पहली बार 1885 में कोर्ट पहुंचा राम जन्मभूमि केस, 3 अदालतों ने किया था खारिज, जज से लेकर कमिश्नर कोर्ट तक में कैंसिल हुई अर्जी

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Jitendra Shrivastava
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पहली बार 1885 में कोर्ट पहुंचा राम जन्मभूमि केस, 3 अदालतों ने किया था खारिज, जज से लेकर कमिश्नर कोर्ट तक में कैंसिल हुई अर्जी

रविकांत दीक्षित, AYODHYA. चौक पुराओ, मंगल गाओ... वह शुभ घड़ी आने ही वाली है, जब असंख्य भक्तों के त्‍याग, तप और तपस्या की पूर्णाहुति होगी। 22 जनवरी को मर्यादा पुरुषोत्‍तम भगवान श्रीराम हमारे भावपूरित संकल्‍प के स्‍वरूप सिंहासन पर विराजमान होने जा रहे हैं। यह सब आज की पीढ़ी को आसान सा लग सकता है, लेकिन यह लड़ाई कांटों भरी ही रही। श्रीराम जन्मभूमि विवाद में तीन शिलालेखों का जिक्र होता है, पर इनके अस्तित्व पर सवाल खड़े होते रहे हैं। कानूनी लड़ाई भी लंबी चली।

केस दर केस जानिए कैसे चली कानूनी लड़ाई...

मौलवी ने लिखी पहली चिट्ठी

19वीं सदी की पहली आधी सदी के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा हो चुका था। जैसे-जैसे ब्रिटिश हुकूमत का भारत पर प्रभाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे जनता के बीच विद्रोह बढ़ता गया। आखिर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश कानून, शासन और न्याय व्यवस्था लागू हुई। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, इसी बीच हिंदुओं ने मस्जिद के बाहरी हिस्से पर पूजा अर्चना शुरू कर दी। इसे लेकर बाबरी मस्जिद के कर्मचारी मौलवी मोहम्मद असगर ने 30 नवंबर 1858 को एक चिट्ठी लिखी। उसने कहा कि हिंदू बैरागियों ने मस्जिद के पास चबूतरा बना लिया है। मस्जिद की दीवारों पर राम-राम लिखा गया है।

निर्माण सामग्री लेकर पहुंच गया गुरमुख सिंह

इस चिट्ठी के बाद प्रशासन ने चबूतरे और मस्जिद के बीच दीवार बना दी, लेकिन मुख्य दरवाजा एक ही था। फिर शिकवा शिकायतों का दौर चलता रहा। वक्त बीतता गया। फिर अप्रैल 1883 को निर्मोही अखाड़ा ने फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर को अर्जी देकर मंदिर बनाने की अनुमति मांगी, लेकिन मुस्लिम समुदाय ने आपत्ति जड़ दी। लिहाजा, अखाड़े की अर्जी खारिज हो गई। एक महीने बाद ही मामले में नया मोड़ आया। मई 1883 में मुंशी राम लाल और राममुरारी राय बहादुर का लाहौर निवासी कारिंदा गुरमुख सिंह पंजाबी वहां निर्माण सामग्री लेकर पहुंच गया, पर डिप्टी कमिश्नर ने सामग्री हटवा दी।

जब पहली बार कोर्ट पहुंचा केस

हिन्दू संगठन राम काज को आतुर थे। बीबीसी हिन्दी की रिपोर्ट के अनुसार, निर्मोही अखाड़े के महंत रघुबर दास ने चबूतरे को राम जन्म स्थान बताया था। उन्होंने 29 जनवरी 1885 को भारत सरकार और मोहम्मद असगर के खिलाफ सिविल कोर्ट में पहला केस दायर किया। केस में उन्होंने 17X21 फीट लंबे-चौड़े चबूतरे को राम का जन्म स्थान बताते हुए मंदिर बनाने की अनुमति मांगी। दावे—आपत्तियों के बीच जज पं. हरिकिशन ने मुआयना किया। उन्होंने पाया कि चबूतरे पर भगवान राम के चरण बने हैं। मूर्ति है। उन्होंने मस्जिद की दीवार के बाहर चबूतरे और जमीन पर हिंदू पक्ष का कब्जा भी सही पाया। यह सब होने के बाद उन्होंने निर्मोही अखाड़े को चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। उनका तर्क था कि यदि मंजूरी दी तो भविष्य में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फिर संघर्ष होगा। कुल मिलाकर मस्जिद के बाहरी परिसर में मंदिर बनाने का पहला केस महंत हार गए।

दूसरे केस में डिस्ट्रिक्ट जज का इनकार

महंत रघुबर दास यहीं नहीं रुके। उन्होंने डिस्ट्रिक्ट जज चैमियर की कोर्ट में अपील की। जांच के बाद जज ने तीन महीने में ही फैसला दे दिया। डिस्ट्रिक्ट जज ने लिखा, हिंदू जिस जगह को पवित्र मानते हैं, वहां मस्जिद बनाना दुर्भाग्यपूर्ण है। चूंकि यह घटना 356 साल पहले की है, इसलिए अब इस शिकायत का समाधान करने के लिए बहुत देर हो गई है। जज ने टिप्पणी में लिखा, मौजूदा हालत में बदलाव से कोई लाभ होने के बजाय नुकसान ही होगा। चैमियर ने जज हरि किशन के फैसले को भी खारिज किया, जिसमें उन्होंने लिखा था कि चबूतरे पर पुराने समय से हिंदुओं का कब्जा है और उसके स्वामित्व पर सवाल नहीं उठ सकता।

तीसरा केस भी ज्यादा दिन नहीं टिका

यहां से निर्मोही अखाड़े ने अवध के जुडिशियल कमिश्नर डब्लू यंग की अदालत का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने 1 नवंबर 1886 को फैसला देते हुए लिखा, अत्याचारी बाबर ने साढ़े तीन सौ साल पहले जान-बूझकर ऐसे पवित्र स्थान पर मस्जिद बनाई, जिसे हिंदू रामचंद्र का जन्मस्थान मानते हैं। इस समय हिंदुओं को वहां जाने का सीमित अधिकार है और वे सीता-रसोई और रामचंद्र की जन्मभूमि पर मंदिर बनाकर अपना दायरा बढ़ाना चाहते हैं। हालांकि जजमेंट में उन्होंने लिखा कि रिकॉर्ड में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे हिंदू पक्ष का किसी तरह का स्वामित्व दिखे। इस तरह तीसरा केस भी ज्यादा दिन नहीं टिका। इसके बाद 1933 तक इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं हुआ।

बाबरी मस्जिद की हुई थी मरम्मत

फिर 1934 में बकरीद के दिन अयोध्या में दंगे भड़क गए। अंग्रेजी सरकार के पीडब्ल्यूडी विभाग के दस्तावेजों में इन दंगों का जिक्र है। उन दस्तावेजों में बाबरी मस्जिद पर हुए हमलों के बाद नुकसान का पता चलता है। इसके बाद अंग्रेजी सरकार ने बाबरी मस्जिद के क्षतिग्रस्त हिस्से की मरम्मत कराई थी। संविधान निर्माता डॉ.बीआर अंबेडकर की किताब 'Pakistan Or The Partition Of India' में अयोध्या के साथ पूरे देश में हुए सांप्रदायिक दंगों के बारे में विस्तृत जानकारी है। पता चलता है कि बकरीद के मौके पर अयोध्या में दंगे हुए। ये दंगे गोकशी के विरोध में हुए थे।

फ्लैश बैक: शिलालेखों पर संदेह

कहा जाता है कि राम जन्मभूमि की विवादित इमारत से जुड़े तीन शिलालेख हैं। उनका वर्णन और उनके अंग्रेजी अनुवाद विभिन्न न्यायालयों में रखे गए। हालांकि इन शिलालेखों के बारे में संदेह व्यक्त किया जाता रहा है। दरअसल, उन शिलालेखों में दी गई जानकारी में ही अंतर्विरोध है। तीन शिलालेखों में मस्ज़िद निर्माण संबंधी तीन अलग-अलग तारीखें और दो अलग नाम हैं। पहले शिलालेख में सन् 1528, दूसरे में 1523 तो तीसरे में 1516-17 इस प्रकार तीन अलग साल दिए गए हैं। सन् 1516-17 या सन् 1523 में बाबर भारत आया ही नहीं था। एक शिलालेख में मस्जिद निर्माण करने वाले का नाम मीर बकी तो दूसरे में मीर खान दिया है।

अयोध्या नामा के अगले भाग में जानिए... वर्ष 1934 से 1950 तक के वो संघर्ष से भरे 16 वर्ष... आजादी के बाद की दास्तां।

  • 1936 में मुसलमानों के दो समुदायों शिया और सुन्नी के बीच इस बात पर कानूनी विवाद उठ गया कि मस्जिद किसकी है।
  • कैसे फैजाबाद कोर्ट ने बाबरी मस्जिद को विवादित भूमि घोषित किया और इसके मुख्य दरवाजे पर ताला लगाया।
  • 1950 का वो साल कैसा रहा, जिसमें हिंदू महासभा ने फैजाबाद जिला अदालत में अर्जी दाखिल कर रामलला की मूर्ति की पूजा का अधिकार देने की मांग की।
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