हरीश दिवेकर. सावन जाने वाला है, कहां तो झड़ी की दरकार थी, लेकिन गर्मी और उमस के चलते त्राहि-त्राहि है। थोड़े-बहुत बदरा बरस जाते हैं और फिर सूरज देवता प्रकट हो जाते हैं। मौसम है साहब, इस पर कहां किसी का बस चलता है। बस तो सरकारों पर भी किसी का नहीं चलता। इस समय ईडी का जिन्न कोहराम मचाए है। पहले राहुल और सोनिया गांधी से पूछताछ हुई, फिर एजेंसी कांग्रेस दफ्तर तक पहुंच गई। बात जामे से बाहर हुई तो कांग्रेसी भी कहां मानने वाले थे। राहुल और प्रियंका महंगाई की आड़ में सड़कों पर उतर आए। सरकार के खिलाफ प्रदर्शन सरकार को कहां रास आते हैं, सो उठा लिए गए। राहुल तो एक वीडियो में ये भी कह गए कि मैं मोदी से नहीं डरता। वहीं, राष्ट्रपति के बाद देश को नया उपराष्ट्रपति भी मिल गया। जगदीप धनखड़ भले ही बयानों के चलते विवादों में रहे हों, लेकिन वे कमाल के व्यक्ति हैं। आईआईटीयन हैं, सिविल सर्विस में चुने गए, पर वकालत चुनी थी। इधर, मध्य प्रदेश में 6 साल बाद प्रमोशन का रास्ता साफ होता दिख रहा है। इससे 5 लाख कर्मचारियों को फायदा मिलता दिख रहा है। प्रदेश में नगर सरकार कायम हो गई है। खबरें कई पकीं, कुछ की खुशबू बिखरी, आप तो सीधे अंदर चले आइए।
इधर जाएं कि उधर जाएं...
ग्वालियर-चंबल संभाग में नगर और गांव की सरकार के चुनाव के बाद बीजेपी के दो बड़े नेताओं नरेंद्र सिंह तोमर उर्फ मुन्ना भैया और ज्योतिरादित्य सिंधिया उर्फ महाराज की आंखों के आगे अंधेरा छा गया है। सूझ नहीं रहा है इधर जाएं कि..उधर जाएं। नगर सरकार के चुनाव में जिस तरह दोनों के क्षेत्र में पार्टी का दम निकला उसके बाद इन्हें समझ आ गया है कि मौसम अनुकूल नहीं है। राजनीतिक पतझड़ से बचने के लिए ये नई हरियाली की तलाश में हैं। दोनों की तासीर है, पुरानी सीट पर जनता के गुस्से से बचने के लिए जनता (सीट) ही बदल लेते हैं। मुरैना वाले मुन्ना भैया की नजर ग्वालियर पर आकर टिक गई है, जबकि महाराज तो ग्वालियर को अपने घर की सीट मानते ही हैं। वैसे भी वे गुना के जले हैं, मरहम ग्वालियर में ही ढूंढेंगे। इन दोनों के बीच में फंस गए हैं संघप्रिय विवेक शेजवलकर। ग्वालियर उनकी पुश्तैनी सीट है। पिताश्री से लेकर वे खुद तक यहां सांसद, मेयर सब रह चुके हैं। उन्हें भी समझ नहीं आ रहा है कि मुन्ना भैया महाराज की लड़ाई में वे किधर जाएं। बीजेपी के गढ़ में त्रिदेव रास्ता भूल गए हैं। राजनीति की यात्रा बहुत लंबी है भाई..। कोई रहबर हो तो राह दिखाओ।
तू मुझे कुबूल मैं तुझे कुबूल...
मालवा के एक मंत्री जी याद हैं आपको...अरे, वो ही जिनके पीए ने काम करने के एवज में संघ के किसी नेता से तगड़ी घूस मांग ली थी। घूस तो नहीं मिली थी, हां, प्रदेश के तत्कालीन संगठन महामंत्री सुहास भगत ने भारतीय भाषा में समझा दिया था कि आगे राजनीति करना है तो नीयत पर नियंत्रण रखो। मंत्री ने तब जी भाई साहब..जी भाई साहब बोलकर जैसे-तैसे जान छुड़ाई थी। तब ही पीए को भी मुक्त कर दिया था, पर जो दिन रात साथ खाए-पिए उस पीए से कैसे ज्यादा दिन बिछोह कैसे रखें। दोनों एक-दूसरे को दिल से कुबूल करते हैं। ताजा खबर यह है कि मंत्री ने लक्ष्मी कारोबार को तेजी से विस्तार देने के लिए पीए को पार्टनर में तब्दील कर दिया है। क्या दवा और क्या दारू...सब धंधों में दोनों साथ हैं। मंत्री जी बड़ा सा हॉस्पिटल बनवा रहे हैं, पीए भी साथ है। वैसे भी मंत्री जी बरसों से जमीन से जुड़े हैं । दिनभर इसी जुगत में लगे रहते हैं कि जिधर उनकी जमीन है, उधर कौन सी विकास योजना ले आएं कि जमीन के भाव बढ़ जाएं। ऐसा नहीं होता तो वैसा कर लेते हैं कि जिधर विकास हो रहा होता है, उधर की जमीन जुगाड़ लेते हैं। सुना है विरोधी कागज तैयार करवा रहे हैं। संघ से लेकर सरकारी एजेंसियों तक में पहुंचाने के लिए। चुनाव से पहले मंत्रीजी चर्चा में आ जाएं तो चौंकिएगा मत।
खूब चम(का) रही है ज्योति...
बीजेपी के दिल्ली वाले बड़े नेता भले ही आदिवासी प्रेम दिखाने के लिए बड़े-बड़े फैसले ले रहे हों लेकिन प्रदेश के दो आदिवासी नेताओं की तू-तू, मैं-मैं ने उनके होश उड़ा दिए हैं। दोनों में पुश्तैनी लड़ाई है। नाम है फग्गन सिंह कुलस्ते और ओमप्रकाश धुर्वे। कुलस्ते केंद्र में मंत्री हैं और धुर्वे संगठन में। दोनों नेता अपनी ही पार्टी को कड़ी टक्कर देते रहते हैं। कभी जुबान से तो कभी मैदान से। अभी गांव सरकार के चुनाव में नया मोर्चा खुल गया है। धुर्वे की श्रीमती जी..यानी ज्योति धुर्वे जिला पंचायत का चुनाव हार गईं। पतिदेव तो चुप रहे, लेकिन ज्योति ने बयानों की ऐसी चमक बिखेरी कि दिल्ली तक रोशनी गई। वे सपाट बोल दीं- कुलस्ते ने हरवाया है। संगठन के प्रदेश मुखिया से लेकर राष्ट्रीय मुखिया तक चिट्ठी-पतरी लिखकर भितरघात की पूरी कहानी बयां कर दी। ज्योति धुर्वे यूं भी धमकदार नेता हैं, दिल्ली और भोपाल की चिंता यह है कि हम आदिवासियों की लिए इतने ज्ञान-गणित कर रहे हैं और ये दो महाशय रायता फैला रहे हैं। ऐसा न हो कि 2023 में डिंडोरी में पार्टी के हाथ में केवल डंडा रह जाए..झंडा किसी और का लहराने लगे।
दोस्त हो तो ऐसा
सूबे के प्रशासनिक मुखिया नवंबर में रुखसत हो जाएंगे। नया कौन होगा, इसके लिए दो दोस्तों के नामों की चर्चा है। दोनों साथ-साथ नौकरी में आए थे, हम प्याला-हम निवाला भी हैं और कुर्सी की दौड़ में बराबरी से दौड़ रहे हैं। जब इस दौड़ के साथ उल्टे-सीधे कयास और अफवाहों ने भी दौड़ लगाना शुरू कर दी तो एक दोस्त ने दोस्ती की खातिर वॉट्सऐप डीपी पर एक संदेश डाल दिया। मैं अपनी दौड़ खुद दौड़ता हूं, दूसरों को हराने के लिए कोई खेल नहीं खेलता, अपना ही खेल सुधारता हूं। संदेश अफसरी अमले में तेजी से दौड़ रहा है और सभी इसे अपने-अपने हिसाब से दौड़ा रहे हैं। वैसे फाइल पर फैसला तो सूबे के मुखिया जी करेंगे, लेकिन एक दोस्त ने दूसरे दोस्त को कुछ सुकून की नींद तो मुहैया करवा ही दी है...। दोस्त हो तो ऐसा।
हम तो चले, तुम सुधर जाओ...
डीजीपी विवेक जौहरी सेवानिवृत्ति को प्राप्त होते-होते कई अफसरों की गुप्त रिपोर्ट को लाल-पीला कर गए। मिजाज से नम्र और कलम से सख्त साहब ने जो भी कलम चलाई, वे उनकी अंदरूनी सूचनाओं के आधार पर चलाई होंगी लेकिन उससे कई अफसरों की आंखों के आगे अंधेरा छा गया है। अब हुआ यूं कि साहब रवाना होने के बाद से ही स्पेशल डीजी से लेकर कई एसपी ने अपनी लॉबिंग में लगे हुए हैं.....ना-ना..तबादला नहीं। गृह प्रवेश के लिए। साहब की कलम से पीड़ित पक्ष अब गृह विभाग के बड़े साहब के चक्कर लगा रहे है, लाल-पीली हुई सीआर को सफेद करवाने के लिए। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि ये मामला सीएस के दरबार में जाना है और वहां सुनवाई होगी, इसकी गुंजाइश कम ही लग रही है। सो...अब खाकी वाले अफसर गृह विभाग के बड़े साहब की परिक्रमा करने में लग गए हैं। देखते हैं, परिक्रमा कितनी काम आती है, अभी तो रिपोर्ट लाल-पीला होने की खबर से गुस्से से लाल हुए जा रहे हैं पीड़ित पक्ष।
हम किसी से कम नहीं...
सरकार में बैठे लक्ष्मी पुत्रों को लक्ष्मी के ठिठक-ठिठककर आने से गहरी पीड़ा है। आप भी ना..हर धन काला नहीं होता, कुछ सफेद भी होता है भाई। यहां सफेद धन बोले तो तनख्वाह के संग चस्पा होने वाला डीए है। पहले होता यह था कि दिल्ली वाले अफसरों का डीए बढ़ता था तो यहां के अफसरों का डीए भी उतनी ही रफ्तार से बढ़ जाता था, लेकिन जब से सूबे के प्रशासनिक मुखिया बदले हैं, साहब लोगों को डीए राज्य के कर्मचारियों के साथ ही बढ़ रहा है। मतलब हम सब एक हैं। अभी भी ऐसा ही हुआ। कर्मचारियों को 3% भत्ते की घोषणा हुई तो अफसरों की तनख्वाह में भी टेका लग गया। दिल्ली ने जनवरी से डीए दिया है और सूबे में सितंबर से मिलेगा। 7 महीने का डूबत खाता लिए बैठे कई युवा आईएएस के विरोधी सुर फूट पड़े हैं। वॉट्सऐप विश्वविद्यालय पर अपने ही मुखिया के खिलाफ खूब व्याख्यान दिए जा रहे हैं। किसी का दर्द यह है कि अपने ही अपनों को निपटा रहे हैं तो कोई कह रहा है, सरकार वोट बैंक देखकर फैसले लेती है। हम भी किसी से कम नहीं हैं..सरकार के वोट घटाना-बढ़ाना हमें भी खूब आता है। सुर-संग्राम जारी है। अभी तो मुखिया और सरकार इसमें श्रोता ही बने हुए हैं। संदेशों की प्रतिक्रिया का इंतजार है।