News Strike : बस चंद महीने और, मध्यप्रदेश की राजनीति उसके बाद अलग दिशा में जाती नजर आएगी। मुख्यमंत्री मोहन यादव के फैसले से कांग्रेस में खलबली मची है तो बेचैनी बीजेपी में भी है। ये बात जरूर है कि जनता का इससे फायदा ही फायदा और लॉन्ग टर्म में देखा जाए तो इसका फायदा बीजेपी को ही मिल सकता है। आपको बताते हैं क्या है सीएम मोहन यादव का ये नया फैसला। जो है तो प्रशासनिक, लेकिन इसका असर प्रदेश की राजनीति पर जरूर दिखाई देगा। ये भी बता दूं कि फैसले को एग्जीक्यूट करना भी बहुत आसान नहीं होगा। इसमें भी कई पेंच फंसने की संभावना पूरी है।
सीएम के फैसले की क्या है वजह
मुख्यमंत्री मोहन यादव ने एक बड़ा फैसला लिया है जिलों के परिसीमन का। सबसे पहले ये जान लीजिए कि सीएम ने जो फैसला लिया है उसकी वजह क्या है और फिलहाल एक नए जिले से शुरू होने वाला ये सिलसिला कितनी दूर तक जाएगा। सुना आपने सीएम ने क्या ऐलान किया है। उनका साफ मानना है कि जिलों के गठन में बहुत विसंगतियां हैं। कुछ जिले इतने बड़े हैं कि कुछ तहसीलों के लोगों को जिला मुख्यालय तक जाना बहुत मुश्किल हो जाता है। प्रदेश में नए जिले बनाने का मुद्दा तब उठा जब बीना को सागर से अलग कर नया जिला बनाने का प्रस्ताव रखा गया। उसके बाद सुरखी के लोगों ने आंदोलन छेड़ दिया। सुरखी के लोगों का मानना है कि बीना से ज्यादा हक सुरखी का है जो जिला बनना डिजर्व करता है। इसके बाद बीना और सुरखी दोनों जगह विरोध हुए और बीजेपी नेता ही आमने सामने आ गए। इन आंदोलनों की डिटेल जानना है तो आप देख सकते हैं न्यूज स्ट्राइक का पिछला एपिसोड।
गर्भकाल …
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बीना-सुरखी का जिला बनना फिलहाल तो टल ही गया
फिलहाल आगे बढ़ते हैं और बात करते हैं कि सीएम मोहन यादव ने इसका क्या हल निकाला। सीएम ने ऐलान कर दिया कि मध्यप्रदेश में एक परिसीमन आयोग बनेगा। जिसकी जिम्मेदारी संभालेंगे मध्यप्रदेश के तेज तर्रार आईएएस अफसर रहे मनोज श्रीवास्तव। जो अब रिटायर्ड हैं, लेकिन मध्यप्रदेश की नब्ज समझने का जबरदस्त अनुभव रखते हैं। ये आयोग करीब दो साल में अपनी पूरी रिपोर्ट सौंपेगा। तो ये माना जा सका है कि फिलहाल बीना या सुरखी जिला कौन सी तहसील बनेगी। इसका मुद्दा दो साल के लिए तो टल ही गया है, लेकिन ये जानने में लोगों की रुचि जरूर जाग गई है कि अचानक परिसीमन की बात क्यों आई। इस परिसीमन के क्या फायदे होंगे और इससे प्रदेश की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा।
बड़े जिलों का ही परिसीमन किया जाता है
परिसीमन को आसान भाषा में इस तरह समझिए कि ये एक प्रशासनिक व्यवस्था है। जिसका फायदा सीधे आम लोगों को मिलता है। हालांकि, इस व्यवस्था को बनाने के लिए सरकार के लेवल पर बहुत सी कवायद होती है और फेरबदल भी बहुत सारे होते हैं। जब जिले बहुत बड़े होते हैं तब जिलों का परिसीमन किया जाता है। क्योंकि एक आम प्रशासनिक ढांचे के तहत सारे सरकारी दफ्तर और मुख्यालय जिला मुख्यालय पर ही होते हैं। अगर कोई तहसील जिला मुख्यालय से काफी दूर होती है तो हर छोटे बड़े काम के लिए आम लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जिलों का साइज छोटा होने पर आम लोगों इस दिक्कत से बच जाते हैं।
सरकार और सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ता है
अब समझिए कि सरकार पर ज्यादा जिले होने से क्या असर पड़ता है। हर जिले के लिए बजट अलग होता है। एक उदाहरण से समझिए कि फिलहाल बीना, सागर जिले का हिस्सा है। तो जिले का बजट सागर के नाम से आवंटित होता है और बीना को तहसील के रूप में अपना शेयर मिलता है। वहीं अगर बीना तहसील से जिला बन जाता है तो उसे वही बजट मिलेगा जो हर जिले को मिलता है। इससे बीना का विकास भी संभव होगा, लेकिन इससे सरकार और सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ जाएगा। क्योंकि हर जिले में जिला मुख्यालय बनाया जाएगा। जहां दफ्तरों की जरूरत के हिसाब से अफसरों की तैनाती होगी। ये बात पुलिस व्यवस्था पर भी लागू होगी। इसके अलावा बजट का बोझ तो बढ़ना तय है ही।
असल में ये राजनीति क्रेडिट लेने की राजनीति है
बीजेपी अधिकांशतः छोटे प्रदेश और छोटे जिलों की पक्षधर रही है। हालांकि, प्रदेश और जिलों का पुनर्गठन एक सतत प्रक्रिया रही है। आजादी के बाद से देश को सही शेप में लाने के लिए राज्य और जिले बनाए बिगाड़े गए। बीजेपी के आने के मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश और आंध्रप्रदेश जैसे कई बड़े राज्य विभाजित हुए और इसी तर्ज पर जिलों का गठन भी हुआ। मध्यप्रदेश में भी बार-बार नए जिले बनाए गए। ये पूरी प्रक्रिया प्रशासनिक स्तर पर होती है। अब आपको बताता हैं कि जब सारा मामला प्रशासनिक है तो सियासी पारा क्यों चढ़ा हुआ है। असल में ये राजनीति क्रेडिट लेने की राजनीति है और जनता का भरोसा जीतने की राजनीति है। एक बात समझ लीजिए कि जिलों का नक्शा बदलने का असर विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र पर नहीं पड़ता है। अगर वो बदलना है तो विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र का परिसीमन किया जाता है।
मप्र में पांच नई लोकसभा सीटें बढ़ने की संभावना है
संभव है कि अगले पांच साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले परिसीमन की प्रक्रिया हो और देश की लोकसभा सीटों में इजाफा हो जाए। इसके तहत मप्र में भी पांच नई लोकसभा सीटें बढ़ने की संभावना है। इस परिसीमन का राजनीति पर सीधा असर पड़ेगा। ये प्रक्रिया जनगणना के बाद शुरू होगी, अगर हुई तो। फिलहाल जिलों के नक्शे बदलने पर वापस लौटता हूं। जिलों का परिसीमन होने से भौगोलिक नक्शा यानी वो नक्शा जो आप कॉपी में ड्रॉ करते हैं या किताबों में पढ़ते हैं वो नक्शा जरूर बदल जाएगा, लेकिन सियासी नक्शा वैसा का वैसा ही रहेगा। उसके बाद भी जिलों के परिसीमन के बारे में सुनकर कांग्रेस में उथल पुथल है और बीजेपी में शांति नहीं है। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण खुरई और बीना ही हैं। जहां दो दिग्गज नेता ही आमने-सामने आ गए थे। असल में जब नया जिला बनेगा तब उस जिले के नेता ये जरूर क्रेडिट लेंगे कि उनकी पहले से ही किसी तहसील को जिले में तब्दील किया गया है। क्रेडिट की राजनीति इससे जोर पकड़ेगी, लेकिन आयोग के लिए काम करने की राह बहुत आसान नहीं है।
आयोग के काम में राजनीतिक दखल से इंकार नहीं कर सकते
ये तय मानिए कि आयोग के मुखिया और कर्ताधर्ता प्रशासनिक लोग हैं, लेकिन राजनीतिक दखल से इंकार नहीं किया जा सकता है। सिर्फ इतना ही नहीं राजनीतिक सिफारिशें आएंगी भी और काफी हद तक उन्हें सुनकर उनका समाधान निकालने पर भी काम करना मंशा या मजबूरी जरूर बनेगा। ये भी तय है कि जिसकी सिफारिश मंजूर होगी वो नेता लोगों के बीच जाकर अपनी पीठ थपथाने से भी पीछे नहीं रहेगा। इसलिए बीजेपी का कुनबा बेचैन है और होड़ ये है कि कौन अपने इलाके का धाकड़ साबित होगा और कांग्रेस को इस पूरी प्रक्रिया में कुछ हासिल नहीं होगा। इसलिए कांग्रेस इस प्रक्रिया से तिलमिलाई हुई है।
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