News Strike : मध्यप्रदेश की राजनीति अब सत्ता के केंद्र भोपाल से नहीं चल रही। बल्कि, अब चाबी दिल्ली के हाथ में है। दिल्ली चाबी घुमाता है और राजनेता हरकत में आ जाते हैं। बात चाहें पक्ष की हो या विपक्ष की दोनों ही दल की कमान सीधे दिल्ली के हाथ में है। छोटे से फैसले से लेकर बड़े फैसले तक सारे फैसले दिल्ली से हो रहे हैं। इसमें फिलहाल हम उन फैसलों को नहीं गिनते जो पिछले दिनों सीएम मोहन यादव ने लिए। जिसमें कृष्ण तीर्थ, लाउडस्पीकर या खुले में मास बिक्री को शामिल कर सकते हैं, लेकिन जब बात शासकीय या प्रशासनिक जमावट की आती है तो कमान दिल्ली के हाथ में पहुंच जाती है। यही हाल कांग्रेस का भी है।
बड़े फैसले लेने की डायरेक्ट पावर किसी के पास नहीं
मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए 2023 में। प्रदेश में नई सरकार ने आकार लिया नवंबर 2023 तक। तब से अब तक सरकार बने आठ माह का वक्त बीत चुका है। कांग्रेस भी इस नए कार्यकाल का आठ माह का वक्त पूरा कर चुकी है। वो भी नए बदलावों के साथ। यहां पार्टी की कमान जीतू पटवारी के हाथ है और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं उमंग सिंगार। ताज्जुब की बात ये है कि जितने भी नए चेहरे प्रदेश में सत्ता और विपक्ष का फेस बने हैं किसी के हाथ में बड़े फैसले लेने की डायरेक्ट पावर नहीं है। बल्कि, हर फैसला सोच समझकर खुद आलाकमान कर रहे हैं।
कमलनाथ-दिग्विजय भी अपनी साख नहीं बचा सके
हम बात शुरू करते हैं कांग्रेस से। कांग्रेस से इसलिए क्योंकि कांग्रेस विपक्ष में बैठी है। लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने बेशक पूरे देश में अपना परफोर्मेंस बहुत बेहतर कर लिया है, लेकिन मध्यप्रदेश समेत कुछ राज्य ऐसे हैं जहां कांग्रेस का परफोर्मेंस बहुत पुअर रहा है। सारे राज्यों की जगह हम बात करते हैं मध्यप्रदेश की ही। जहां विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ हो गया। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे लीडर्स भी अपनी नाक और साख दोनों नहीं बचा सके। इसके बाद जिम्मेदारी सौंप दी गई नए चेहरों को। इन चेहरों से लंबे समय तक उम्मीद की जाती रही कि ये कुछ कमाल करके दिखाएंगे। नए हैं, जोश भी नया है और मौका भी बड़ा मिला है, लेकिन लोकसभा चुनाव होने तक कांग्रेस खामोश ही नजर आई। जिसके बाद लगा कि कांग्रेस में युवा शक्ति भी उदासीन है।
कांग्रेस के अचानक जंगी ऐलान का निर्देश भी दिल्ली से
अचानक कांग्रेस ने ऐलान किया कि वो प्रदेश में जंगी आंदोलन करने वाली है और एक साथ चार-चार आंदोलनों की रूपरेखा तय हो गई। असल में ये प्लानिंग प्रदेश कांग्रेस की नहीं थी। बल्कि, दिल्ली से कांग्रेस को इस रास्ते पर चलने के निर्देश जारी हुए हैं। प्रदेश कांग्रेस को अब एग्रेशन दिखाना है और किस मुद्दे पर एग्रेशन दिखाना है ये तय हो रहा है सीधे दिल्ली से। दिल्ली से ही कांग्रेस को ये निर्देश भी मिले हैं कि वो लोकल के लिए वोकल हो जाएं। यानी कि जो लोकल मुद्दे हैं उन्हें जोरशोर से उठाए और सरकार की नाक में दम करते रहें। इसके बाद से कांग्रेस कुछ नए कलेवर में दिख रही है और जागी हुई भी नजर आ रही है।
पीसीसी का गठन भी दिल्ली से ही होगा अप्रूव
अब तक कांग्रेस का एक इंतजार खत्म नहीं हुआ है। कांग्रेस में पीसीसी यानी कि प्रदेश कांग्रेस कमेटी का नए सिरे से गठन नहीं हुआ है, जबकि आठ माह बीत चुके हैं। इस बात के इल्जाम जीतू पटवारी पर लगते रहे हैं कि वो इतना समय गुजरने के बाद भी ठोस फैसले नहीं ले सकते हैं। इसके पीछे की वजह कुछ और है। पीसीसी गठन में देरी पर अक्सर दूसरे दलों के नेता ये निशाना साधते हैं कि पार्टी में अब भी गुटबाजी चरम पर है। पुराने दिग्गज नेता जीतू पटवारी की सुन नहीं रहे इसलिए पीसीसी का गठन नहीं हो रहा। जबकि हकीकत ये है कि पीसीसी का गठन भी दिल्ली से ही अप्रूव होकर आएगा। दिल्ली दरबार से जिस नाम पर मुहर लगेगी वही जीतू पटवारी के साथ पीसीसी की कमान संभालेंगे।
इधर... प्रदेश बीजेपी में न सिर्फ दिल्ली बल्कि, संघ का भी खूब दखल
बीजेपी में भी हाल कुछ जुदा नहीं है। सीएम मोहन यादव को बेशक फैसले लेने की छूट है, लेकिन अभी पूरी तरह से फ्रीहैंड नहीं मिला है। इसकी वजह शायद उनके कार्यकाल का सिर्फ आठ महीने ही होना है। राजनीतिक गलियारों में ये अटकलें लगने लगी हैं कि अपने फैसलों से सीएम मोहन यादव आलाकमान के दरबार में अपनी पहचान मजबूत करते जा रहे हैं। संभव है कि एक साल पूरा होते-होते उन्हें पूरी तरह से फ्रीहैंड मिल जाए, लेकिन तब तक न सिर्फ दिल्ली बल्कि, संघ का भी प्रदेश में खूब दखल माना जा रहा है। सरकार चलाने और परफोर्म करने की मजबूरी समझते हुए आलाकमान भी रवैये में थोड़ी नर्मी लेकर आए हैं। इसका एक उदाहरण मंत्रियों के स्टाफ की मंजूरी को माना जा सकता है। जिस वक्त सरकार नई नई बनी थी उस वक्त दिल्ली से ये स्पष्ट कर दिया गया था कि किसी भी मंत्री को उसका पुराना स्टाफ नहीं मिलेगा। उन अधिकारियों को भी मंत्रियों के बंगले पर तैनात नहीं किया जाएगा जो पहले किसी मंत्री के पर्सनल स्टाफ का हिस्सा रहे हों। काफी समय तक ये मामला अटका रहा, लेकिन बाद में कई मंत्रियों को उनके मन मुताबिक स्टाफ दिया गया।
जरूरी नियुक्तियां अब भी संघ और दिल्ली से ही
नगरीय निकाय में अविश्वास प्रस्ताव लाने के नियमों में बदलाव पर मंत्रियों की मर्जी के मुताबिक ही मुहर लगी। क्योंकि दिल्ली में बैठे नेताओं को भी ये समझ में आ गया कि मंत्रियों की मर्जी के बिना काम होंगे या उन पर अलग-अलग फैसले थोपे जाते रहेंगे तो उनका काम प्रभावित होगा। जिसका असर पूरी सरकार पर पड़ेगा और मोहन कैबिनेट का परफोर्मेंस भी खराब हो सकता है। इसके बाद आलाकमान के रवैये में नर्मी आई है। हालांकि, जरूरी नियुक्तियां अब भी संघ और दिल्ली से ही हो रही हैं। इसका उदाहरण है क्रिस्प के चेयरमैन पद पर श्रीकांत पाटिल की नियुक्ति और जनअभियान परिषद का जिम्मा मोहन नागर को सौंपना। ये दोनों ही चेहरे संघ की पसंद भी माने जाते हैं।
इसके बाद ये साफ दिख रहा है फिलहाल कांग्रेस हो या बीजेपी। दोनों में ही दिल्ली का दखल पूरी तरह से है। कांग्रेस में इसलिए क्योंकि अब दिल्ली से ही कांग्रेस की रणनीति तय हो रही है। बीजेपी के लिए एमपी सबसे सेफ स्टेट है, लेकिन यहां नेतृत्व नया है। शायद इसलिए आलाकमान ने यहां पकड़ ढीली नहीं की है। एक साल पूरा होते-होते और आने वाले चार राज्यों के विधानसभा चुनाव से फारिग होने बाद बीजेपी नेतृत्व यहां की समीक्षा कर सकते हैं और उसके बाद प्रदेश सरकार को पूरी तरह से फ्री हैंड मिलने की संभावना है।
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