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प्रवीण शर्मा. राजधानी में अब तक रहे आठ महापौरों में से पांच बार कांग्रेस के महापौर रहे। पहली निगम परिषद में तो तीन - तीन महापौर कांग्रेस की ओर से बने। मगर कोई भी महापौर पांच साल नगर सरकार चलाने के बाद भी पार्टी को विधानसभा चुनावों में जीत नहीं दिला सके। कांग्रेस ने पांच में से चार महापौरों को विधानसभा में मौका दिया, और चारों ही बुरी तरह से हारे। दूसरी तरफ बीजेपी के महापौर तो विधायक - मंत्री बने ही, पार्षद भी सांसद, विधायक और मंत्री बनकर प्रदेश की राजनीति के बड़े चेहरे बन चुके हैं।
पहले तो नगर निगम में महापौर का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रणाली से होता था। पार्षद ही महापौर चुनते थे। इस पैटर्न पर भोपाल के चार मेयर बने। पहली नगर निगम में कांग्रेस के डॉ. आरके बिसारिया, दीपचंद यादव और मधु गार्गव। इनके बाद दूसरी परिषद बीजेपी की चुनी गई और मेयर बने उमाशंकर गुप्ता। फिर मेयर भी प्रत्यक्ष प्रणाली से चुने जाने लगे। सीधे जनता द्वारा चुनकर कांग्रेस के विभा पटेल और सुनील सूद महापौर बने तो अगले दो परिषद में कृष्णा गौर व आलोक शर्मा भोपाल नगर निगम के महापौर चुने गए। महापौर पद पर कार्यकाय पूरा कर बीजेपी के उमाशंकर गुप्ता और कृष्णा गौर विधानसभा चुनाव जीतकर विधायक बन गए। मगर कांग्रेस के एक भी महापौर आजतक विधानसभा चुनाव नहीं जीत सके हैं। पांच में से चार महापौरों को कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में अपना प्रत्याशी बनाया, लेकिन केवल एक को छोड़ बाकी तीन तो लंबी - लंबी हार लेकर लौटे। एक पूर्व मेयर तो अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए और आज तक भोपाल में जमानत ​जब्त होने का रिकॉर्ड उनके नाम है।कांग्रेस के पार्षदों की बात की जाए तो केवल पीसी शर्मा ही विधानसभा चुनाव जीते हैं, वे दो चुनाव जीत चुके हैं। पूर्व सीएम कमलनाथ के मंत्रिमंडल में वे मंत्री भी बनाए गए थे।
कौन, कब, कहां से हारा
डॉ. आरके बिसारिया : कांग्रेस ने भोपाल नगर निगम के पहले मेयर डॉ.आरके बिसारिया (Dr RK Bisaria) को 1993 के चुनाव में राजधानी की गोविंदपुरा विधानसभा (Govindpura Assembly) सीट से अपना प्रत्याशी बनाया था। भोपाल में दंगों के बाद तत्कालीन सीएम सुंदरलाल पटवा की सरकार गिराकर केंद्र द्वारा लगाए गए छह माह के राष्ट्रपति शासन ( President Rule) के बाद चुनाव होने से कांग्रेस फुल फार्म में थी और जनता में खासा माहौल कांग्रेस को लेकर था। डॉ. बिसारिया को चुनौती देना थी बाबूलाल गौर को, लेकिन जब रिजल्ट आया तो स्व. गौर के मुकाबले डॉ. बिसारिया आधे वोट ही ले सके। जबकि वे भेल क्षेत्र (BHEL Area) में ही नाम कमाकर मेयर बने थे। पूर्व सीएम गौर ने डॉ. बिसारिया को इस चुनाव में 59 हजार 547 वोटों से हरा दिया था। यह भी उस चुनाव में सबसे बड़ी हार में शामिल थी। हालांकि इस चुनाव में सरकार कांग्रेस की बनी थी। डॉ. बिसारिया को वोट मिले केवल 30 हजार 253 और गौर साहब के खाते में थे 80 हजार 820 वोट।
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दीपचंद यादव : यादव भोपाल नगर निगम के दूसरे महापौर (Second mayor of Bhopal) बने थे। इस पद पर उन्होंने एक - एक साल के दो कार्यकाल पूरे किए। पार्टी ने 2008 में अपनी सरकार वापस लेने के लिए विशेष रणनीति बनाते हुए यादव को राजधानी की दक्षिण पश्चिम सीट से उमाशंकर गुप्ता (Umashankar Gupta) के समाने उतारा था। पार्टी नेतृत्व ने यादव से उम्मीदें भी जमकर पाल ली थीं। मगर जब रिजल्ट आया तो अगले - पिछले सारे चुनावों का रिकॉर्ड कांग्रेस के साथ जुड़ गया, जो आजतक कायम है। असल में इस चुनाव में यादव की जमानत जब्त (Security Deposited) हो गई थी। आज तक भोपाल में कांग्रेस के किसी भी प्रत्याशी की जमानत जब्त नहीं हुई है। यादव को मात्र 13 हजार 409 वोट मिले थे और वे तीसरे नंबर पर रहे थे। उमाशंकर गुप्ता को 48 हजार 707 वोट मिले थे। दूसरे नंबर पर बसपा (BSP) के संजीव सक्सेना रहे थे।
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विभा पटेल : नियमों में बदलाव के बाद पहली बार प्रत्यक्ष प्रणाली से हुए चुनाव लड़कर महापौर बनीं विभा पटेल (Vibha Patel) का कार्यकाल शहर के लिहाज से काफी अच्छा माना जाता है। वर्ष 2003 में प्रदेश में सत्ता पलट के बाद तत्कालीन भाजपा सरकार (BJP Government) ने कार्यकाल खत्म होने के छह माह पहले ही परिषद भंग कर दी थी। कांग्रेस ने 2008 के चुनाव में विभा पटेल को गोविंदपुरा विधानसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार (Candidate) बनाया। सामने थे वही बाबूलाल गौर जिन्होंने पहले मेयर को 59 हजार वोटों से हराया था। पूर्व मेयर पटेल को लेकर भी कांग्रेस (congress) बड़ी आशांवित ( Confident) थी कि अजेय गौर को पटकनी मिल जाएगी, लेकिन जब रिजल्ट आया तो वही ढाक के तीन पात। भोपाल की सातों सीटों पर इस चुनाव में सबसे बड़ी हार पटेल के साथ जुड़ गई, वे 33 ​हजार 754 वोटों से हारीं। उन्हें 29012 वोट मिले। जबकि पूर्व सीएम गौर को मिले 62 हजार 766 वोट।
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सुनील सूद : सुनील सूद ( Sunil Sood) 2004 में भोपाल के मेयर चुने गए थे। महापौर रहते हुए ही उन्हें 2008 के चुनाव में नरेला विधानसभा (Narela Assembly) सीट से कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया। उम्मीद थी कि मेयर पद (Seating Mayor) का लाभ मिलेगा और काम के दम पर वे सीट निकालने में सफल होंगे। नरेला विधानसभा सीट का भी यह पहला चुनाव था। मगर मेयर का पद और रुतबा कोई काम नहीं आया। भाजपा के पार्षद रहे विश्वास सारंग (Vishwas Sarang) ने महापौर सूद को कड़ी टक्कर देते हुए इस सीट पर अपना नाम लिख दिया। सूद मात्र 3273 मतों से हार गए। इसका फायदा उन्हें यह मिला कि अगले चुनाव मे पार्टी ने उन्हें फिर अपना प्रत्याशी बनाया। मगर 2013 के चुनाव में सूद बीजेपी प्रत्याशी सारंग के आसपास भी नहीं रहे और 26 हजार 970 वोटों से हार गए।
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बीजेपी के पार्षद बन चुके हैं सांसद, विधायक और मेयर
बीजेपी के महापौरों को ट्रेक रिकॉर्ड इस मामले में काफी अच्छा है। बीजेपी के तीन मेयर अभी तक रहे हैं। इनमें से दो उमाशंकर गुप्ता और कृष्णा गौर विधायक बन चुके हैं। गुप्ता तीन बार चुनाव जीते और प्रदेश सरकार में गृह, राजस्व, उच्च शिक्षा सहित कई विभागों के मंत्री रहे, हालांकि पिछला चुनाव वे कांग्रेस के पीसी शर्मा से हार गए। 2009 - 10 में मेयर चुनीं गईं कृष्णा गौर को बीजेपी ने 2018 के चुनाव में गोविंदपुरा विधानसभा क्षेत्र से अपना प्रत्याशी बनाया। वे चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंची और वर्तमान में विधायक हैं। राजनीति में लंबी छलांग मारने वालों में भोपाल के बीजेपी पार्षदों में कई नाम हैं। की पहली नगर निगम में जो पार्षद चुनकर पहुंचे थे,उनमें से रमेश शर्मा गुट्टू भैया सबसे पहले 1993 में ही उत्तर सीट से जीतकर विधायक बन गए थे। इनके अलावा भोपाल नगर ​निगम में पार्षद रहे आलोक संजर (Alok Sanjar) को भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में अपना प्रत्याशी बनाया और वे जीतकर संसद (Parliament) पहुंचे। इनके अलावा विष्णु खत्री, रामेश्वर शर्मा, विश्वास सारंग वर्तमान में विधायक हैं। सारंग तो पिछले दो कार्यकाल से मंत्री भी हैं। पार्षद रहे सुरेंद्र नाथ सिंह भी 2013 के चुनाव मध्य विधानसभा सीट से विधायक रह चुके है।
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