BHOPAL. चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा 28 लाख से बढ़ाकर 40 लाख कर दी। लेकिन क्या उम्मीदवार 40 लाख में चुनाव लड़ कर विधायक बन जाएंगे। सवाल बहुत सरल है लेकिन जवाब थोड़ा कठिन। इन दिनों मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मचे सियासी घमासान और वर्चस्व की लड़ाई में जिस तरह से राजनीतिक दल और उम्मीदवारों की जीत की जंग चल रही है, उससे बहुत साफ नजर आता है कि विधायकी के चुनाव में चार से पांच गुना तक खर्च होगा। यानी एक उम्मीदवार विधायकी के लिए दो से तीन करोड़ रुपए खर्च करेगा। इस खर्च को छिपाने के लिए उम्मीदवारों को कई तरह की बाजीगरी करनी पड़ती है। आइए ये पड़ताल करते हैं कि आखिर किस-किस तरह से उम्मीदवार अपने बेहिसाब खर्च का हिसाब बनाते हैं।
इस खर्च की असलियत कुछ और...
गाड़ियों का लाव लश्कर, कार्यकर्ताओं का हुजूम, स्टार प्रचारकों की सभाएं, गांव-गांव में चुनाव प्रचार। इन दिनों सियासत के यही नजारे हैं। अब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रचार थम गया है। लेकिन पिछले एक महीने से ज्यादा वक्त से चुनावी राज्यों में यही चल रहा है। एक महीने तक चला इतना तामझाम क्या 40 लाख की लिमिट के अंदर हो रहा है। शायद नहीं। इस बेहिसाब खर्च का हिसाब तो 40 लाख के अंदर ही बनाया जाएगा लेकिन असलियत कुछ और है। इस घोषित व्यय के अलावा समर्थकों द्वारा किए जाने वाले प्रचार-प्रसार सहित अन्य कार्यों पर जो खर्च होता है, उसका आधिकारिक हिसाब-किताब नहीं होता है। यह खर्च भी प्रत्याशी ही दबे-छुपे करता है। चुनाव के समय शराब और नकदी बांटने की शिकायतें सामने आती हैं। जानकारों के अनुमान के मुताबिक एक चुनाव पर करीब दो से तीन करोड़ रुपए खर्च होते हैं। यहां पर उम्मीदवार की बाजीगरी चलती है। आइए आपको बताते हैं कि किस तरह इस बेतहाशा चुनावी खर्च को लिमिट के दायरे के अंदर दिखाया जाता है। इसमें किस तरह की ट्रिक का इस्तेमाल नेता करते हैं जिससे दाग भी मिट जाएं और किसी को पता भी न चले।
बेहिसाब खर्च का चुनावी हिसाब-किताब
वाहन : चुनाव आचार संहिता के हिसाब से जो वाहन उम्मीदवार इस्तेमाल करेगा उसकी अनुमति चुनाव आयोग से लेनी पड़ती है। उम्मीदवार सीमित संख्या में अपने लिए, चुनावी एजेंटों के नाम पर वाहन की अनुमति लेते हैं। उनकी गाडियों पर अनुमति पत्र लगा होता है और उनके झंडे भी लहरा रहे होते हैं। लेकिन उनके साथ जो काफिला चलता है उन पर प्रेस लिख दिया जाता है, कुछ सामाजिक संगठनों के नाम पर चलती हैं। इनमें डीजल भले ही गोपनीय तरीके से उम्मीदवार भरवाता हो लेकिन ये उसके चुनाव खर्च में जुड़ने से बच जाती हैं।
भंडारा या भोजन : चुनाव में लगे उम्मीदवार या पार्टी के कार्यकर्ताओं का खर्च चुनाव लड़ने वाला नेता ही उठाता है। कार्यकर्ताओं के भोजना,चाय,नाश्ते और ठहरने के इंतमाज में बेहद सतर्कता बरती जाती है। अलग-अलग सामाजिक संस्थाओं के नाम पर भंडारा चलाया जाता है। उसका पैसा भले ही उम्मीदवार देता हो लेकिन उन पर नाम अन्य संगठनों का होता है जो उसके चुनाव खर्च में नहीं जुड़ता। आयोग को दिए जाने वाले बिल में आयोग की रेट लिस्ट के हिसाब से ही सामग्री लिखी होती है लेकिन वास्तविकता में उसका खर्च अलग होता है।
डमी प्रत्याशी उतारना : उम्मीदवार अपने खर्च का मैनेजमेंट करने के लिए डमी उम्मीदवार अपनी तरफ से उतार देते हैं। डमी उम्मीदवारों की संख्या एक या एक से ज्यादा भी होती है। ये निर्दलीय उम्मीदवार उस नेता के लिए ही काम करतें हैं जिसने उसका फॉर्म भरवाया है। चालीस लाख के हिसाब से खर्च उन निर्दलीय उम्मीदवारों के के खाते में डाल दिया जाता है।
पार्टी के नाम पर खर्च : उम्मीदवार के लिए 40 लाख की लिमिट है लेकिन राजनीतिक दल के लिए कोई लिमिट नहीं है। यही कारण है कि उम्मीदवार रैली,स्टार प्रचारकों की सभाएं पार्टी के खाते में डाल देता है। हालांकि इस तरह की सभाओं का खर्च चुनाव आयोग तय करता है और उस जिले के उम्मीदवारों के हिस्से में जोड़ा जाता है।
उम्मीदवार का अलग खाता : चुनाव आयोग के निर्देश के अनुसार उम्मीदवार का चुनाव खर्च के लिए अलग से खाता होता है। इस खाते से ही सारे खर्च किए जाते हैं। औपचारिक तौर पर उम्मीदवार इसी से लिमिट के अंदर खर्च करता है। बाकी अनौपचारिक तौर पर अलग फंडिंग से खर्च होते हैं। दस हजार से उपर की राशि चेक से ही दी जाती है। वहीं चुनाव खर्च लिखने के लिए रजिस्टर या डायरी भी रखी जाती है।
10 रुपए के नोट की नई गड्डी का इस्तेमाल : आमतौर पर पैसे बांटने, साडियां देने, सामग्री उपलब्ध कराने से लेकर शराब बांटने तक के मामले सामने आते हैं। इन पर ही उम्मीदवार का सबसे ज्यादा खर्च होता है। सूत्रों की मानें तो इन पर 50 लाख रुपए से ज्यादा का खर्च आता है। लेकिन इसके लिए उम्मीदवार नई ट्रिक अपनाने लगे हैं। अब शराब या अन्य खाद्य सामग्री के लिए पर्ची नहीं बल्कि दस का नोट दिया जाता है। दस के नोट की सीरीज के नंबर पहले ही दुकानदार को बता दिए जाते हैं। कोई व्यक्ति उस सीरीज का नोट ले जाता है और उसे निर्धारित सामग्री मिल जाती है।
जनता के प्रलोभन पर करोड़ों का खर्च
चुनाव आयोग भले ही लाख चौकसी बरते लेकिन व्यवहारिक तौर पर ऐसा कोई सिस्टम तैयार नहीं हुआ है जो अवैध गतिविधियों पर अंकुश लगा सके। जनता को अपने पक्ष में प्रलोभन देने के लिए कई तरह के तरीके इस्तेमाल किए जाते हैं। इनमें शराब, साड़ी या अन्य सामान बांटना तक शामिल है। वहीं चुनाव आचार संहिता के पहले जो उम्मीदवार घोषित हो जाते हैं उनका चुनाव प्रचार का खर्च की गणना नहीं की जाती।
चुनाव के लिए 350 करोड़ का बजट
इस बात को सभी मानते हैं और अवैध गतिविधियों पर नियंत्रण करने के दावे भी किए जाते हैं। लेकिन हकीकत यही है कि शराब भी बंटती है और नकदी भी। अन्य प्रलोभन भी दिए जाते हैं। यही कारण है कि चुनाव खर्च कई करोड़ में होता है। अनुमान है कि औसत दो से तीन करोड़ रुपए तक एक विधानसभा क्षेत्र में खर्च होंगे। पूरे चुनाव में लगभग दो हजार करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। उधर, सरकार ने चुनाव में होने वाले व्यवस्था व्यय के लिए 350 करोड़ रुपये का बजट रखा है।
चुनाव आयोग के नियमानुसार यदि किसी उम्मीदवार ने तय सीमा से अधिक खर्च दिखाया तो वह लोक प्रतिनिधत्व अधिनियम के तहत तीन साल तक के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है। यदि किसी उम्मीदवार ने चुनाव खर्च दाखिल नहीं किया तो वो भी तीन साल तक के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है। वहीं यदि कोई शिकायतकर्ता यह साबित कर दे कि उम्मीदवार ने ज्यादा खर्च किया है और दिखाया कम है तो उम्मीदवार के खिलाफ याचिका दायर की जा सकती है।