अरुण तिवारी, BHOPAL. मध्यप्रदेश में सहकारिता की कमर टूट गई है। पिछले 15 सालों से सहकारी संघों के चुनाव नहीं हुए हैं। सारे सहकारी बैंक और संघ प्रशासकों के भरोसे चल रहे हैं। सरकार या बीजेपी संगठन इन चुनावों को लेकर गंभीर नहीं हैं। हाल ही में हाईकोर्ट ने सरकार से इस संबंध में जवाब मांगा है। सहकारी संघों के चुनाव न होने के पीछे एक बड़ी वजह सामने आई है। दरअसल सांसद और विधायक नहीं चाहते कि प्रदेश में सहकारी संगठनों के चुनाव हों। यही कारण है कि डेढ़ दशक से ये चुनाव टलते आ रहे हैं। इस सहकारी सिस्टम ने प्रदेश को बड़े-बड़े नेता दिए हैं जो सहकारिता से राजनीति के बड़े पदों पर पहुंचे हैं। बड़ा सवाल है कि आखिर प्रदेश में क्यों टल रहे हैं सहकारिता के चुनाव।
शिवराज सरकार में 2011 में हुए थे सहकारिता के चुनाव
प्रदेश का सहकारी तंत्र सरकार और आम आदमी के बीच का ब्रिज माना जाता है। इस सहकारिता से किसान, आदिवासी से लेकर आम आदमी तक जुड़े होते हैं। पिछले 15 सालों से सहकारी संघों के चुनाव नहीं हुए हैं। इससे सीधे तौर पर आम आदमी पर असर पड़ रहा है। इस सहकारी तंत्र से दो लाख से ज्यादा लोग सीधे जुड़े हुए हैं। सहकारी संघों के आखिरी चुनाव शिवराज सरकार में साल 2011 में हुए थे। उसके बाद ये पूरा सिस्टम सरकारी अधिकारियों यानी प्रशासक चला रहे हैं। इसके पीछे की एक खास वजह मानी जा रही है। सूत्रों की मानें तो सांसद और विधायक नहीं चाहते कि सहकारी संघों के चुनाव हों। इसका कारण ये है कि इन संघों पर जो जीतकर आते हैं वे सीधे जनता से जुड़े होते हैं और विधानसभा और लोकसभा में टिकट के दावेदार बन जाते हैं। यही कारण है कि बीजेपी सरकार हो या संगठन कोई इसमें रुचि नहीं ले रहा। मौजूदा जनप्रतिनिधि नहीं चाहते कि विधानसभा या लोकसभा क्षेत्र में उनका प्रतिस्पर्धी पैदा हो।
इन सहकारी संघों को चुनाव का इंतजार...
- अपैक्स बैंक
- 38 जिला सहकारी बैंक
- 4500 सहकारी समितियां यानी पैक्स
- 2500 वनोपज समितियां
- 1500 दुग्ध उत्पादक समितियां
- 650 मार्केटिंग सोसाइटी
- 55 जिला वनोपज सहकारी संघ
- किसान मार्केटिंग फेडरेशन
- 7 सहकारी दुग्ध संघ
- मप्र राज्य सहकारी दुग्ध महासंघ
- सहकारी बीज संघ
दो लाख से ज्यादा लोगों का चुनाव
हाईकोर्ट ने अगले दो महीने में चुनाव कराने को कहा है, लेकिन अब लोकसभा चुनाव आने वाले हैं इसलिए ये मामला फिर छह महीने के लिए टल गया। इन सारी समितियों और संघों में दो लाख से ज्यादा लोगों का चुनाव होना है। यही कारण है कि इनके चुनावों पर सरकार की दिलचस्पी नहीं है। कांग्रेस का आरोप है कि बीजेपी सरकार में ही सहकारी आंदोलन को भ्रष्टाचार का अड्डा बना दिया गया है।
इस सहकारी आंदोलन ने प्रदेश को बड़े-बड़े नेता दिए हैं। ये नेता विधायक, सांसद से लेकर मंत्री और उपमुख्यमंत्री तक बने हैं।
सहकारी आंदोलन से निकले ये नेता...
- सुभाष यादव- पूर्व उपमुख्यमंत्री
- भगवान सिंह यादव- पूर्व मंत्री
- रमाकांत भार्गव- सांसद
- भंवर सिंह शेखावत- विधायक
- लक्ष्मीनारायण शर्मा- पूर्व मंत्री
- विश्वास सारंग- मंत्री
- लखन पटेल- मंत्री
- डॉ गोविंद सिंह- पूर्व मंत्री
- हरवंश सिंह- पूर्व मंत्री
- ब्रजबिहारी पटेरिया- विधायक
ये तो चंद नाम हैं, लेकिन कोऑपरेटिव सिस्टम से बड़े पैमाने पर नेता निकले हैं। इस सिस्टम को नेता तैयार करने की नर्सरी भी माना जाता रहा है। क्योंकि गांव से जुड़ी छोटी-छोटी सहकारी समितियों से चुनकर ये नेता जिला स्तर पर पहुंचते हैं और फिर सांसद-विधायक की रेस में शामिल हो जाते हैं, लेकिन ये चुनाव कब होंगे इसकी संभावना फिलहाल नजर नहीं आ रही है।