अलग विंध्य प्रदेश समेत ये 5 मुद्दे विधानसभा चुनाव में सरकार के लिए बनेंगे चुनौती

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Aashish Vishwakarma
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अलग विंध्य प्रदेश समेत ये 5 मुद्दे विधानसभा चुनाव में सरकार के लिए बनेंगे चुनौती

भोपाल. पांच राज्यों के चुनाव खत्म हो चुके हैं, सभी को रिजल्ट का इंतजार है। इन चुनावों के बाद तीन बड़े राज्य मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ पर भी सियासी दलों का फोकस रहेगा। एमपी में तो चुनावी बिसात की तैयारियां शुरू हो चुकी है। मंगलवार यानी 7 मार्च को मप्र के दौरे पर पहुंचे बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा की पदाधिकारियों के साथ बैठक इसी तरफ इशारा करती है। लेकिन इन चुनावों में बीजेपी के सामने पांच बड़े मुद्दे रहेंगे जो मुश्किलें पैदा कर सकते हैं। फिर बात चाहे आशा कार्यकर्ताओं की हो या फिर संविदा शिक्षकों को नियमित करने की। ये सब मुद्दे सरकार के लिए जी का जंजाल बन सकते हैं। आइए सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं कि ये मुद्दे कैसे सरकार की नाक में दम कर सकते हैं।





विंध्य प्रदेश की मांग: अलग विंध्य प्रदेश की मांग की, ये ऐसा मुद्दा है जिसे लेकर बीजेपी के ही विधायक नारायण त्रिपाठी मोर्चा खोले हुए है। बीजेपी और कांग्रेस नेता खुलकर कुछ नहीं कहते लेकिन अंदरूनी तौर पर वो भी चाहते हैं कि अलग विंध्य प्रदेश बनाया जाए। विंध्य प्रदेश बनाए जाने की मांग को लेकर बीजेपी के विधायक नारायण त्रिपाठी के तेवर बताते है कि वो इस मुद्दे पर अपनी ही पार्टी के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक चुके हैं। रविवार को विंध्य पुननिर्माण मंच के संभागीय सम्मेलन के दौरान मंच से नारायण त्रिपाठी ने कहा कि छह महीने में स्थितियां नहीं सुधरी तो थर्ड फ्रंट का गठन करेंगे। इसकी तैयारियां पूरी कर ली गई है। 7 जिले की 30 सीटों पर ये थर्ड फ्रंट चुनाव लड़ेगा। सवाल ये पूछा जा रहा है कि क्या नारायण त्रिपाठी की ये चेतावनी बीजेपी के लिए मुसीबत बनेगी। दरअसल विंध्य बीजेपी का गढ़ कहा जाता है। 2018 के चुनाव की बात करें तो विंध्य ने ही बीजेपी की लाज बचाई है। यहां की 30 में से बीजेपी ने 24 सीटें जीती है और कांग्रेस केवल 6 सीट पर सिमट कर रह गई थी। यदि कांग्रेस को विंध्य से अपेक्षित कामयाबी मिलती तो शायद एमपी में सत्ता परिवर्तन मुश्किल था। बहरहाल ये मसला आने वाले चुनाव में एक बड़ा मुद्दा बनकर उभर सकता है और बीजेपी के सामने मुश्किलें खड़ी कर सकता है। 





ओबीसी आरक्षण: मप्र में पंचायत चुनाव निरस्त हो गए। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह ओबीसी आरक्षण रही। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिपल लेयर टेस्ट के आदेश दिए। विपक्ष का तो आरोप है कि सरकार की अभी तक कोई तैयारी नहीं है। हालांकि पिछले सत्र में जब ओबीसी आरक्षण का मुद्दा गूंजा था तब सरकार ने कहा था कि ओबीसी का अहित नहीं होने दिया जाएगा। ओबीसी आरक्षण की वजह से कई विभागों की सरकारी नियुक्तियों का मामला भी अटका हुआ है। सारे मामलों को कोर्ट में चुनौती दी गई है। दरअसल कमलनाथ सरकार ने ओबीसी आरक्षण 14 फीसदी से बढ़ाकर 27 फीसदी लागू किया था और 8 मार्च 2019 से ये लागू हुआ। लेकिन 9 सितंबर 2019 को हाईकोर्ट ने 27 फीसदी आरक्षण पर रोक लगा दी। आरक्षण की सीमा किसी भी कीमत पर 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए लेकिन SC के लिए 20 फीसदी, एसटी के लिए 16 फीसदी और ओबीसी के लिए 27 फीसदी और ईडब्लूएस के लिए 10 फीसदी आरक्षण मिलाकर ये सीमा 73 फीसदी हो रही है। इस वजह से सरकार इस मामले में बुरी तरह फंसी हुई है। 





चयनित शिक्षकों का मुद्दा: मध्यप्रदेश में चयनित शिक्षकों की नियुक्तियों का मामला बेहद पेचीदा हो गया है। 2018 में शिवराज सरकार ने ही करीब 30 हजार पदों के लिए भर्ती निकाली थी। 2018 के बाद सरकार बदल गई। 2019 में चयनित शिक्षकों की भर्ती परीक्षा हुई उसी साल डॉक्यूमेंट वैरिफिकेशन होना था। लेकिन डेढ़ साल तक वैरिफिकेशन नहीं हुआ। इसके पीछे कोरोना वजह बताई जाती है। मार्च 2021 में वैरिफिकेशन का काम शुरू किया गया लेकिन फिर कोरोना की दूसरी लहर आ गई। जुलाई 2021 में डाक्यूमेंट वैरिफिकेशन का काम पूरा किया गया। चयनित शिक्षकों की भर्ती दो विभागों में की जाना थी। स्कूल शिक्षा विभाग में 20 हजार 500 पद थे और जनजातीय विभाग में करीब साढ़े नौ हजार पद। 6 अक्टूबर 2021 को पहली सूची निकाली गई लेकिन स्कूल शिक्षा विभाग में करीब 12 हजार की नियुक्तियां की गई। इस तरह से आठ हजार पद बाकी है और जनजातीय विभाग में 4 हजार पद नहीं भरे गए है। अब इन पदों पर जल्द से जल्द भर्ती के लिए बचे हुए शिक्षक आंदोलन पर आमादा है। सरकार की तरफ से कोई ठोस जवाब नहीं मिलता। इसलिए अब सब्र का बांध टूटता जा रहा है। बहरहाल चुनाव से पहले यदि सरकार ने इस मुद्दे को हल नहीं किया तो ये मुद्दा भी मुश्किलें पैदा कर सकता है। 





खाली खजाना: मप्र सरकार एक दिन बाद यानी 9 मार्च को अपना बजट पेश करने वाली है। ढाई लाख करोड़ के बजट का अनुमान है लेकिन सरकार पर कर्ज भी इतना ही है। इस वित्तीय वर्ष में मप्र पर कर्ज का बोझ बढ़कर 2.52 लाख करोड़ से भी ऊपर जा पहुंचेगा, जबकि 2021-22 का कुल बजट ही 2.41 करोड़ था। इसमें करीब 50 हजार करोड़ का राजकोषीय घाटा दिखाया गया था। इस वित्तीय वर्ष में सरकार अब तक कुल 20 हजार करोड़ का कर्ज ले चुकी है। 9 मार्च को 2 हजार करोड़ का नया कर्ज लेने के बाद ये कर्ज 22 हजार करोड़ हो जाएगा। इसमें से एक लाख 54 हजार करोड़ का कर्ज खुले बाजार का है और ब्याज की रकम के तौर पर सरकार को भारी राशि चुकाना पड़ रही है। ऐसे में सभी के जहन में ये सवाल है कि कर्ज पर निर्भर मप्र कैसे आत्मनिर्भर एमपी बनेगा और इसी बीच सरकार को चुनाव की तैयारियां करना है। जाहिर है कि सरकार लोकलुभावन घोषणाएं करेंगी। इसके लिए पैसों की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में पैसा आएगा कहां से ये सबसे बड़ा सवाल है। 





पुरानी पेंशन बहाली की मांग: पुरानी पेंशन (old pension scheme) की बहाली का मु्द्दा शिवराज सरकार के लिए टेंशन बनता जा रहा है। 13 फरवरी को मध्यप्रदेश के कर्मचारी संगठन पेंशन की बहाली को लेकर बड़ा आंदोलन करेंगे। इस आंदोलन में पूरे प्रदेश के कर्मचारी शामिल होने की उम्मीद जताई जा रही है। वहीं, कांग्रेस भी इस मुद्दे पर सरकार को घेरने की प्लानिंग कर रही है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी राजस्थान के तर्ज पर एमपी में भी यह व्यवस्था लागू करने की मांग की है। 



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