News Strike : क्या बीजेपी बुधनी की जीती हुई बाजी को हारने जा रही है। जो सीट लंबे समय से बीजेपी का पास है, फिर भले ही विधानसभा चुनाव की बात हो या लोकसभा सीट की बात हो, वो सीट उस के हाथ से फिसलने वाली है। यही सवाल विजयपुर सीट को लेकर भी है। दो सीटों पर विधानसभा उपचुनाव है। दोनों सीट पर ही बीजेपी जीत के लिए कॉन्फिडेंट होना चाहिए थी, लेकिन पिछले कुछ दिनों से जो हालात हैं, वो ये बयां कर रहे हैं कि बीजेपी के अपने ही मुश्किल का सबब बन रहे हैं।
उपचुनाव में बीजेपी की जीत टेढ़ी खीर हो रही साबित
आप ये जरूर सोचेंगे कि ये सवाल आखिर क्यों उठ रहे हैं। क्योंकि हर प्वाइंट बीजेपी के पक्ष में ही नजर आ रहा है। अव्वल तो प्रदेश में बीजेपी की स्थाई सरकार है। वो भी पिछले बीस साल से। ऊपर से बात करें बुधनी विधानसभा सीट की तो यहां शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता सबसे ऊपर है। उसके बाद ये सीट बीजेपी का ऐसा गढ़ रही है, जहां वोटर्स ने कभी प्रत्याशी का चेहरा देख कर वोट नहीं किया। लोकसभा चुनाव की बात करें या फिर विधानसभा चुनाव की बात करें, दोनों में ही। इसलिए भी बीजेपी की जीत तय मानी जानी चाहिए और तीसरा कि जो प्रत्याशी उतरा है वो खुद जानामाना चेहरा है। ऐसे में बीजेपी को जीत पर भरोसा होना चाहिए। विजयपुर विधानसभा सीट के बारे में आप सब जानते ही हैं। इस सीट पर रामनिवास रावत विधायक थे। जो कुछ ही समय पहले कांग्रेस से बीजेपी में आए। यहां उन्हें मंत्री पद भी मिल गया है। विद्रोह का बिगुल फूंक रहे सीताराम आदिवासी को भी बीजेपी ने मना ही लिया है, लेकिन यहां भी बीजेपी के लिए जीत टेढ़ी खीर ही साबित हो रही है।
बीजेपी माइक्रो लेवल स्ट्रेटजी से जीत का दम भी भर रही
वैसे जो हालात बने हैं वो बीजेपी के लिए नए नहीं हैं। खासतौर से साल 2020 से बीजेपी ऐसे ही हालात कई सीटों पर देखती आ रही है और अपनी माइक्रो लेवल की स्ट्रेटजी के दम पर जीतती भी आ रही है। बुधनी में कमोबेश हालात वैसे ही नजर आ रहे हैं। इस सीट पर बीजेपी ने उतारा है रमाकांत भार्गव को। इस नाम का ऐलान होते ही सीट पर बहुत हंगामा हुआ। जिसकी कतई उम्मीद नहीं की जा सकती थी। असल में रमाकांत भार्गव शिवराज सिंह चौहान के खास आदमी है। इसलिए उन्हें टिकट दिलवाने में शिवराज सिंह चौहान का बड़ा रोल होगा ये कहा जा सकता है। जिसका विरोध खुद उन के बेटे ने भी नहीं किया। रमाकांत भार्गव को टिकट मिलने के बाद ही बुधनी सीट पर बखेड़ा खड़ा हो गया। ये बखेड़ा खड़ा करने वाला कोई और नहीं शिवराज सिंह चौहान का ही एक और खास व्यक्ति था। जिनका नाम हैं राजेंद्र सिंह राजपूत। राजपूत असल में शिवराज सिंह चौहान के लिए अपनी सीट छोड़ चुके हैं। 2003 में मध्यप्रदेश में बीजेपी सत्ता में काबिज हुई थी, लेकिन उमा भारती ने एक पुराने मामले के चलते सीट छोड़ दी और कुर्सी सौंपी बाबूलाल गौर को। उन के बाद ये कुर्सी ट्रांसफर हुई शिवराज सिंह चौहान को। चौहान उस समय लोकसभा में सांसद थे। उन्होंने सीएम पद की शपथ ले ली, लेकिन उन्हें ऐसी सीट की भी जरूरत थी जहां से जीत कर वो विधानसभा जा सकते थे। उस वक्त उनके गृह जिले की सीट यानी बुधनी के विधायक थे राजेंद्र सिंह राजपूत। राजपूत ने शिवराज सिंह चौहान के एक इशारे पर सीट छोड़ दी थी और उसके बाद से वो सीट शिवराज सिंह चौहान की ही हो गई।
शिवराज के नाम सीट खाली करने वाले सुरेंद्र राजपूत नाराज
अब जब शिवराज सिंह चौहान वापस लोकसभा चले गए हैं तो राजपूत को शायद ये उम्मीद रही होगी कि अब उन्हें वापस मौका दिया जाएगा और वो चुनाव लड़ सकेंगे, लेकिन जब नाम का ऐलान हुआ तो राजपूत की जगह भार्गव को टिकट दे दिया गया। बात यहीं से बिगड़ना शुरू हो गई। इस सीट पर राजपूत इतना खुलकर मैदान में आए कि अपनी नाराजगी जताने में पीछे नहीं रहे। उनके समर्थक उनसे दो कदम आगे निकले और बैठकें भी कर डाली। इसके बाद भार्गव के नाम पर विरोध भी जताया गया। खबरें यहां तक आने लगीं कि बीजेपी पर इस कदर दबाव बढ़ रहा है कि भार्गव का टिकट भी बदला जा सकता है। खुलकर विरोध में सक्रिय हुए राजपूत को मनाने के लिए पूर्व मंत्री रामपाल सिंह को भेजा गया। रामपाल ने कार्यकर्ताओं से मुलाकात की और समझाइश भी दी। इस बैठक के बाद खबरें तो यही बाहर आईं कि रामपाल की कार्यकर्ताओं को मनाने की कोशिश नाकाम रही और उन्हें खाली हाथ ही लौट कर आना पड़ा।
शिवराज सिंह चौहान की बुलाई बैठक से भी बनाई दूरी
इसके बाद एक बैठक शिवराज सिंह चौहान के घर पर ही बुलवाई गई। इस बैठक में विधानसभा सीट के तमाम कार्यकर्ताओं को बुलाया गया था। चौंकाने वाली बात ये थी कि खुद राजपूत इस बैठक में शिरकत करने नहीं पहुंचे। जिसके बाद ये साफ हो गया कि राजपूत और उनके समर्थक सभी आक्रमक तेवर अख्तियार कर चुके हैं। हालांकि, एक मीडिया हाउस को दिए इंटरव्यू में राजपूत ने ये जरूर कहा कि वो निर्दलीय चुनाव नहीं लड़ेंगे न ही पार्टी विरोधी काम करेंगे। इस उम्र में उनका सरताज सिंह बनने का कोई इरादा नहीं है। हो सकता है पार्टी से कहीं और से मिली कोई समझाइश ने असर किया हो, लेकिन अब भी हालात बहुत सामान्या या शांत नहीं कहे जा सकते। राजपूत भले ही शांत हो गए हों, लेकिन उनके समर्थक और कार्यकर्ता अगर अनमने रहे तो बीजेपी के लिए ये मुश्किल घड़ी हो सकती है।
विजयपुर सीट पर जातिगत समीकरण से होगा नुकसान
अब बात करते हैं विजयपुर की। यहां बीजेपी ने हालात काबू में करने के लिए काफी जतन किए और इस कोशिश में काफी हद तक कामयाब भी रही है। इस सीट पर बीजेपी नेता सीताराम आदिवासी बड़ी मुसीबत बन रहे थे। जिनकी कांग्रेस से चुनाव लड़ने की अटकलें भी लगने लगी थीं। पर उन्हें सहरिया जाति विकास प्राधिकरण का उपाध्यक्ष बनाकर बीजेपी ने मना लिया है। उनके मानने के बाद कांग्रेस मुकेश मल्होत्रा को अपना प्रत्याशी बनाया है और बीजेपी को फिर उसी संकट में फंसा दिया है। मल्होत्रा की भी आदिवासी वोट बैंक पर अच्छी पकड़ है और वो बीजेपी के नेता भी रह चुके हैं। ऐसे में जातिगत समीकरण इस सीट पर बीजेपी को खासा नुकसान पहुंचा सकते हैं, लेकिन हम फिर से वही बात कहते हैं। हालातों से निपटने में बीजेपी अब पुरानी धुरंधर हो चुकी है। 2020 के बड़े दलबदल के बाद से बीजेपी को कई सीटो पर कार्यकर्ताओं का विरोध झेलना पड़ता रहा है। कई दिग्गज नेता भी नाराज होते रहे हैं। तब तो सीटों की संख्या बहुत ज्यादा रही है। अब तो सिर्फ दो ही सीटें हैं जिन पर माइक्रोलेवल का मैनेजमेंट करना बीजेपी के लिए मुश्किल नहीं होगा।
हालांकि, ये कहना भी गलत नहीं है कि मध्यप्रदेश में अपने सबसे कमजोर दौर से गुजर रही कांग्रेस ने विजयपुर में अपने फैसले से चुनाव को दिलचस्प बना दिया है और बुधनी में ये काम राजपूत ने किया है। यानी दो सीटों का उपचुनाव भी तगड़ा और देखने लायक हो सकता है।
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