सावरकर को लेकर बार-बार क्यों खड़ा होता है विवाद, जानिए किन वजहों से बीजेपी-संघ परिवार उन्हें मानता है हीरो और कांग्रेस विलेन

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Sunil Shukla
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सावरकर को लेकर बार-बार क्यों खड़ा होता है विवाद, जानिए किन वजहों से बीजेपी-संघ परिवार उन्हें मानता है हीरो और कांग्रेस विलेन

BHOPAL. 'मेरा नाम सावरकर नहीं है, मेरा नाम गांधी है। गांधी ने कभी किसी के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया।' कांग्रेस के पूर्व सांसद राहुल गांधी के 25 मार्च को इस बयान के बाद देश की राजनीति में सावरकर को लेकर एक बार फिर विवाद छिड़ गया है। विनायक दामोदरराव सावरकर जिन्हें संघ और बीजेपी परिवार एक महान स्वतंत्रता सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता मानता है जबकि कांग्रेस उन्हें अंग्रेजों का एजेंट करार देते हुए एक विलेन के रूप में देखती है। सावरकर को लेकर देश के राजनीतिक और बौद्धिक जगत में हमेशा विवाद और बहस बनी रहती है। आइए ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं के आधार पर समझते हैं कि आखिर देश में सावरकर को लेकर इतना विवाद क्यों खड़ा होता है? क्यों उन्हें एक क्रांतिकारी के रूप में सम्मान देने का विरोध होता है?



अभी क्यों खड़ा हुआ विवाद



दरअसल, मोदी सरनेम को लेकर मानहानि केस में सूरत कोर्ट के फैसले के बाद संसद से अयोग्य ठहराए जाने के बाद 25 मार्च को राहुल गांधी ने नई दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस में बीजेपी पर निशाना साधते हुए कहा, 'मेरा नाम सावरकर नहीं है, मेरा नाम गांधी है। गांधी ने कभी किसी के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया।' इस बयान के बाद बीजेपी और संघ परिवार के नेताओं ने सावरकर का अपमान करने के लिए राहुल के खिलाफ जमकर हमला बोला। इस विवाद में सावरकर के पोते रंजीत सावरकर भी कूद पड़े। उन्होंने राहुल गांधी के माफी ना मांगने के बयान पर तंज कसते हुए कहा कि राहुल गांधी इसका प्रमाण दें कि वीर सावरकर ने कभी किसी से माफी मांगी हो। मैं उन्हें चुनौती देता हूं कि वे ऐसे दस्तावेज दिखाएं जिनमें सावरकर ने माफी मांगी हो। इसके उलट वे 2 बार सुप्रीम कोर्ट से माफी मांग चुके हैं। राहुल गांधी जो कुछ भी कर रहे हैं, वह बचकाना है। राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए देशभक्तों का नाम घसीटना निंदनीय है।



कौन थे वीर सावरकर?



सावरकर से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों, घटनाओं और विवादों पर नजर डालने से पहले जानते हैं कि आखिर वे थे कौन? विनायक दामोदरराव सावरकर का जन्म देश पर अंग्रेज हुकूमत के दौरान 28 मई, 1883 को महाराष्ट्र के नासिक में एक मराठी परिवार में हुआ था। वे एक वकील, राजनीतिज्ञ, कवि, लेखक और नाट्य लेखक भी थे। अपनी उच्च माध्यमिक शिक्षा के दौरान सावरकर के मन में भारत को ब्रिटिश राज से आजाद कराने की इच्छा जागृत हुई। स्कूल शिक्षा के बाद फर्ग्युसन कॉलेज पुणे में पढ़ाई के दौरान भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। अपने राजनीतिक विचारों के लिए सावरकर को पुणे के इस कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया था। बाल गंगाधर राव तिलक की अनुशंसा पर 1906 में उन्हें श्याम जी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली और वे आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए। वहां भी उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अलख जगाए रखी। वे रूसी क्रांतिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे। लंदन में रहने के दौरान सावरकर की मुलाकात क्रांतिकारी लाला हरदयाल से हुई। लंदन में वे इंडिया हाउस की देखरेख भी करते थे। मदनलाल धींगरा को फांसी दिए जाने के बाद उन्होंने 'लंदन टाइम्स' में भी एक लेख लिखा था। वहां उन्होंने धींगरा के लिखित बयान के पर्चे भी बांटे थे। साल 1910 में उन्हें नासिक के कलेक्टर की हत्या में संलिप्त होने के आरोप में लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया था। 1910 में नासिक के जिला कलेक्टर जैकसन की हत्या के आरोप में पहले सावरकर के भाई नारायण दामोदर को गिरफ्तार किया गया था।



बीजेपी-संघ परिवार की नजर में क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी



भारतीय जनसंघ के प्रकाशनों में दावा किया जाता है कि सावरकर पहले स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे, जिसने विदेशी कपड़ों की होली जलाई। 1905 के बंग-भंग के बाद उन्होंने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। हालांकि, सावरकर कभी भी जनसंघ और आरएसएस से नहीं जुड़े रहे, लेकिन उनकी इन दोनों संगठनों और इसकी विचारधारा से जुड़े लोगों में बहुत सम्मान किया जाता है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्र में एनडीए के राज में 2000 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन के पास सावरकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' देने का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया था।



वीर की उपाधि कब और कैसे मिली?



इतिहास के जानकारों के मुताबिक 1936 में एक बयान को लेकर विवाद होने के बाद सावरकर को कांग्रेस ने ब्लैकलिस्ट कर दिया था। उस समय कांग्रेस ने सावरकर के खिलाफ बड़ा आंदोलन किया था। इसके चलते हर जगह उनका विरोध किया जाने लगा। ऐसे में उस समय के शिक्षाविद्, लेखक, कवि और नाटककार पीके अत्रे ने सावरकर का साथ देने का मन बनाया क्योंकि वे उनके बड़े प्रशंसक थे। अत्रे ने पुणे में अपने बालमोहन थिएटर के तहत सावरकर के लिए एक स्वागत कार्यक्रम आयोजित किया। इस कार्यक्रम के विरोध में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सावरकर के खिलाफ पर्चे बांटे और धमकी दी कि वे सावरकर को काले झंडे दिखाएंगे। इस विरोध के बावजूद हजारों लोग जुटे और सावरकर का स्वागत कार्यक्रम हुआ। अत्रे ने कार्यक्रम में अपने भाषण में सावरकर को निडर करार देते हुए कह दिया कि ये आदमी काले झंडों से नहीं डरेगा, जो काला पानी की सजा तक से नहीं डरा। भाषण में अत्रे ने सावरकर को 'स्वातंत्र्यवीर' की उपाधि दी। यही उपाधि बाद में 'वीर' टाइटल हो गई और सावरकर के नाम के साथ जुड़ गई। हालांकि कई आलोचक यह भी कहते हैं कि सावरकर ने एक किताब के माध्यम से खुद ही अपने को 'वीर' घोषित किया था। 26 फरवरी 1966 को उनका निधन हो गया।



क्या है अंग्रेजों से माफी मांगने का विवाद




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सावरकर का अंग्रेज सरकार को लिखा माफीनामा




अब उस विवाद के बारे में जानते हैं जिसके लिए कांग्रेस और सावरकर के आलोचक उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन का हीरो नहीं बल्कि विलेन करार देते हैं। दरअसल, वीर सावरकर पर एक गंभीर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेजों से माफी मांगी थी। वे कड़ी सजा के लिए काला पानी के रूप में कुख्यात अंडमान की सेल्यूलर जेल में सजा काट रहे थे। जानवरों को जिस तरह तेल निकालने के लिए कोल्हू में जोता जाता है, सावरकर को जेल में उसी तरह तेल मिल में काम पर लगाया गया। यह बर्बर सजा थी, हालांकि वे अकेले व्यक्ति नहीं थे जिसे इस काम में लगाया गया हो, लेकिन सेज की सजा से निजात पाने के लिए 1911 में उन्होंने खुद ही सरकार के सामने दया याचिका लगाई। बाद में खुद सावरकर और उनके समर्थकों ने अंग्रेजों से माफी मांगने को इस आधार पर सही ठहराया था कि ये उनकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था, जिसकी वजह से उन्हें कुछ रियायतें मिल सकती थीं। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- यदि मैंने सजा के खिलाफ जेल में हड़ताल की होती तो मुझसे मुख्य भूमि भारत पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता। उन्हें 1924 में जेल से 2 शर्तों के आधार पर छोड़ा गया। ये शर्तें थीं, पहली- सावरकर को रत्नागिरी जिले में ही रहना होगा और बिना सरकारी अनुमति के वे जिले से बाहर नहीं जा सकते। दूसरी- वे निजी या सार्वजनिक रूप से राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं ले सकते। ये शर्तें 5 साल के लिए थीं और इस समयावधि के बाद इन्हें दोबारा लगाया जा सकता था।



क्यों मिली काला पानी की सजा?



1910 में नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या की साजिश के आरोप में सावरकार को 7 अप्रैल 1911 को काला पानी की सजा सुनाते हुए अंडमान द्वीप के सेल्युलर जेल भेज दिया गया। सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में बंद रहे। उन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएं लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई करीब 10 हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा। उन्होंने जेल में सजा काटते हुए 'द ट्रांसपोर्टेशन ऑफ माई लाइफ' नामक पुस्तक लिखी। उनकी 2 पुस्तकों को मुद्रित और प्रकाशित होने के पूर्व ही अंग्रेजों ने जब्त कर लिया।



सावरकर के माफीनामे पर गांधी की क्लीन चिट



अंग्रेजों से माफी मांगने के मामले पर गांधी जी ने 1920 में सावरकर को 'चतुर' बताते हुए कहा था कि उन्होंने स्थिति का लाभ उठाते हुए क्षमादान की मांग की थी, जो उस दौरान देश के अधिकांश क्रांतिकारियों और राजनीतिक कैदियों को मिल भी गई थी। सावरकर जेल के बाहर रहकर देश की आजादी के लिए जो कर सकते थे वो जेल के अंदर रहकर नहीं कर पाते।



सावरकर यदि कायर होते तो ये वीरता क्यों दिखाते?



सावरकर को क्रांतिकारी मानने वाले पक्ष का कहना है कि यदि वे कायर होते तो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की वीरता क्यों दिखाते? अपने इस तर्क के पक्ष में वे एक घटना का जिक्र करते हैं। सावरकर को नासिक के कलेक्टर की हत्या की साजिश में शामिल होने के आरोप में लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया था। उन्हें 'एसएस मौर्य' नाम के पानी के जहाज से भारत लाया जा रहा था। जब जहाज फ्रांस के मार्से बंदरगाह पर पहुंचने वाला था तो सावरकर जहाज के शौचालय के 'पोर्ट होल' से बीच समुद्र में कूद गए। इस दौरान सुरक्षाकर्मियों ने उन पर गोलियां भी चलाईं, लेकिन वो बच निकले। हालांकि समुद्री तट से आधे किलोमीटर की दूरी तक भागने के बाद वो फिर से पकड़े गए। फ्रांस में पकड़े जाने पर सावरकर पर अधिकार को लेकर मामला इंटरनेसनल कोर्ट हेग में भी पहुंचा। पहले तो ब्रिटेन और फ्रांस के बीच उनकी गिरफ्तारी को लेकर काफी विवाद हुआ, लेकिन बाद में दोनों देशों ने सुलह कर ली। इसके बाद कोर्ट ने ब्रिटेन के हक में फैसला सुनाया।



काला पानी में कई यातनाएं भोगीं?



सावरकर को भारत लाकर कोर्ट में मुकदमा चलाया गया, जहां कोर्ट से उन्हें 25-25 साल की 2 अलग-अलग सजाएं सुनाईं। सजा काटने के लिए उन्हें भारत से दूर अंडमान यानी 'काला पानी' भेज दिया गया। उन्हें सेल्युलर जेल में छोटी-सी घनी अंधेरी कोठरी में रखा गया। इतिहास की किताबों में लिखा गया है कि अंडमान में सरकारी अफसर बग्घी में चलते थे और सावरकर सहित तमाम कैदियों को इन बग्घियों को खींचना पड़ता था। जब कैदी बग्घियों को खींचने में लड़खड़ा जाते थे तो उन्हें चाबुक से पीटा जाता था। कैदियों को कोल्हू चलाकर तेल भी निकालना पड़ता था। टॉयलेट में भीड़ होने के कारण कभी-कभी कैदी को जेल के अपने कमरे के एक कोने में ही मल त्यागना पड़ता था।



क्या माफीनामा रणनीति का हिस्सा था?



बताया जाता है कि लंबे समय तक यातनाओं के दौर से गुजरते हुए सावरकर ने एक रणनीति बनाई। उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगने का मन बनाया। इसके लिए उन्होंने अंग्रेज हुकूमत को 6 बार चिट्ठियां लिखीं। कानून के मुताबिक कैदियों के अच्छे व्यवहार को देखते हुए उन्हें कुछ शर्तों पर रिहा भी किया जाता था। इसका लाभ उस दौरान कई राजनीतिक कैदियों को मिला। सावरकर के भी तमाम अच्छे व्यवहार को देखते हुए उन्हें 1924 में रिहा कर दिया गया। इंदिरा गांधी सेंटर ऑफ आर्ट्स के प्रमुख राम बहादुर राय के मुताबिक सावरकर की कोशिश रहती थी कि भूमिगत रहकर उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है। सावरकर इस पचड़े में नहीं पड़े कि उनके माफी मांगने पर लोग क्या कहेंगे। उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे वो कर सकेंगे।



महात्मा गांधी की हत्या में शामिल होने के आरोप से बने विलेन



वीर सावरकर की छवि को उस समय बहुत धक्का लगा जब 1949 में गांधी हत्याकांड में शामिल होने के लिए 8 लोगों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। हालांकि ठोस सबूतों के अभाव में वो बरी हो गए, लेकिन यह आरोप उनके व्यक्तित्व से जुड़ा रहा। कपूर कमीशन की रिपोर्ट में कहा गया कि उन्हें इस बात का यकीन नहीं है कि सावरकर की जानकारी के बिना गांधी हत्याकांड हो सकता था। सावरकर को हिंदुत्व का पुरोधा मानने वाले पक्ष का मानना हा कि उन्हें सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर किया गया क्योंकि नाथूराम गोडसे और उनके विचारों में कई समानताएं थीं। गोडसे भी पहले हिंदू महासभा से जुड़ा हुआ था, लेकिन 1949 में सावरकर के खिलाफ गांधी जी की हत्या में शामिल होने का आरोप कोर्ट में बेबुनियाद साबित हुआ और उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया गया। अदालत से बरी हो जाने के बावजूद गांधी जी की हत्या में शामिल होने के महज आरोप ने ही गोडसे के बाद उन्हें आजाद भारत का सबसे बड़ा विलेन बना दिया। आजादी के बाद बेहद एकांकी जीवन बिताते हुए 1966 में उनकी मृत्यु हो गई। इसके बाद सावरकर की विरासत को अंधकार में डाल दिया गया।



सावरकर का हिंदू और हिंदुत्व



हिंदू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा (हिन्दुत्व) को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व- हू इज हिंदू?' जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया। किताब के मुताबिक इस देश का इंसान मूलत: हिंदू है। इस देश का नागरिक वही हो सकता है जिसकी पितृ भूमि, मातृ भूमि और पुण्य भूमि यही हो। मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की बढ़ती लोकप्रियता के चलते सावरकर ने हिंदुत्व के पुरोधा की अपनी छवि के बल पर राष्ट्रीय राजनीति में आकर्षण हासिल करना शुरू कर दिया। वीर सावरकर बॉम्बे (अब मुंबई) चले गए और 1937 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष चुने गए और 1943 तक कार्य किया। कांग्रेस ने 1937 में चुनावों में प्रवेश किया, लेकिन कांग्रेस और जिन्ना के बीच संघर्ष ने हिंदू-मुस्लिम राजनीतिक विभाजन को बढ़ा दिया। जब कांग्रेस ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, सावरकर ने इसकी आलोचना की। उन्होंने हिंदुओं से आग्रह किया कि वे 'युद्ध की कला' सीखने के लिए सशस्त्र बलों में शामिल हों। हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं ने 1944 में जिन्ना के साथ बातचीत करने के लिए गांधी की पहल का विरोध किया। वीर सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने भारत छोड़ो आंदोलन का खुलेआम विरोध किया और आधिकारिक तौर पर इसका बहिष्कार किया।



इंदिरा गांधी ने की थी सावरकर की तारीफ




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इंदिरा गांधी ने की थी सावरकर की तारीफ




महाराष्ट्र में 2019 के विधानसभा चुनाव में वीर सावरकर एक बड़ा मुद्दा बन गए थे। तब बीजेपी ने ये ऐलान कर कर दिया था कि महाराष्ट्र में सत्ता में आने पर वह वीर सावरकर के नाम की सिफारिश देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न के लिए करेगी। इसके बाद कांग्रेस ने वीर सावरकर पर कई सवाल उठा दिए थे। उसका तर्क था कि चूंकि काला पानी से वापस आने के लिए सावरकर ने अंग्रेज सरकार को माफीनामा लिखकर दिया था, इसलिए वे भारत रत्न के हकदार नहीं हैं, लेकिन उस वक्त इंदिरा गांधी की एक 20 मई 1980 को लिखी गई चिट्ठी ने कांग्रेस को भी बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया था। इस पर बीजेपी ने इंदिरा गांधी की चिट्ठी को मुद्दा बनाते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री रहते हुए इंदिरा गांधी ने वीर सावरकर की तारीफ की थी। इसी दौरान बीजेपी नेता अमित मालवीय ने दावा किया कि इंदिरा गांधी ने सावरकर के सम्मान में डाक टिकट जारी करने के अलावा अपने निजी खाते से सावरकर ट्रस्ट को 11 हजार रुपए दान किए थे।


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