ज्योतिरादित्य सिंधिया चाहें या न चाहें वो जीत या हार के पोस्टर बॉय बन ही जाते हैं। 2018 में जब कांग्रेस जीती तब वो जीत के पोस्टर बॉय बने। अब जब सत्ता में रहते हुए बीजेपी विजयपुर की सीट हार गई है तब भी राजनीति सिंधिया के इर्द गिर्द मंडरा रही है, लेकिन ये राजनीति बहुत से सियासी सवाल भी उठा रही है। पहला सवाल ये कि क्या बीजेपी में अब सिंधिया का रुआब कम हो गया है। दूसरा सवाल ये कि क्या नई और पुरानी भाजपा की जंग पर आलाकमान का कंट्रोल कम हो गया है। तीसरा सवाल ये कि क्या सिंधिया अब भी अपनी पुरानी नाराजगी नहीं भूले हैं। तो चलिए एक-एक कर हर सवाल पर बात करते हैं।
विजयपुर में जीत के समीकरण तय थे फिर क्या हुआ
इन सवालों पर चर्चा करें, उससे पहले उनक पृष्ठभूमि समझ लेते हैं। हाल ही में मध्यप्रदेश में दो सीटों पर उपचुनाव में हुए। एक सीट बुधनी और दूसरी विजयपुर। दोनों ही सीटों पर बीजेपी की जीत तकरीबन तय मानी जा रही थी। विजयपुर में जीत के लिए सारे समीकरण भी बिठा लिए गए थे। बुधनी तो जैसे बीजेपी मान चुकी थी कि जीती ही हुई है पर नतीजे हैरान करने वाले आए। विजयपुर सीट पर बीजेपी को हार मिली। बुधनी में बीजेपी जीती जरूर, लेकिन बस नाम के लिए। क्योंकि यहां से पहले शिवराज सिंह चौहान ऐतिहासिक मतों से जीत चुके हैं। बुधनी उनका गढ़ है। फिर भी मतगणना के पहले कुछ राउंड्स में बीजेपी को जीत के लाले पड़ गए थे। वो तो आखिर में आते-आते बुधनी की जीत संभव हो सकी।
विजयपुर में सिंधिया प्रचार करते तो नतीजे में उलटफेर होता
अब कहा ये जा रहा है कि विजयपुर में ज्योतिरादित्य सिंधिया चुनाव प्रचार के लिए नहीं आए। अगर वो आते तो शायद बात कुछ और बेहतर हो सकती थी। इस में कोई दो राय नहीं कि वाकई अगर सिंधिया यहां चुनाव प्रचार करते तो विजयपुर के नतीजे में बड़ी उलटफेर हो सकती थी। पर सिंधिया आए क्यों नहीं, जबकि उनका नाम तो पार्टी के स्टार प्रचारकों में शामिल है। महाराष्ट्र की कई सीटों पर उन्होंने गर्मजोशी के साथ चुनावी रैलियां और सभाएं की भीं, लेकिन विजयपुर का रुख भी नहीं क्यों। पर क्यों।
इस सवाल पर खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जवाब दिया। अपने ग्वालियर प्रवास के दौरान सिंधिया ने कहा कि इस हार पर चिंतन करना जरूरी है। ये चिंता की बात है। आगे उन्होंने कहा कि अगर उन्हें प्रचार के लिए कहा जाता तो वो जरूर जाते। अब कहानी में और बीजेपी के डिसिप्लीन में ट्विस्ट यहीं से नजर आता है। सिंधिया जैसे दिग्गज नेता और केंद्रीय मंत्री के बयान पर जवाब दिया है बीजेपी के प्रदेश कार्यालय मंत्री और भोपाल दक्षिण विधानसभा सीट से विधायक भगवान दास सबनानी ने। पहले आपको उनका जवाब बताता हूं फिर ट्विस्ट के बारे में बताता हूं। सबनानी ने कहा कि सीएम मोहन यादव, प्रदेशाक्षध्यक्ष वीडी शर्मा और प्रदेश संगठन मंत्री हितानंद शर्मा ने सिंधिया से प्रचार करने का आग्रह किया था, लेकिन उन्होंने दूसरी व्यस्तताओं के चलते प्रचार के लिए आने से मना कर दिया।
सिंधिया का समय अब बीजेपी में ढलान पर आ चुका है!
इसके बाद ये सवाल लाजमी है कि क्या सिंधिया का रुतबा, रसूख या अहमियत बीजेपी में अब पहले से कम हो गई है। क्योंकि ट्विस्ट ये है कि प्रदेश कार्यालय का एक नेता सिंधिया के बयान पर पार्टी की तरफ से बयान दे रहा है। सिंधिया जिस कद के नेता हैं, उसे देखते हुए ये बयान खुद वीडी शर्मा की तरफ से आता तो भी कोई चौंकाने वाली बात नहीं होती। ये भी तय है कि सबनानी खुद अपनी मर्जी से ये बयान नहीं दे सकते। या तो उन्हें ये बयान देने के निर्देश दिए गए होंगे या उन्होंने खुद अनुमति ली होगी। यानी सबनानी की तरफ से जो बयान आया है उसमें केंद्रीय नेतृत्व की मर्जी शामिल है। याद दिला दूं बीजेपी में केंद्रीय नेतृत्व का मतलब है मोदी, शाह और नड्डा की तिकड़ी। जिनकी इजाजत के बिना पार्टी लाइन को तोड़कर बयान देना बीजेपी की परंपरा नहीं रही। अगर ऐसा तो फिर सिंधिया को जवाब देने के लिए प्रदेश कार्यालय के नेता को क्यों चुना गया। इसमें भले ही मर्जी आलाकमान की रही हो, लेकिन ये पूरी तरह से जाहिर करता है कि बीजेपी की कलह अब खुलकर सामने आ रही है।
जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखंड में भी सिंधिया की पूछ परख कम ही रही
इसे कुछ यूं भी देखा जा रहा है कि सिंधिया का समय अब बीजेपी में ढलान पर आ चुका है। इसके संकेत विधानसभा चुनाव के समय से ही मिलने लगे थे। जब उनके समर्थकों के टिकट भी कटे। मंत्रिमंडल में भी उनकी संख्या कम हुई। इसके अलावा सिंधिया को चुनाव में उतना ही उपयोग किया गया जितना जरूरी थी। कुल मिलाकर जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में सिंधिया की पूछ परख कम ही रही। जिसके बाद ये अनुमान लगाए जा रहे हैं कि अब सिंधिया को बीजेपी में कोई वीआईपी ट्रीटमेंट नहीं दिया जा रहा है। अब उनका कद या मुकाम भी बीजेपी के दूसरे नेताओं की तरह ही होता चला जाएगा। तीसरा सवाल ये कि क्या सिंधिया पुरानी नाराजगी खुद नहीं भूले हैं। असल में राम निवास रावत हमेशा ही सिंधिया परिवार के करीबी माने गए हैं। कहा जाता है कि साल 2020 में भी सिंधिया को उम्मीद थी कि रावत उन्हीं के साथ बीजेपी में शामिल होंगे, लेकिन रावत ने सिंधिया और कांग्रेस के बीच कांग्रेस को चुना, इसके बाद से सिंधिया उनसे खफा थे।
क्या बीजेपी की अंदरूनी कलह को ढंकने वाला लिहाफ सरकने लगा है
सिंधिया के विजयपुर न जाने के जो भी मायने रहे हों, लेकिन सबनानी के बयान के बाद बीजेपी की डिसिप्लीन की कलई खुल ही गई है। इस तरह किसी भी बड़े नेता के बयान पर किसी भी नेता का बयान देना कांग्रेस की तो आम प्रेक्टिस रही है, लेकिन बीजेपी की ये परंपरा नहीं रही। जो आपसी मतभेदों के सतह पर आने का इशारा कर रही है। ये भी साफ दिख रहा है कि विधानसभा चुनाव जीतने के लिए बीजेपी ने अंदरूनी कलह को जिस तरह से लिहाफ में ढंका था भरी ठंड में वही लिहाफ सरकने लगा है।
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