Dev Shrimali, Gwalior. जनता की सेवा और विकास के नाम पर आज जमकर राजनीति होती है। तरीका कोई भी हो, लेकिन सत्ता हासिल करना ही राजनेताओं की प्राथमिकता रहती है। इस सबके बीच सेवा और विकास का उद्देश्य कहीं धूमिल सा हो गया है। लेकिन साठ के दशक का दौर अलग ही था। कहने को तब भी नेताओं में वैचारिक मतभेद थे, मगर उनका लक्ष्य एक ही था, सेवा और विकास। इस काम में अगर उन्हें अपने प्रतिद्वंदी को भी सत्ता सौंपना पड़े तो वह बिलकुल नहीं हिचकते थे। ग्वालियर में तो कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की नगर निगम परिषद ने जनसंघ के एक नेता के घर जाकर उनसे आग्रह किया था कि वे मेयर का पद स्वीकारें। उन्होंने भी बड़ी मिन्नतों के बाद सशर्त यह पद संभाला।
सियासत का एक किस्सा ऐसा भी
ये बात साठ के दशक की है। तब स्वतंत्रता की लहर वातावरण में घुली हुई थी। ग्वालियर शहर में कांग्रेस का दबदबा था। लगातार उसी की बहुमत वाली सरकारें बन रही थी। हर बार कांग्रेस के ही मेयर चुने जा रहे थे, लेकिन पार्षदों को लगता था कि शहर विकास का काम ठीक से हो नहीं हो रहा है, क्योंकि इसके लिए ज्यादा पढ़े-लिखे और अच्छे विजन वाला आदमी चाहिए था। चुनाव हुए तो कांग्रेस को अपार बहुमत मिला और मुख्य प्रतिद्वंदी जनसंघ को बस कुछ ही सीटों पर जीत मिली।
उस समय एक साल के लिए मेयर चुना जाता था और उसका पार्षद होना जरूरी नहीं था। स्वतंत्रता सेनानी कक्का डोंगर सिंह तब परिषद और स्टेंडिंग कमेटी के चेयरमेन थे। उनके साथ कांग्रेस पार्षद इकट्ठा होकर जनसंघ के संस्थापक सदस्य नारायण कृष्ण शेजवलकर के घर पर गए और उनसे कहा कि वे मेयर बन जाए। शेजवलकर ने कहा कि उनकी पार्टी के पास तो बस तीन चार पार्षद हैं। उनके दल का मेयर कैसे बन सकता है ? तो सब ने कहा कि शहर का विकास ईमानदारी से होना चाहिए इसमें राजनीति का क्या काम ?
मेयर बनने के लिए रखी थी दो शर्त
पार्षदों के कहने पर शेजवलकर ने उनकी बात तो मान ली, लेकिन दो शर्त भी रख दी। उन्होंने कहा कि एक तो मेरे काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा और दूसरा अगर परिषद का एक भी सदस्य उन पर अविश्वास प्रकट कर देगा या बेईमानी का आरोप लगा देगा तो वे अपना पद उसी समय छोड़ देंगे। जिसके बाद सभी ने उनकी शर्तें स्वीकार की और आखिरकार उन्हें मेयर की शपथ दिलाने के लिए जल विहार ले गए।
शर्त टूटी तो दे दिया इस्तीफा
शेजवलकर ने ग्वालियर के विकास का खाका खींचा लेकिन परिषद में एक पार्षद ने कहा कि वे किसी की नहीं सुनते और मनमानी करते हैं जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि परिषद के भीतर वे अल्पमत में हैं। इसके बाद तत्काल ही शेजवलकर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और अपने घर चले आए। हालांकि इस मौके पर सबने उन्हें मनाया और इस्तीफा वापिस लेने का आग्रह किया लेकिन वे दोबारा नहीं माने।
शेजवलकर बहुमत से बने महापौर
इसके बाद लगातार पांच साल तक कांग्रेस के मेयर बनते रहे और शेजवलकर अपनी पार्टी को मजबूत करते रहे। 1967 में शेजवलकर जनसंघ की पूर्ण बहुमत वाली सरकार लाए और फिर महापौर बने और लगातार कई सालों तक महापौर ही रहे। बाद में जनसंघ ने उन्हें राज्यसभा में भेजने का फैसला किया तो उन्होंने महापौर पद छोड़ दिया। इसके बाद वह लगातार दो बार लोकसभा के सदस्य भी निर्वाचित हुए।