BHOPAL. बस अब मध्यप्रदेश की सियासत में यही शोर सब जगह सुनाई दे रहा है और चुनाव तक देता भी रहेगा। जो बीजेपी जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की नाराजगी से जूझ रही है. वो इस गुस्से को खत्म करने की जुगत भले ही न लगा सकी हो, लेकिन इसकी काट जरूर ढूंढ लाई है। मध्यप्रदेश बीजेपी के आला नेता भले ही ये कहते सुने जा रहे हों कि कार्यकर्ता ही चाणक्य है। भले ही कार्यकर्ता में जान फूंकने खुद पीएम उनसे वीसी के जरिए रूबरू होने वाले हों, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। बीजेपी अब उस दांव को चल रही है, जिसके बाद कार्यकर्ता की नाराजगी उसके लिए कोई मायने नहीं रखेगी। 2019 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए यूपी चुनाव में आजमाया हुआ ये फॉर्मूला अब मध्यप्रदेश में बीजेपी का सहारा बनेगा।
बीजेपी के लिए गंभीर स्थिति, अब पार्टी रास्ता ही बदल लेगी
बीजेपी हर बार ये दावा करती आई है कि उसके लिए कार्यकर्ता ही सब कुछ है। जिन्हें कभी त्रिदेव तो कभी चाणक्य का दर्जा भी दिया गया। खुद पीएम नरेंद्र मोदी मेरा बूथ सबसे मजबूत का नारा इन्हीं कार्यकर्ताओं के दम पर बुलंद करते आए हैं। पार्टी की जीत का दरवाजा खोलने वाला यही कार्यकर्ता फिलहाल अपनी ही पार्टी से नाराज हैं। नाराजगी के कारण किसी से छिपे नहीं हैं। कार्यकर्ताओं की अनदेखी, बेलगाम अफसशाही और प्रभारी मंत्रियों की नाराजगी के अलावा कांग्रेस से बीजेपी में आए सिंधिया समर्थक भी पार्टी के पुराने और निष्ठावान कार्यकर्ताओं की नाराजगी का कारण बन रहे हैं। पार्टी के इंटरनल सर्वे, वन-टू-वन बैठकें सब इस गंभीर होती जा रही सिचुएशन की तरफ इशारा कर रही हैं। इसके बावजूद पार्टी कार्यकर्ताओं को मना लेने का कोई श्योरशॉट प्लान अब तक ढूंढ नहीं पाई है। अब पार्टी ने रास्ता ही बदल लेने का फैसला किया है।
सेल्फी विद हितग्राही
इस नए रास्ते पर चल पड़ी बीजेपी को अब कार्यकर्ता की नाराजगी की कोई खास फिक्र नहीं है। वैसे रास्ता कहने को नया है, क्योंकि एमपी में पहली बार ये राह चुनी जा रही है। बीते लोकसभा चुनाव और यूपी में तो कार्यकर्ता की नाराजगी को खारिज कर बीजेपी इसी रास्ते से कुर्सी तक पहुंची थी। जीत का ये रास्ता हितग्राहियों की गली से होकर गुजरता है। इस गली में नेताओं को सेल्फी विद हितग्राही लेने की सलाह दी गई है। डिजिटल दुनिया को भी इस तरह से इंप्रेस कर ही लिया जाएगा। आला नेता भी हर जगह हितग्राहियों के नाम की माला जपते नजर आ रहे हैं। इस उम्मीद पर की केंद्र और राज्य की योजनाएं ही अब विधानसभा चुनाव में गेमचेंजर साबित होंगी।
लाड़ली बहना योजना ने प्रदेश का माहौल काफी कुछ हद तक बीजेपी के पक्ष में ढाल दिया है, जिन्हें एक क्लिक से खाते में पैसे मिल चुके हैं वो पार्टी के गुणगान कर रहे हैं और ये उम्मीद भी बांध ही चुके हैं कि जीत के बाद बीजेपी ये एक की जगह तीन हजार रु. खाते में भेजेगी। इसी आस पर इस बार बीजेपी के जीत का विश्वास टिका है। आला नेताओं के इंटरव्यू और भाषण में अब ज्यादातर जिक्र सरकार की योजनाओं और हितग्राहियों के नाम का होता है।
हितग्राही, सरकार से नाराजगी और कमर कसे हुए कांग्रेस-आप
योजनाओं के हितग्राही क्या कदम उठाएंगे, ये फिलहाल कहा नहीं जा सकता, लेकिन इस बात को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि प्रदेश में 19 साल की बीजेपी सरकार से जनता की नाराजगी किस कदर बढ़ी हुई है। अपनी योजनाओं का बखान और फिर हितग्राहियों के साथ सेल्फी लेने जैसे प्रोपेगैंडा करते क्या बीजेपी जमीनी हकीकतों से मुंह मोड़ पाएगी, जो कार्यकर्ता नए और पुराने होने की जंग में उलझा है। जो अपने ही नेताओं से नाराज है क्या उसे नजरअंदाज कर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ना बीजेपी के लिए बहुत आसान होने वाला है।
चुनावी हार जीत में बहुत से अलग अलग फैक्टर्स मायने रखते हैं। एक तरफ हितग्राही हैं तो दूसरी तरफ सरकार से नाराजगी भी है और तीसरी तरफ कांग्रेस और आप भी हैं. जिनकी नई घोषणाओं से ये खेल रोमांचक हो गया है। ये सही है कि कांग्रेस 19 साल से सत्ता से बाहर है, इसलिए उसके बाद दांवा करने के लिए कुछ खास नहीं है। पर, ये भी सही है कि उन प्रदेशों का उदाहरण कांग्रेस के पास है, जहां उसकी सरकार आई है और वादे पूरे भी हो रहे है। आम आदमी पार्टी तो योजनाओं का ऐलान करने और उसका एग्जीक्यूशन करने के मामले में पुराने खिलाड़ी हैं। तो क्या ये मुमकिन नहीं कि बीजेपी सरकार की योजानाओं के हितग्रियों को कुछ नए फायदों की खातिर स्विच कर जाए। यानी बाजार तो रेवड़ियों का ही सजा है। नाम और उन्हें जनता तक पहुंचाने का अंदाज अलग-अलग हो सकता है। देखना ये है कि 2023 के चुनाव में किसकी दुकान की रेवड़ी खरीदार को पसंद आती है।