अरुण तिवारी, BHOPAL. टिकट बंटने के साथ ही बीजेपी और कांग्रेस में बवाल मचा हुआ है। डैमेज अनकंट्रोल है और डिजास्टर मैनेजमेंट काम नहीं आ रहा। बागी सियासत की धुरी बन गए हैं। जो इनसे पार पाएगा सिंहासन उसी की होगी। इतिहास देखें तो बागी चुनाव में बड़ा असर डालते हैं, लेकिन चुनाव का परिणाम उनके राजनीतिक भविष्य को तय करने में अहम रोल अदा करता है। बागी यदि कामयाब हुए तो वे असरदार साबित होते हैं और यदि उनके हाथ नाकामयाबी लगी तो वे राजनीति में पिटे हुए मोहरे साबित हो जाते हैं। फिर न उनकी पूछ परख होती है और न ही उनका कोई दबाव काम आता है।
सियासी नफा-नुकसान तय कर रहे बागी
इन दिनों तीन दर्जन सीटों पर कांग्रेस और दो दर्जन सीटों पर बीजेपी बागवत की आग में झुलस रही है। बागी भी तोल मोल कर अपना मोल भाव कर रहे हैं। जो बीजेपी से नाराज हैं वे कांग्रेस की झोली में गिर रहे हैं तो कांग्रेस से खफा हैं वे बीजेपी का झंडा उठा रहे हैं। पिछले चुनाव को देखें तो जो बागी यदि सफल हुए उनको सियासत हाथों हाथ ले रही है। लेकिन जिनका चुनाव में जोर नहीं चला उनकी इस चुनाव में कोई पूछ परख नहीं है। यहां तक कि जिनको जीत नहीं मिली लेकिन अपनी पार्टी की जीत का रंग बिगाड़ दिया उनको इस बार टिकट का ईनाम मिला। जो बागी होकर विधायक बने और जिन्होंने पिछले चुनाव में बड़ा असर डाला वे इस बार बने बीजेपी के उम्मीदवार हैं। वहीं बीजेपी के बागियों को कांग्रेस में टिकट मिल गई है।
पिछले चुनाव के बागी, इस बार ले उड़े टिकट
प्रदीप जायसवाल:
पिछले चुनाव में वारासिवनी से कांग्रेस ने टिकट काटा और संजय मसानी को उम्मीदवार बनाया। जायसवाल नाराज हुए और निर्दलीय चुनाव लड़ा। चुनाव जीतकर विधायक बने। कांग्रेस सरकार में खनिज मंत्री बने, बीजेपी सरकार में खनिज निगम के अध्यक्ष बन गए। इस चुनाव में बीजेपी ने उनको पार्टी में शामिल किया और वारासिवनी से उम्मीदवार बना दिया।
राजेश शुक्ला:
पिछले चुनाव में कांग्रेस से नाराज होकर बिजावर से समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और चुनाव जीते। इस बार बीजेपी ने उनको बिजावर से उम्मीदवार बनाया।
विक्रम राणा:
पिछली बार विक्रम राणा नरसिंहगढ़ से निर्दलीय विधायक बने। इस बार बीजेपी ने उनको अपनी सीट से टिकट दे दिया।
सुरेंद्र सिंह शेरा:
पिछले चुनाव में कांग्रेस से नाराज होकर सुरेंद्र सिंह शेरा ने बुराहनपुर से चुनाव लड़ा। शेरा निर्दलीय विधायक बने। इस बार कांग्रेस ने उनको बुरहानपुर से टिकट दिया है।
समंदर पटेल:
ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक समंदर पटेल कांग्रेस के नेता थे। सिंधिया के साथ बीजेपी में शामिल हो गए। लेकिन इस चुनाव से पहले वे फिर कांग्रेस में लौट आए। कांग्रेस ने उनको जावद से टिकट दिया।
राजकुमार मेव:
पिछले चुनाव में राजकुमार मेव का बीजेपी ने टिकट काट दिया। मेव ने महेश्वर से निर्दलीय चुनाव लड़ा। उनकी मौजूदगी ने कांग्रेस की विजयलक्ष्मी साधौ को असान जीत दिला दी। बीजेपी ने इस बार महेश्वर से राजकुमार मेव को टिकट दे दिया।
अंबरीश शर्मा:
लहार सीट बीजेपी के लिए हमेशा से दूर की कौड़ी रही है। यहां की बगावत बीजेपी को इस सीट से और दूर ले जाती है। पिछले चुनाव में बीजेपी से बागी होकर अंबरीश शर्मा ने पार्टी का पूरा खेल बिगाड़ दिया। इस बार बीजेपी ने लहार से अंबरीश शर्मा को टिकट दे दिया। अब यहां से बीजेपी से नाराज होकर रसाल सिंह बसपा से उम्मीदवार हैं।
गौरव पारधी:
गौरव बीजेपी के तेज तर्रार युवा नेता हैं। बीजेपी ने इनको कटंगी से उम्मीदवार बनाया है। गौरव ने पिछले चुनाव में बीजेपी के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक दिया था। बीजेपी ने अगले चुनाव में टिकट का वादा कर मना लिया था। लेकिन टिकट न मिलता देख गौरव आम आदमी पार्टी में शामिल हो गए। पार्टी ने आनन-फानन में उनको टिकट देकर वापस बुलाया।
नरेंद्र सिंह कुशवाह:
पिछले चुनाव में नरेंद्र सिंह कुशवाह टिकट कटने से नाराज होकर निर्दलीय उम्मीदवार बने। इससे पहले वे एक बार बीजेपी के विधायक रहे हैं। इस बार नरेंद्र सिंह कुशवाह को भिंड से टिकट दिया गया है।
इनसे दूर रही टिकट...
संजीव कुशवाह:
पिछले चुनाव में संजीव कुशवाह बसपा के विधायक बने। चुनाव से पहले बीजेपी ने उनको अपने पाले में ले लिया। माना गया कि यहां से संजीव को बीजेपी की टिकट मिलेगी। लेकिन यहां पर नरेंद्र सिंह तोमर ने अपने समर्थक नरेंद्र कुशवाह को टिकट दिला दिया। बीजेपी में शामिल होने के बाद भी उनके हाथ खाली रहे। अब वे यहां फिर चुनाव मैदान में नजर आने वाले हैं, जिताउ पार्टी की तलाश में हैं।
वीरेंद्र रघुवंशी:
कोलारस के मौजूदा विधायक वीरेंद्र रघुवंशी ने राजनीतिक हालात भांपकर बीजेपी छोड़ दी और कांग्रेस में शामिल हो गए। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने उनको शिवपुरी से उम्मीदवार बनाने का वादा किया। लेकिन वादा टूट गया और वे टिकट से वंचित हो गए। अब कांग्रेस अपना टिकट बदलकर वीरेंद्र रघुवंशी को टिकट देने पर विचार कर रही है।
समीक्षा गुप्ता:
पिछले चुनाव में समीक्षा गुप्ता ने ग्वालियर दक्षिण सीट से बीजेपी के बागी के रुप में चुनाव लड़ा। निर्दलीय उम्मीदवार होने के बाद भी समीक्षा को तीस हजार से ज्यादा वोट मिले। बीजेपी के उम्मीदवार नारायण सिंह कुशवाह चुनाव हार गए। वे कांग्रेस के प्रवीण पाठक से महज सवा सौ वोटों से हार गए। उनकी हार का मुख्य वजह समीक्षा की बगावत ही मानी गई। लेकिन इस बार फिर पार्टी ने नारायण को टिकट दे दिया और समीक्षा की झोली खाली रही।
बीजेपी के बागी बने कांग्रेस के साथी...
दीपक जोशी:
बीजेपी के दिग्गज नेता रहे कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी पार्टी से नाराज होकर कांग्रेस में शामिल हो गए। दीपक जोशी तीन बार विधायक और पूर्व मंत्री रहे हैं। दीपक जोशी को कांग्रेस ने खातेगांव से टिकट दिया है।
भंवर सिंह शेखावत:
सिंधिया समर्थक राज्यवर्धन सिंह दत्तीगांव ने भंवर सिंह शेखावत की सीट पर कब्जा जमा लिया है। शेखावत नाराज हो गए और कांग्रेस में शामिल हो गए। भंवर सिंह शेखावत को कांग्रेस ने बदनावर से उम्मीदवार बनाया है।
बोधसिंह भगत:
भगत बीजेपी के सांसद रहे हैं लेकिन गौरीशंकर बिसेन से उनकी पटरी नहीं बैठी। भगत ने बीजेपी छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया। कांग्रेस ने उनको कटंगी से टिकट दिया है।
पिछले चुनाव के इन बागियों की पूछ परख नहीं...
रामकृष्ण कुसमरिया:
पिछले चुनाव में पांच बार के सांसद रामकृष्ण कुसमरिया दमोह से पार्टी के आधिकारिक उम्मीदवार जयंत मलैया के खिलाफ निर्दलीय खड़े हुए। असर कुछ खास नहीं रहा। अब पार्टी में उनकी कोई पूछ परख नहीं है।
ब्रहमानंद रत्नाकर:
रत्नाकर बैरसिया से बीजेपी के विधायक रहे हैं। वे पिछले चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रुप में खड़े हुए। लेकिन अपना असर नहीं छोड़ पाए। अब वे बीते दिनों की कहानी बनकर रह गए हैं।
धीरज पटेरिया:
भारतीय जनता युवा मोर्चा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष धीरज पटेरिया की बीजेपी से चुनाव लड़ने की हसरत इस बार भी पूरी नहीं हो सकी। पिछले चुनाव में वे निर्दलीय उम्मीदवार के रुप में खड़े हुए थे। हाल ही में वे फिर बीजेपी में शामिल हो गए।उनको इस बार टिकट मिलने का भरोसा था लेकिन उनकी टिकट युवा मोर्चा के एक और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और वीडी शर्मा समर्थक अभिलाष पांडे को मिल गई।
कमल मर्सकोले:
एससी के लिए आरक्षित बरघाट विधानसभा सीट से कमल मर्सकोले ने पार्टी से बगावत की। वे एक बार बीजेपी के विधायक रह चुके हैं।
46 सीटों पर हार-जीत का अंतर तीन फीसदी से भी कम..
बागियों की अहमियत इसलिए ज्यादा है क्योंकि प्रदेश की 46 सीटें ऐसी हैं जिनमें जीत-हार का अंतर तीन फीसदी से कम है। 2018 में कम अंतर से जीतने वाली इन 46 सीटों में 23 बीजेपी के और 20 कांग्रेस ने जीती थीं। जबकि तीन अन्य सीटें दो निर्दलीय और एक बसपा उम्मीदवार का जीत का अंतर बेहद कम रहा था। करीबी अंतर से जीतने वाले इन 46 विधायकों में से 17 विधायक 1 फीसदी से कम वोट शेयर से जीते। 13 विधायक ऐसे थे जिनकी जीत का अंतर 1 से 2 फीसदी वोट ही रहे। अन्य 16 विधायक महज 2-3 फीसदी वोट शेयर के अंतर से जीते।