BHOPAL. मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव का शोरगुल समाप्त हो चुका है अब तो सिर्फ मुख्यमंत्री के राज्याभिषेक की तैयारियों पर कयास लग रहे हैं। यदि बीजेपी की जीत का विश्लेषण किया जाए तो यह पता चलता है कि मध्यप्रदेश में बीजेपी ने अपने कई गढ़ बनाए हैं। 40 सीटों पर पार्टी बीते 5 विधानसभा चुनाव से जीतती चली आ रही है। कुछ गढ़ बीजेपी के हाथ से फिसले तो कई कांग्रेसी गढ़ भी बीजेपी ने हथिया लिए।
बीजेपी के पास 40 तो कांग्रेस के पास महज 1
बीजेपी और कांग्रेस की तुलना की जाए तो बीजेपी के पास ऐसी 40 विधानसभा सीटें हैं जो गढ़ में तब्दील हो चुकी हैं वहीं कांग्रेस के पास पूरे प्रदेश में एकमात्र ऐसी सीट है, जिसे वह अपना गढ़ कह सकती है। वहीं अगर आंकड़ा लगातार 4 जीतों का कर लिया जाए तो बीजेपी के पास ऐसी 53 सीटें हैं। आंकड़े को और छोटा कर लें और लगातार 3 मर्तबा जीती जाने वाली सीटों की बात करें तो बीजेपी 68 सीटों पर ऐसा कर चुकी है। यही नहीं लगातार 2 बार से बीजेपी 89 सीटों पर जीतती चली आ रही है।
गुजरात की तर्ज पर बढ़ रही मप्र की प्रयोगशाला
मध्यप्रदेश को बीजेपी की प्रयोगशाला कहा जाता है। मप्र के अलावा सिर्फ गुजरात में बीजेपी 25 साल 9 माह से सत्ता पर काबिज है। मध्यप्रदेश में साल 2018 में 15 माह के लिए बीजेपी से शासन की बागडोर जरूर छिन गई थी लेकिन उसे अलग कर दिया जाए तो 18 सालों से शिवराज सिंह चौहान ही प्रदेश के मुखिया हैं।
बीजेपी के एमपी की जड़ों तक में बस जाने के पीछे कई कारण हैं, उनमें से कुछ का जिक्र किया जाए तो ये फैक्टर ही मुख्य रूप से सामने आते हैं।
बीजेपी और आरएसएस का मजबूत कैडर
मध्यप्रदेश शुरुआत से ही आरएसएस का गढ़ रहा
भारतीय जनता पार्टी की स्थापना तो साल 1980 में हुई थी, लेकिन आरएसएस अपनी स्थापना के बाद से मध्यप्रदेश में अपनी जड़ें जमा चुका था। जनसंघ का भी मध्यप्रदेश में काफी असर रहा। बीजेपी की स्थापना के बाद इस प्रभाव को कायम रखा गया।
घर-घर में हैं आरएसएस के स्वयंसेवक
बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में शामिल लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेई, विजयाराजे सिंधिया और कुशाभाऊ ठाकरे की कर्मभूमि रहे मध्यप्रदेश में इन नेताओं ने आरएसएस और बीजेपी के नेटवर्क को मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 1993 से 2003 तक जब बीजेपी यहां विपक्ष में थी, तब भी उसके नेताओं का अच्छा-खासा वर्चस्व रहा। आम चुनावों में भी बीजेपी को यहां से हमेशा अच्छी सीटें हासिल हुईं।
मिलकर लड़ते हैं चुनाव
राजनैतिक पंडित बताते हैं कि अगर किसी इलाके में किसी पार्टी के 4 नेता हैं और 400 कार्यकर्ता हैं। तो किसी एक नेता को टिकट मिलने पर एक नेता और उसके 100 कार्यकर्ता ही पार्टी के लिए प्रचार करते हैं, बाकी घर बैठ जाते हैं। लेकिन बीजेपी में टिकट किसी को भी मिले, उसके चुनिंदा कार्यकर्ताओं को छोड़ दिया जाए तो बाकी पूरे के पूरे कार्यकर्ता मैदान में दिखाई देते हैं।
नेहरु भी वाकिफ थे एमपी में आरएसएस की ताकत से
राजनैतिक इतिहास के जानकार बताते हैं कि मध्यप्रदेश शुरुआत से ही दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित रहा है। 1952 में ही जब देश का पहला चुनाव था तब कांग्रेस मध्यप्रदेश में कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पाई थी। तब नेहरू ने ग्वालियर के महाराजा जीवाजीराव सिंधिया को चुनाव लड़ने के लिए कहा। उन्होंने खुद तो नहीं बल्कि अपनी पत्नी विजयाराजे को चुनाव लड़वाया। विजयाराजे 1962 के चुनाव तक तो कांग्रेस से चुनाव लड़कर जीतीं। लेकिन बाद में बीजेपी की संस्थापक सदस्य भी बनीं। दरअसल नेहरू को शुरुआत से ही यह बात पता थी कि मध्यप्रदेश में दक्षिणपंथी विचारधारा हावी है।
राम मंदिर आंदोलन ने वोटर्स को खींचा
इस बीच राममंदिर आंदोलन ने बीजेपी को और मजबूत किया, खासकर मध्यप्रदेश में, संदेश यह गया कि बीजेपी अपने लक्ष्य को पाने सत्ता की भी बलि देने तैयार रहती है। जिसका फायदा बीजेपी को लंबे समय तक हुआ।
नेता की लोकप्रियता से गढ़ में तब्दील हुई सीटें
बीजेपी के 40 गढ़ों की बात की जाए तो उनमें से 17 सीटें तो एक ही उम्मीदवार या उसके परिवार के प्रभाव वाली हैं। सागर से शैलेंद्र जैन, रहली से गोपाल भार्गव, नरेला से विश्वास सारंग, जबलपुर केंट से अशोक रोहाणी, नीमच से दिलीप सिंह परिहार, इंदौर-5 से महेंद्र हार्डिया