मनीष गोधा, JAIPUR. क्या राजस्थान में चुनाव लडने की इच्छा रखने वालों की कमी हो गई है? इस बार चुनाव लड रहे प्रत्याशियों की संख्या तो ऐसा ही कुछ बता रही है। पिछले तीन चुनाव की बात करें तो इस बार सबसे कम प्रत्याशी चुनाव मैदान मे दिख रहे हैं। पिछले चुनाव के मुकाबले ही देखें तो इस बार 400 से ज्यादा प्रत्याशी कम हो गए हैं। राजस्थान के चुनाव में इस बार चुनाव का धूम-धड़ाका तो ठीकठाक दिख रहा है और टिकट मिलने की आस में नेताओं और राजनीति में प्रवेश की इच्छा रखने वाले लोगों की राजनीतिक दलों में आवाजाही भी अच्छी रही है, लेकिन चुनाव मैदान में प्रत्याशी कम दिख रहे हैं और यह बात राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वालों लोगो के बीच चर्चा का विषय भी है।
विधानसभा में प्रत्याशियों का औसत दहाई से भी कम
राजस्थान में इस बार कुल 1875 प्रत्याशी चुनाव मैदान में है और विधानसभा की 200 सीटों के हिसाब से औसत निकाला जाए तो एक सीट पर नौ प्रत्याशी दिख रहे हैं। यानी आंकड़ा दहाई से भी कम है। इस बार सबसे अधिक 18 प्रत्याशी जयपुर जिले की झोटवाड़ा सीट पर और सबसे कम तीन प्रत्याशी दौसा जिले की लालसोट सीट पर है। स्थिति यह है कि करीब 110 सीटें ऐसी हैं जहां दस से कम प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे हैं। राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कहना है कि चुनाव लड़ने के प्रति ऐसी अरूचि पहली बार ही देखने में आई है और इसके पीछे एक बड़ा कारण यह है कि आजकल पार्टियों के टिकट मिलना आसान नहीं रह गया है और निर्दलीय चुनाव लड़ना हर किसी के बस की बात नहीं है।
यह प्रमुख कारण आए सामने
- बडे राजनीतिक दलों में स्थान बनाना आसान नहीं है।
- इन दलों में टिकट वितरण भी अब इतना केन्द्रीयकृत हो गया है कि आम कार्यकर्ता की तो पहुंच ही नहीं है।
- चुनाव के समय आने वाले लोग टिकट पा जाते हैं और कार्यकर्ता देखता रह जाता है।
- पैसा एक बहुत बड़ा कारण है। टिकट हासिल करने के लिए भी खर्च करना पड़ता है और चुनाव लड़ने के लिए भी खर्च करना पड़ता है। चुनाव आयोग तक ने न्यूनतम सीमा 40 लाख तय कर रखी है। ऐसे में आम कार्यकर्ता तो सोच भी नहीं पाता।
पार्टियों ने कार्यकर्ता निर्माण की प्रक्रिया बंद कर दी है
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ का कहना है कि राजनीतिक दलों में नेता समाज सेवा या संघर्ष के बूते जगह बनाते थे और अब यह दोनो ही काम बंद हो गए है। राजनीतिक दलों ने एक सोचे समझे कदम के तहत कार्यकर्ता निर्माण की प्रक्रिया ही बंद कर दी है। अब राजनीतिक दलों में ऐसे लोगों को जगह मिलती है जो किसी ना किसी व्यवस्था के तहत ऊपर तक पहुंचते हैं। यह चुनाव इस स्थिति को बहुत अच्छी तरह दिखाता है। इसके अलावा पैसा एक बड़ा कारण है, जिसके चलते आम कार्यकर्ता तो प्रत्याशी बनने की सोच भी नहीं पाता।
जनता और कार्यकर्ता सभी निराश हैं
वहीं राजनीतिक विश्लेषक जगदीश शर्मा का कहना है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था मे जिस तरह की विकृतियां पनपी हैं, उसके चलते जनता और कार्यकर्ता दोनों ही निराश हैं। इसके अलावा चुनाव लडने का खर्च भी एक बड़ा कारण है, क्योंकि निर्दलीय भी वही जीत पाते हैं जिनके पास कोई अच्छी पाॅलिटिकल बैकिंग होती है।
पिछले चुनावों की खास बातें
- 2018 में 2294 प्रत्याशी मैदान में थे जिनमें 840 निर्दलीय थे। वहीं 2013 में 2096 प्रत्याशी मैदान में थे, जिनमें से 756 निर्दलीय थे।
- 1952 से अब तक सबसे ज्यादा उम्मीदवार साल 1990 में थे। उस समय 3088 उम्मीदवार मैदान में थे, जिसमें से 2498 निर्दलीय थे। जबकि वर्ष 1957 में सबसे कम उम्मीदवार 653 चुनाव लड़े थे।
- इस बार तो प्रत्याशियों की संख्या ही अधिकतम 18 है जबकि वर्ष 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में सांगानेर से 29, आदर्शनगर से 31 और किशनपोल से 46 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था। इन तीनों सीटों पर अशोक लाहोटी (भाजपा), रफीक खान (कांग्रेस) और अमीन कागजी (कांग्रेस) ने चुनाव जीता।
- किशनपोल राजस्थान की सबसे कम मतदाताओं वाली सीट है, लेकिन यहां वर्ष 2018 में उम्मीदवारों की संख्या 46 थी। यह राजस्थान में पिछले दो दशक में हुए चुनावों में अब तक की सबसे बड़ी संख्या है। इस बार इस सीट पर सिर्फ 8 उम्मीदवार चुनाव मैदान में है।