पंडित नेहरू विदेशी को बनाना चाहते थे आर्मी चीफ, एक सवाल से बन गए करियप्पा

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Shivasheesh Tiwari
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पंडित नेहरू विदेशी को बनाना चाहते थे आर्मी चीफ, एक सवाल से बन गए करियप्पा

अतुल तिवारी, Bhopal. भारत में दो ही व्यक्तियों को फील्ड मार्शल बनाया गया है। इसे फाइव स्टार रैंक कहा जाता है। फील्ड मार्शल अदम्य साहस और वीरता के लिए दिया जाने वाला सम्मान है। 1973 में पहले फील्ड मार्शल बने सैम मानेकशा, 1986 में दूसरे फील्ड मार्शल बने जनरल केएम करियप्पा। आज करियप्पा सर की ही कहानी सुना रहा हूं। कल यानी 15 मई को उनका निधन हुआ था। आज की कहानी है- नेहरू चाहते थे विदेशी आर्मी चीफ, बन गए करियप्पा।





केएम करियप्पा यानी कोडंडेरा मडप्पा करियप्पा। वे भारत के पहले चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे। इनका निकनेम किपर था। उन्होंने करीब 30 साल की सर्विस की। 15 जनवरी 1949 में उन्हें सेना प्रमुख नियुक्त किया गया था और इसके बाद से ही 15 जनवरी को ‘सेना दिवस’ यानी आर्मी डे के रूप में मनाया जाता है। करियप्पा राजपूत रेजिमेन्ट से थे। वो 1953 में रिटायर हो गये, फिर भी किसी न किसी रूप में भारतीय सेना को सहयोग देते रहे। करियप्पा का 28 जनवरी 1899 को कर्नाटक के कोडागू, ब्रिटिश टाइम में वो कुर्ग था, में उनका जन्म हुआ था और 15 मई 1993 को उन्होंने बेंगलुरु में अंतिम सांस ली।





करिअप्पा ने आर्मी ट्रेनिंग इंदौर में ही ली थी। 1934 से तत्कालीन ब्रिटिश इंडियन आर्मी के युवा अफसरों की ट्रेनिंग इंदौर के 'ट्रेनिंग स्कूल ऑफ इंडियन आर्मी कैडेट' में होती थी। यह ट्रेनिंग स्कूल इंदौर के मशहूर डेली कॉलेज कैम्पस में शुरू हुआ था। यहां से ट्रेनिंग लेने वाले अफसरों में करिअप्पा भी थे। इंदौर में ट्रेनिंग लेने के बाद 1919 में करिअप्पा सेना में कमीशंड हुए थे। 





करिअप्पा ने 1949 में भारतीय सेना के तत्कालीन कमांडर इन चीफ सर फ्रांसिस बुचर की जगह सेना के कमांडर इन चीफ का पद संभाला था। इससे पहले 1942 में वह पहले भारतीय बने, जिन्हें एक यूनिट का कमांडर बनाया गया। इसके बाद उन्होंने सेकंड वर्ल्ड वॉर में भी हिस्सा लिया और 1947 की भारत-पाक जंग में भारतीय सेना की अगुआई की। उन्हीं के नेतृत्व में सेना ने जोजिला, द्रास और करगिल जैसी रणनीतिक तौर पर अहम चोटियों पर जीत हासिल की। 





अब बात वो कि करियप्पा कैसे बने इंडियन आर्मी के पहले इंडियन चीफ। आज़ादी के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक मीटिंग ली, जिसमें सारे नेता और आर्मी ऑफिसर मौजूद थे। मीटिंग इस बात के लिए थी कि आर्मी चीफ किसे बनाया जाए। नेहरू ने कहा कि मैं समझता हूं कि हमें किसी अंग्रेज़ को इंडियन आर्मी का चीफ बनाना चाहिए, क्योंकि हमारे पास सेना को लीड करने का एक्सपीरियंस नहीं है। सभी ने नेहरू का समर्थन किया, क्योंकि किसी में भी नेहरू जी का विरोध करने की हिम्मत नहीं थी। लेकिन अचानक एक आवाज आई, कि ‘मैं कुछ कहना चाहता हूं।’ नेहरू ने कहा कि आप जो कहना चाहते हैं, कहें।





उस व्यक्ति ने बेलाग तरीके से कहा- ‘हमारे पास तो देश को भी लीड करने का भी एक्सपीरियंस नहीं है तो क्यों ना हम किसी ब्रिटिश को भारत का प्रधानमंत्री बना दें।’ इस बात से मीटिंग में सन्नाटा सा पसर गया। नेहरू ने पूछा कि क्या आप इंडियन आर्मी के पहले जनरल बनने को तैयार हैं? उस इंसान को एक बहुत अच्छा मौका मिला था कि वो चीफ बनते, लेकिन उन्होंने कहा कि सर हमारे बीच में एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे ये जिम्मेदारी दी जा सकती है। उनका नाम है लेफ्टिनेंट जनरल करियप्पा। वो आर्मी ऑफिसर, जिसने आवाज़ उठायी थी, उनका नाम था लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौड़।





बात 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की है। करियप्पा रिटायर हो चुके थे। कर्नाटक के अपने गृहनगर मेरकारा में रह रहे थे। उनके बेटे केसी करियप्पा यानी नंदा करियप्पा भारतीय वायुसेना में फ्लाइट लेफ्टिनेंट थे और युद्ध में लड़ रहे थे। पाकिस्तानी सीमा में प्रवेश करने पर नंदा करियप्पा के विमान पर हमला हो गया। विमान से कूदने पर नंदा को युद्ध बंदी के रूप में पाक सेना ने कब्जे में ले लिया। रेडियो पाकिस्तान ने तुरंत ऐलान किया कि नंदा पाक सेना के कब्जे में हैं और पूरी तरह सुरक्षित हैं। तब पाकिस्तान पूर्व सेना प्रमुख जनरल अयूब खान पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे। देश के बंटवारे से पहले अयूब खान जनरल करियप्पा के अंडर काम कर चुके थे।





जब अयूब को पता चला कि करियप्पा का बेटा युद्धबंदी बना लिया गया है, तो उन्होंने तुरंत फोन लगाया और बेटे को रिहा करने की बात कही। अयूब ने जनरल करियप्पा से बात की और कहा कि वो चाहें तो उनके बेटे को छोड़ा जा सकता है। जनरल करियप्पा ने कहा कि नंदू मेरा नहीं, देश का बेटा है। उसके साथ वही बर्ताव कीजिए जो बाकी युद्धबंदियों के साथ किया जा रहा है। अगर उसे छोड़ना चाहते हैं तो सभी युद्धबंदियों को छोड़िए। बाद में अयूब की पत्नी और उनका बड़ा बेटा अख़्तर अयूब नंदा से मिलने भी गए थे। एयर मार्शल नंदा करियप्पा याद करते हैं, “वो मेरे लिए स्टेट एक्सप्रेस सिगरेट का एक कार्टन और वुडहाउस का एक उपन्यास लेकर आए थे।”





जनरल करियप्पा की हिंदी काफी कमज़ोर थी। लोग इन्हें ब्राउन साहिब भी कहते थे। देश आज़ाद होने के बाद उन्होंने आर्मी ट्रूप्स को संबोधित किया। वो कहना चाहते थे- Country is free and so are all of us, लेकिन इसको उन्होंने हिन्दी में बोला, इस वक्त आप मुफ्त हैं, हम मुफ्त हैं, मुल्क मुफ्त हैं, सब कुछ मुफ्त है। एक और मौके पर फिर से सैनिकों की पत्नियों की गैदरिंग को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ”माताओं और बहनों, हम चाहता है कि आप दो बच्चे पैदा करो। एक अपने लिए और एक हमारे लिए”। जबकि उनके कहने का मतलब था कि दो बच्चे पैदा करो। एक जो घर पर रह सके और एक जो आर्मी ज्वाइन करे।





करियप्पा जब सिकंदराबाद में थे, तब उनकी शादी मुथू माचिया से हुई. उस समय करियप्पा कैप्टन थे. उनकी उम्र उस समय करीब 37 साल थी, और उनकी पत्नी की उम्र लगभग आधी थी। मुथू भी एक अफसर की बेटी थीं, हालांकि बाद में दोनों का डिवोर्स हो गया।





करियप्पा उसूलपसंद अफसर थे। अपने रिटायरमेंट के पहले जनरल करियप्पा ने राजपूत रेजीमेंटल सेंटर की विज़िट की। उनके साथ उनके दोनों बच्चे भी थे, लेकिन उन्होंने बच्चों को एक प्राइवेट कार में कमांडेट के घर पर भेज दिया। कारण था कि ऑफिसर्स मेस में बच्चों को जाने की परमिशन नहीं थी और करियप्पा नियम को तोड़ना नहीं चाहते थे। बड़ी बात ये है कि उस वक्त करियप्पा आर्मी चीफ थे।





नंदा करियप्पा ने अपनी किताब में लिखा है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू को इस बात का डर था कि मेरे पिता उनका तख्तापलट कर सकते हैं, इसलिए नेहरू ने 1953 में मेरे पिता को ऑस्ट्रेलिया का हाईकमिश्नर बनाकर भेज दिया। हालांकि जनरल करियप्पा के नेहरू और इंदिरा के साथ काफी अच्छे संबंध थे, फिर भी नेहरू के मन में एक भय था। इसका एक बड़ा कारण था कि पापा आर्मी के साथ-साथ पॉलिटिकली भी काफी पॉपुलर थे। बस यही थी आज की कहानी....



 



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