बाद होश आया तो महात्मा एक प्रिय शिष्य के साथ उसे देखने आए। महात्मा ने उससे पूछा- हाथी के रास्ते से हटे क्यों नहीं? घायल शिष्य ने कहा- आपने ही तो कहा था कि सबमें ईश्वर है। मैंने हाथी में भी वही देखा। महात्मा निशब्द हो गए। इस पर महात्मा के प्रिय शिष्य ने कहा- आपके सामने महावत और हाथी दोनों आए थे। आपने हाथी में तो भगवान देख लिया, पर महावत में नहीं देखा। महावत के रूप में भगवान ने आपकी रक्षा के लिए चेताया था। आपने नहीं सुना, परिणाम सामने है। ये जवाब सुनकर महात्मा स्तब्ध रह गए। महात्मा रामकृष्ण परमहंस थे और तर्क देने वाला प्रिय शिष्य था- विवेकानंद।
आज स्वामी विवेकानंद (नरेंद्रनाथ दत्त) की जयंती है। 12 जनवरी 1863 को उनका जन्म (कोलकाता में) हुआ था। नरेंद्र की 1881 में रामकृष्ण परमहंस से मुलाकात हुई। 25 साल की उम्र में अपने गुरु से प्रभावित होकर नरेंद्र ने मोह-माया छोड़़ दी और संन्यासी बन गए। 4 जुलाई 1902 को विवेकानंद का निधन हो गया।
ऐसे मिला नाम: राजस्थान के झुंझुनू जिले में खेतड़ी रियासत थी। यहां के राजा अजीत सिंह की एक बार माउंट आबू में नरेंद्र को देखा था। तब नरेंद्र को कोई ज्यादा जानता-पहचानता नहीं था। राजा अजीत नरेंद्र को पहचान गए और अपने साथ खेतड़ी ले आए। तब नरेंद्र का नाम विविदिशानंद हुआ करता था। वे भारत की पैदल यात्रा पर निकले थे। अजीत सिंह ने उनमें गजब की ऊर्जा, तेज और अध्यात्म के प्रति प्रेम देखा। नरेंद्र ने कई बार इस बात को स्वीकार किया कि यदि उन्हें राजा अजीतसिंह जैसे दोस्त नहीं मिलते तो वो वे कुछ नहीं कर पाते। दोनों के बीच दोस्ती के साथ-साथ गुरू-शिष्य का संबंध भी आजीवन रहा। अजीत सिंह के महल में नरेंद्र तीन बार गए थे।
माउंट आबू में मुलाकात के बाद अजीत ने नरेंद्र को महल आने का न्यौता दिया। नरेंद्र यहां पहुंचे तो ये एक तरह से दो आत्माओं का मिलन जैसा था। दोनों गुरु-शिष्य रात-रात भर फतेह विलास महल की छत पर खगोल विज्ञान (एस्ट्रोनॉमी) का अध्ययन करते तो कभी दोनों संगीत में डूब जाया करते थे। एक हारमोनियम बजाता था तो दूसरा ठुमरी और शास्त्रीय संगीत गाया करता था। एक वीणा बजाता करता था तो दूसरा संगत दिया करता था। दोनों घोड़े पर बैठकर शिकार पर जाते तो कभी जीण माता के दर्शन के लिए। देखते ही देखते दोनों का रिश्ता खासा मजबूत हो गया और तभी एक दिन अजीत ने नरेंद्र यानी विविदिशानंद को विवेकानंद नाम ग्रहण करने को कहा, जिसने उन्होंने स्वीकार कर लिया। अजीत ने ही विवेकानंद को शिकागो धर्म संसद में हिस्सा लेने भेजा। स्वामी विवेकानंद अपने पत्रों में राजा अजीत सिंह को महाराजा खेतड़ी लिखा करते थे।
वो महान भाषण: 11 सितंबर 1893 में अमेरिका के शिकागो में धर्म संसद का आयोजन हुआ। विवेकानंद ने अपने भाषण की शुरुआत में हिंदी में ये कहा- प्रिय बहनों और भाइयों। उनके भाषण पर आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो में पूरे दो मिनट तक तालियां बजती रहीं। उनके भाषण के अंश...आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आप सभी को दुनिया की सबसे पुरानी संत परंपरा की ओर से शुक्रिया करता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही केवल विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम दुनिया के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मैं गर्व करता हूं कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। यह बताते हुए मुझे गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजराइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर में तब्दील कर दिया था। इसके बाद उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी।
जैसे नदियां अलग अलग स्रोतों से निकलती हैं और आखिर में समुद्र में जाकर मिलती हैं। वैसे ही मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग रास्ते चुनता है। लंबे समय से कट्टरता, सांप्रदायिकता, हठधर्मिता आदि पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन सभी ने धरती को हिंसा से भर दिया है। कई बार धरती खून से लाल हुई है, काफी सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हो गए।
यहां गुजारे जीवन के अंतिम दिन: स्वामी विवेकानंद ने 1897 में कोलकाता में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी। इसके बाद स्वामी विवेकानंद ने 1898 में हुगली नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना भी की। बेलूर मठ में ही स्वामी विवेकानंद ने अपने जीवन के अंतिम दिन गुजारे। आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च यानी स्वयं के मोक्ष और जगत के कल्याण के लिए बेलूर मठ का मोटो है।
युवाओं के लिए स्वामी विवेकानंद के 11 SUCCESS Mantra
- उठो, जागो और तब तक नहीं रुको, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।