News Strike : उपचुनाव से पहले जिले की राजनीति, खुरई-बीना में बीजेपी नेता आमने-सामने, कौन मारेगा बाजी?

मध्यप्रदेश में अब नए जिले की चर्चा शुरू हुई है सागर संभाग से। बुंदेलखंड के इस महत्वपूर्ण इलाके में नया जिला कौन सा होगा। वो जिला खुरई होगा या फिर बीना होगा। इसको लेकर बीजेपी के ही नेता एक दूसरे के आमने-सामने हैं...

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Jitendra Shrivastava
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News Strike : जिलों की राजनीति प्रदेश में नई नहीं है। चुनाव से कुछ महीने पहले शिवराज सिंह चौहान ने नए जिले बनाने का दांव खेला था और काफी हद तक कामयाब भी रहे थे। अब एक बार फिर जिलों की राजनीति का दौर शुरू हो गया है। इसके तहत बुंदेलखंड के क्षेत्र को एक नया जिला मिलने की संभावना बढ़ गई है। ये मामला बस तब तक अटका है जब तक स्थानीय नेता एक नहीं हो जाते। बुंदलेखंड में नए जिले को लेकर बीजेपी के ही कुछ नेता नए जिले के गठन को लेकर आमने-सामने हैं। इसकी वाजिब वजह भी है। जिले की सियासत क्यों मायने रखती है और क्यों मचा है घमासान। आगे उसी पर चर्चा होगी।

जिले को लेकर बीजेपी के ही नेता एक दूसरे के सामने 

नए जिले की चर्चा शुरू हुई है सागर संभाग से। बुंदेलखंड के इस महत्वपूर्ण इलाके में नया जिला कौन सा होगा। वो जिला खुरई होगा या फिर बीना होगा। इसको लेकर बीजेपी के ही नेता एक दूसरे के आमने-सामने हैं। सीएम मोहन यादव बीना को जिला घोषित करेंगे या फिर खुरई को इसका फैसला कुछ दिन में संभव है। फिलहाल हालात ये है कि दोनों जगह के स्थानीय नेताओं के बीच घमासान की स्थिति बन चुकी है। इस रेस में बीना की जीत नजर आ रही थी कि खुर्रई में इसको लेकर आंदोलन तेज हो गया। ये तकरार इतनी बढ़ चुकी है कि हस्तक्षेप करने के लिए संगठन को भी आगे आना पड़ा। 

देखने वाली बात होगी कि खुरई जिला बनता है या बीना

सबसे पहले आपको बता दें कि बीना को जिला बनाने की मांग आज की नहीं है 1985 से ये मांग लगातार चली आ रही है। जैसे ही नए जिले की बात हुई बीना के नेताओं को मांग पूरी होने की उम्मीद नजर आने लगी, लेकिन खुरई से जिस तरह से आंदोलन की खबरें आ रही हैं। इस जिले के गठन में अड़ंगा लगता दिखाई दे रहा है। जिला बनने के लिए बीना का दावा इसलिए मजबूत दिख रहा है क्योंकि बीना की सागर से दूरी अस्सी किमी है। एरिया यानी कि क्षेत्रफल की बात करें तो तहसील काफी बड़ी भी है। रेलवे का भी बीना एक महत्वपूर्ण जंक्शन है। ये सब देखते हुए प्रशासनिक स्तर पर बीना को जिला बनाने का काम तेजी से जारी हो चुका है। हालांकि, खुरई के नेताओं के दावे भी कम नहीं हैं। खुरई के स्थानीय नेताओं का दावा हैं कि खुरई की प्रदेश की सबसे पुरानी तहसीलों में से एक तहसील है। कुछ बड़े सरकारी दफ्तार जैसे पीएचई, लोक निर्माण, फोरेस्ट के अनुविभागीय ऑफिस भी खुरई में ही हैं। एजुकेशन और मेडिकल की दृष्टि से देखें तो पॉलीटेक्निक कॉलेज, 100 बेड का हॉस्पिटल, एग्रीकल्चर कॉलेज भी खुरई में ही है। इस नाते नेता खुरई को जिला बनाने की मांग पर अड़े हैं। बीना भी इस मामले में ज्यादा हल्का नहीं है। बीना के पास प्रदेश की एकमात्र रिफाइनरी है जिसमें 50 हजार करोड़ का निवेश भी होने जा रहा है। यहां जेपी कंपनी का थर्मल पावर प्लांट, नेशनल हाईपावर टेस्टिंग लेबोरेटरी, पावर ग्रिड, रेलवे जंक्शन भी है।

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बीना वर्सेज खुरई नहीं बल्कि, भूपेंद्र सिंह वर्सेज निर्मला सप्रे भी है

सियासी तौर पर दमदारी की बात करें तो खुरई के पास भूपेंद्र सिंह जैसे बीजेपी के दिग्गज और दमदार नेता है, लेकिन बीना में बहुत जल्द चुनाव प्रस्तावित है। इस सीट को जीतने के लिए बीजेपी का जिले वाला दांव मास्टर स्ट्रोक साबित हो सकता है। क्योंकि बीना विधायक निर्मला सप्रे को भी हार का डर सता ही रहा है। इस डर के चलते वो अब तक अपनी पार्टी से इस्तीफा नहीं दे सकी हैं।
सीधा सा मतलब ये है कि सागर में बीना वर्सेज खुरई नहीं है बल्कि, भूपेंद्र सिंह वर्सेज निर्मला सप्रे भी है। जो अपने क्षेत्र कि जिला बनवा सकेगा वही दमदार साबित भी होगा। इनके समर्थक नेता अपने-अपने स्तर पर आंदोलन कर रहे हैं। खुरई में बंद का ऐलान कर दिया गया था। हालांकि, संगठन के दखल के बाद नेताओं के तेवर ठंडे पड़ गए। बीना में भी धरना प्रदर्शन लगातार जारी है। इन आंदोलनों की वजह से फिलहाल सत्ता और संगठन इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि पहले उपचुनाव पर ध्यान लगाया जाए। 

चुनावी राजनीति में नए जिलों के गठन के बहुत हैं मायने

खबर है कि पिछले दिनों सीएम और प्रदेशाध्यक्ष में कुछ चर्चा भी हुई, लेकिन वो सिर्फ उप चुनाव पर केंद्रित रही। जिलों के मामले को दोनों ने दरकिनार कर दिया। इसका ये मतलब नहीं है जिले के गठन को ही टाल दिया गया है। ये चर्चा जोरों पर है कि उपचुनाव से पहले ही बीना के नाम का ऐलान हो जाएगा। आपको बता दें कि चुनावी राजनीति में नए जिलों का गठन बहुत मायने रखता है। जिला बनने के बाद शासकीय और प्रशासनिक स्तर पर तो सहूलियत होना तय है। लोगों को भी आसानी हो जाती है। 

पहले ये समझिए कि किसी भी तहसील को जिला बनने पर क्या-क्या मिलता है...

  • जिला बनने पर प्रशासनिक कामकाज होना आसान हो जाता है।
  • हर जिले को अपना कलेक्टर अपना एसपी मिलता है। जिससे व्यवस्था बनी रहती है।
  • आम लोगों से जुड़े काम, मसलन मूल निवासी सर्टिफिकेट और इस तरह के दस्तावेजों से जुड़ा काम अपने ही जिले में हो जाता है।
  • प्रशासनिक कार्यालय बनते हैं।
  • नए पुलिस स्टेशन, अस्पताल और स्कूल का निर्माण होता है।
  • जिलों के लिए आवंटित होने वाला बजट मिलता है।
  • लोगों की जिला स्तर के अधिकारियों तक पहुंच आसान हो जाती है।

शिवराज सिंह चौहान ने सीएम रहते छह जिले बनाए 

जिस भी तहसील को जिला बनाया जाता है। वहां के लोगों में खुशी होती ही है इसका फायदा वोट के रूप में मिल भी जाता है। इसलिए जिले की सियासत चुनाव से पहले काफी मायने रखती है। जिलों की सियासत वैसे कई सालों से चली आ रही है, लेकिन मध्यप्रदेश में इसने जोर पकड़ा साल 2003 से। तब सीएम थीं उमा भारती। प्रदेश की बीजेपी अध्यक्ष रहते हुए उमा भारती ने तीन नए जिले बनाने का वादा किया था। सत्ता में आने के बाद उन्होंने वादा पूरा किया और बुरहानपुर, अशोकनगर और अनूपपुर को जिला बनाया। इसके बाद एमपी में जिलों की संख्या 48 तक हो गई। मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान इस से दो कदम आगे निकल गए। उनके कार्यकाल में छह जिले बने। साल 2008 में उन्होंने दो नए जिले बनाने की घोषणा की थी। इसके बाद सीधी से अलग होकर सिंगरौली नए जिले के रूप में अस्तित्व में आया। झाबुआ जिले को भी उन्होंने दो हिस्सों में बांटा और अलीराजपुर को नया जिला बना दिया गया। इसके बाद मध्यप्रदेश में 50 जिले हो गए थे। इसके बाद भी नए जिले बनाने का सिलसिला जारी रहा। शाजापुर को आगर मालवा से अलग कर आगर मालवा, टीकमगढ़ से अलग कर निवाड़ी और फिर मऊगंज और नागदा को जिला बनाने का ऐलान किया। 

इससे समझा जा सकता है कि चुनावी दौर में जिलों की राजनीति करना सिर्फ कागजी कार्रवाई करने जैसा नहीं है बल्कि, जनता पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। अब उपचुनाव को देखते हुए मध्यप्रदेश बीजेपी यही फायदा उठाने की कोशिश में है।

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