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AYODHYA. भगवान श्रीराम भारत की आत्मा हैं। वे हमारी रक्षा के प्रतीक हैं। बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रमाण हैं। श्रीराम के जीवन में संपूर्ण विचारधाराओं का समावेश है। उनका चरित स्वयं ही काव्य है। राम केवल नाम भर नहीं, बल्कि वे जनमानस के जनजीवन की सार्थकता हैं। इसी ध्येय के साथ अयोध्या के इतिहास में 1984 की धर्म यात्रा का अपना अलग महत्व है। इस यात्रा में शामिल रथ पर भगवान श्रीराम-जानकी की मूर्तियों को अंदर कैद दिखाया गया। यहीं से सहानुभूति का क्रम शुरू हुआ।
आंदोलनकारियों की मांग थी कि विवादित स्थल का ताला खोलकर मंदिर निर्माण के लिए जमीन दी जाए। इसके लिए साधु-संतों की अगुआई में राम जन्मभूमि न्यास का गठन हुआ।
देश में अशांति का दौर
31 अक्टूबर को यात्रा के दिल्ली पहुंची, लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या से अशांति फैल गई। 2 नवंबर 1984 को प्रस्तावित हिंदू सम्मेलन और आगे के कार्यक्रम रोक दिए गए। इसके बाद देश एक बार फिर चुनाव की दहलीज पर खड़ा था। राजीव गांधी प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। चुनाव हुए तो कांग्रेस को बड़ी जीत मिली। राजीव गांधी नेता चुने गए।
कोर्ट के आदेश के बाद खुला ताला
सरकार बने अभी दो वर्ष ही बीते थे। इस बीच 31 जनवरी 1986 को उमेशचंद्र पांडे ने राम जन्मभूमि पर लगे ताले को खोलने के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में अर्जी दाखिल की। विश्व हिंदू परिषद कुछ अलग करने की तैयारी में थी। ज्यादा कुछ होता, इससे पहले ही हाईकोर्ट के एक आदेश से पूरे देश में खुशी की लहर दौड़ गई। अदालत के फैसले के बाद 1 फरवरी 1986 को शाम के 5 बजकर 20 मिनट पर ताला खोला गया।
मुस्लिम समुदाय ने बनाई समिति
इस प्रतिक्रिया के बाद मुस्लिम समुदाय ने बाबरी मोहम्मद आजम खान और जफरयाब जिलानी की अगुआई में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन कर जवाबी आंदोलन शुरू कर दिया। देशभर में यह मामला गरमाने लगा। 14 फरवरी 1986 को दिल्ली में बड़ा प्रदर्शन हुआ। बाद के महीनों में छुटपुट प्रदर्शन होते रहे। फिर 21-22 दिसंबर 1986 को संघर्ष समिति ने दिल्ली में सम्मेलन कर अपनी रूपरेखा बनाई। इसके दो माह बाद 1 फरवरी 1987 को समिति की ओर से भारत बंद की अपील की गई,पर यह ज्यादा काम नहीं आई।
दिल्ली में दोनों पक्षों ने बनाई कार्ययोजना
29 मार्च 1987 को विश्व हिंदू परिषद की पहल पर दिल्ली में विद्वान जुटे। यहीं राम जन्मभूमि के अस्तित्व के कुछ सबूत पेश किए गए। इसी के अगले दिन 30 मार्च को बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति ने दिल्ली में ही एक सम्मेलन किया। फिर 11 अगस्त 1987 को राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति मैदान में कूद पड़ी। समिति के आह्वान पर उत्तर प्रदेश बंद की अपील ने रंग दिखाया। 4-5 जुलाई 1988 को हरिद्वार में हुई धर्म संसद में राम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए संघर्ष समिति बनी। 11 से 15 अक्टूबर 1988 के बीच अयोध्या में हुए श्रीराम महायज्ञ ने एक बार फिर आंदोलन में जान फूंक दी। इसके बाद 29 से 31 जनवरी 1989 तक प्रयाग में हुई धर्म संसद के बाद 1 फरवरी 1989 मंदिर निर्माण कार्य शुरू करने का संकल्प लिया।
जब बीजेपी मैदान में उतरी
11 जून 1989 को भारतीय जनता पार्टी ने पालमपुर कार्यसमिति में प्रस्ताव पास किया कि अदालत इस मामले का फैसला नहीं कर सकती। लिहाजा, सरकार समझौता अथवा कानून बनाकर राम जन्मस्थान हिंदुओं को सौंप दे। विश्व हिन्दू परिषद ने इसका पुरजोर समर्थन किया। यह वह साल रहा, जब अयोध्या पूरे देश में चर्चित हो गई।
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय...
कहा जाता है कि राजा दशरथ उन्हें 'राम' पुकारते थे। मां कौशल्या रामभद्र संबोधन करती थीं। रानी कैकयी उन्हें रामचंद्र बुलाती थीं। ऋषि वशिष्ठ वेदस् कहते थे। वे ऋषि-मुनियों के रघुनाथ हैं। मां सीता के नाथ हैं और अयोध्यावासियों के लिए सीतापति हैं।
तभी तो श्लोक बना...
रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे !
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:!!
त्रेता से कलयुग तक उनके अनेक नाम हैं, पर देवकीनंदन अग्रवाल के लिए वे 'न्यायिक व्यक्ति' अथवा 'सखा' बने। दरअसल, राम जन्मभूमि मामले में देवकीनंदन अग्रवाल का किरदार अहम है। वे न्यायाधीश थे। सेवानिवृत्त होने के बाद वे फैजाबाद में बस गए। वहां निवास करते हुए उन्होंने सबूत जुटाए। तरकीब खोजी। रामलला ने उन पर कृपा की और 1 जुलाई 1989 को अग्रवाल ने अदालत में दावा ठोक दिया। उन्होंने स्वयं भगवान राम की मूर्ति को न्यायिक व्यक्ति करार देते हुए अर्जी लगाई। उनका कहना था कि अयोध्या की राम जन्मभूमि का पूरा परिसर विराजमान देवता का है। ऐसा ऐलान कीजिए और अपने भक्तों को दर्शन के वक्त होने वाली परेशानी और उनकी मुश्किलें दूर कीजिए। पुरानी इमारत और निर्माण हटाकर नए मंदिर के निर्माण का मार्ग मुक्त कीजिए। तरीखें बढ़ती गईं। अग्रवाल के दावे में दम इसलिए भी था कि उन्होंने जिस अंदाज में यह मामला पेश किया था, वह अनोखा था। राम जन्म स्थन और उस स्थान विराजमान राम की बाल मूर्ति दोनों 'न्यायिक व्यक्ति' की भूमिका में अदालत के सामने थे और कोर्ट ने उन्हें स्वीकृति भी दी थी।
सबसे रोचक तथ्य यह रहा कि रामलला चूंकि 'बालक' की भूमिका में थे, लिहाजा उनके करीबी या मित्र (देवकीनंदन अग्रवाल) को उनकी तरफ से बहस करने का अधिकार स्वयं अदालत ने दिया था। इस दावे के कारण 'रामलला...इस देवता का न्यायिक अस्तित्व और अधिकार' स्थापित हो गया। हालांकि, अग्रवाल के दावे के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पांच दावों की एक साथ सुनवाई मुकर्रर की। 12 जुलाई 1989 को कोर्ट बैठी, लेकिन लगातार देरी होती रही।
निरंतर...
अयोध्यानामा के अगले भाग में जानिए...
- देश-दुनिया में राम शिलाओं की पूजा-अर्चना
- 1989 से 1991 तक क्या-कुछ घटनाक्रम हुए