BHOPAL. बगावती तेवरों से बिगड़ा बीजेपी का संतुलन, ‘एक्सपर्ट’ भी असंतोष साधने में नाकाम, दिग्गजों की नाक के नीचे, विधायक ने छोड़ा बीजेपी का साथ। बीजेपी में बगावत के सुर थमने का नाम नहीं ले रहे हैं, डैमेज कंट्रोल की हर कवायद फेल होती नजर आ रही है। बहुत सोच-समझकर बीजेपी ने मध्यप्रदेश के लिए खास रणनीति फाइनल की थी। जिसकी खातिर कुछ पुराने उसूलों से समझौता भी किया। सीएम का चेहरा नहीं बदला लेकिन उन्हें पीछे करके पीएम मोदी के फेस को आगे किया। ऐसे क्षत्रपों को मैदान में उतारा जिनसे उम्मीद थी कि वो अपने अपने अंचल में पार्टी की लगाम को कस देंगे, लेकिन हर एक्सपर्ट असंतोष और नाराजगी का बुखार उतारने में नाकाम ही नजर आ रहा है। बीजेपी के लिए इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात ये है कि दो ही अंचलों में दो बड़े दिग्गज तैनात किए गए हैं। और, उन्हीं दो अंचलों में सबसे ज्यादा गुस्सा फूट रहा है। असंतोष का ताजा मामला बीजेपी के लिए दोहरी चिंता का कारण बन सकता है।
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लगा कि हालात ठीक होंगे, लेकिन खारिज हो गए सारे अनुमान
अमित शाह के लगातार दौरों के बाद ऐसा लग रहा था कि अब बीजेपी में हालात ठीक हो रहे हैं, लेकिन एक दिन पहले हुई बड़ी हलचल ने सारे अनुमानों को खारिज कर दिया है। कोलारस से बीजेपी विधायक विरेंद्र रघुवंशी ने अचानक बीजेपी से नाता तोड़ लिया है और बकायदा एक प्रेस कांफ्रेंस कर इस बात का ऐलान भी किया है। बीजेपी विधायक रहे विरेंद्र रघुवंशी ने पत्रकारों से मुखातिब होकर सीधा ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनकी टीम पर हमला बोला, कहा कि बीजेपी में शामिल हुए नए लोग उन्हें काम नहीं करने दे रहे। इससे भी ज्यादा संगीन आरोप भ्रष्टाचार से जुड़े हुए हैं। रघुवंशी के आरोप के बाद एक बार फिर पार्टी में नाराज बीजेपी और महाराज बीजेपी की चर्चा गरमा गई है।
कोलारस विधायक ने लगाए सिंधिया समर्थकों पर गंभीर आरोप
वीरेंद्र रघुवंशी शिवपुरी जिले की कोलारस विधानसभा से विधायक रहे। ये जगह ज्योतिरादित्य सिंधिया का संसदीय क्षेत्र रहा है। वहां के विधायक का टिकट वितरण से पहले ही इस तरह पार्टी से तौबा कर लेना जाहिर करता है कि हालात किस कदर चिंताजनक हैं। उस पर कांग्रेस ये दावा भी कर रही है कि रघुवंशी जल्द उनकी पार्टी का हिस्सा बनेंगे। बीजेपी में असंतोष और नाराजगी का अंडर करंट लंबे समय से महसूस किया जा रहा है। ये पहले तब उफान पर आया जब पार्टी के पुराने नेता दीपक जोशी ने अपने पिता कैलाश जोशी की तस्वीर के साथ कांग्रेस का दामन थाम लिया। अब ये अंडर करंट फिर जोर पकड़ रहा है। इस बार हालात पहले से ज्यादा बेकाबू हैं और इस अंडर करंट को भांपने के लिए तैनात बड़े बड़े एक्सपर्ट बेबस नजर आ रहे हैं। दीपक जोशी का जाना पूरे प्रदेश के नेताओं के लिए बड़ा मैसेज था। जिसके बाद स्थितियां बदलने के लिए बड़े-बड़े नेताओं की टीम बनीं। खुद अमित शाह ने टीम के मास्टरमाइंड्स को जिम्मेदारियां भी सौंपी, लेकिन नतीजा सिफर ही नजर आ रहा है। क्योंकि जोशी के बाद रघुवंशी जिन आरोपों के साथ पार्टी छोड़ गए हैं वो आरोप कांग्रेस की रणनीति को और ताकतवर बनाएंगे। इतना ही नहीं बीजेपी के कुछ विधायकों की पार्टी छोड़ने की अटकलें भी सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रही हैं।
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क्या नरेंद्र सिंह तोमर नब्ज पकड़ने में चूक कर गए?
दीपक जोशी के पार्टी को गुडबाय कहने के बाद बीजेपी की आलातिकड़ी ये समझ चुकी थी कि अब हालात संभालना जरूर हो चुका है। इसके बाद बीजेपी ने अपने खास और सबसे विश्वसनीय रणनीतिकारों को प्रदेश का जिम्मा सौंपा। भूपेंद्र यादव, अश्विनी वैष्णव को प्रदेश की कमान सौंपी। सिंधिया के नाम पर नाराजगी देख नरेंद्र सिंह तोमर का चेहरा आगे किया। पर्दे के पीछे ये जिम्मेदारी अजय जामवाल, मुरलीधर राव, शिवप्रकाश जैसे नेताओं को दी जो संगठन को मजबूत करने में माहिर है। इसके बाद अंचलों के पुराने दिग्गजों को उनके क्षेत्र का जिम्मा भी दिया गया। कैलाश विजयवर्गीय को प्रदेश में वापस लाकर मालवा को एकजुट करने की जिम्मेदारी सौंपी गई और तोमर को ग्वालियर चंबल में नाराजगी खत्म करने का काम दिया गया। लेकिन जिस तरह रघुवंशी गंभीर आरोपों के साथ पार्टी से तौबा कर गए। उसे देखकर क्या ये नहीं लगता कि तोमर कहीं न कहीं नब्ज समझने में चूक कर गए।
मालवांचल में क्या कैलाश भी संभाल पाए हालात?
कमोबेश यही हालात मालवांचल के भी हैं। पूरे मालवा को तो छोड़ ही दीजिए इंदौर जो विजयवर्गीय का गढ़ है कहलाता है वहां विरोध प्रदर्शन इंतेहा पार कर चुका है। इंदौर चार में मालिनी गौढ़ या उनके बेटे को टिकट देने का विरोध जोरों पर है। पीएम नरेंद्र मोदी के परिवारवाद की खिलाफत वाले क्राइटेरिया की दुहाई देते हुए विरोधीधड़ा कैलाश विजयवर्गीय से मिलने पहुंचा और नाराजगी जाहिर की। इस मुद्दे पर विरोधी तोमर से भी मुलाकात कर चुके हैं। विधानसभा पांच में तो विजयवर्गीय के करीबी महेंद्र हार्डिया के खिलाफ ही पार्टी के लोगों का विद्रोह बुलंद है। जो खून से चिट्ठियां लिखकर संगठन तक पहुंचा रहे हैं। असंतोष और नाराजगी का ये ज्वर खासतौर से उन सीटों पर दिख रहा है जहां सिंधिया समर्थक टिकट के प्रबल दावेदार हैं या बीजेपी के ही नेता हैं, लेकिन अब कार्यकर्ताओं की सुनना बंद कर चुके हैं। कांग्रेस भी बीजेपी की नाराजगी वाली ऐसी हर सीट पर पैनी नजर जमा कर बैठी है। वीरेंद्र रघुवंशी के इस्तीफे के बाद सोशल मीडिया पर बीजेपी के चार एमएलए के जल्द इस्तीफा होने की खबरें जमकर वायरल हो रही हैं, इनमें नारायण त्रिपाठी, शरद कौल, राजेश प्रजापति और संदीप जायसवाल का नाम सामने आ रहा है, इन खबरों में कितना दम है ये तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन पार्टी में भगदड़ की इन खबरों से बीजेपी कार्यकर्ताओं को मॉरल जरुर डाउन हो सकता है।
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कांग्रेस की हर दलील को रघुवंशी के आरोपों ने मजबूती दी?
कांग्रेस की हर दलील को वीरेंद्र रघुवंशी के आरोपों ने और मजबूती दे दी है। विरेंद्र रघुवंशी ने अपनी ही सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए हैं। कर्नाटक में बीजेपी के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाकर जीतने वाली कांग्रेस मध्यप्रदेश में भी भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश में है। प्रियंका गांधी और कमलनाथ पहले ही शिवराज सरकार को पचास परसेंट कमीशन वाली सरकार बता चुके हैं। हर जिले में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बीजेपी को घेरने की रणनीति भी तैयार है। इसकी काट बीजेपी ने ये निकाली कि बीस साल पुरानी दिग्विजय सरकार के दौर को याद दिलाना शुरू कर दिया, लेकिन अब उनके अपने विधायक रघुवंशी के गंभीर आरोप लगाने के बाद इस मुद्दे ने जोर पकड़ा तो बीजेपी की मुश्किलें ज्यादा बढ़ जाएंगी। इससे पहले दीपक जोशी के अलावा सिंधिया के करीबी समंदर पटेल भी बड़े दल बल के साथ कांग्रेस में घर वापसी कर चुके हैं।
नई रणनीति ‘बेकार’, काम न आया दिग्गजों का साथ!
वीरेंद्र रघुवंशी ने पार्टी से उस वक्त मुंह फेरा है जब डैमेड कंट्रोल की कवायद शबाब पर हैं। जिससे जाहिर होता है कि स्थितियों को काबू में करना उतना आसान नहीं है जितना बीजेपी समझ रही है। दीपक जोशी के जाने के बाद बीजेपी नेताओं ने खुलकर नाराजगी जताई थी। अब विरेंद्र रघुवंशी के जाने से दूसरे नेताओं की नाराजगी को भी हवा मिलने की संभावना है। हर दिन चुनाव के नजदीक पहुंच रहे प्रदेश में ये हालात बनना बीजेपी के लिए शुभ संदेश देने वाला नहीं है। इससे भी ज्यादा गंभीर बात ये है कि टिकट वितरण से पहले ही ऐसी नाराजगियां सामने आ रही हैं। एक बार टिकट बंट जाएंगे उसके बाद गुस्से का आलम क्या होगा और बीजेपी उस पर कैसे काबू पाएगी। उससे भी बड़ा सवाल ये है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा जोर पकड़ गया तब बीजेपी क्या रणनीति अपनाएगी। क्या तब सिवाए हाथ मलते रह जाने के और कोई चारा बचेगा।