BHOPAL. मध्यप्रदेश की सियासत में तीसरे पक्ष यानी छोटे दलों की कोई बहुत निर्णायक भूमिका कभी नहीं रही है। इससे दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों के अंदर अहंकार और सामंती भाव भी पैदा हुआ है। वे इतने गर्वीले अंदाज में मतदाता के सामने जाती हैं, मानों कह रही हों कि बच्चू वोट तो हमें ही देना पड़ेगा। चाहे तुम्हारा मन हो या नहीं हो। बड़ी पार्टियों की इस सोच ने मतदाताओं के सामने मध्यप्रदेश में कभी दुविधा की स्थिति नहीं पनपने दी। वह सिर्फ सीमित इलाके में अन्य दलों पर भरोसा करता है। उत्तरप्रदेश से सटे बघेलखण्ड, बुंदेलखंड और चम्बल इलाके में कुछ ऐसी ही स्थिति है। वहां की समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी अपने कुछ जुगनू चमकाती हैं और चुनाव संपन्न हो जाते ही सारे जुगनू सो जाते हैं। अफसोस ! इन पार्टियों का भारतीय लोकतंत्र की वैचारिक धुरी को मजबूत करने में कोई योगदान नहीं है। अलबत्ता वे दोनों शिखर पार्टियों की पिछलग्गू बनकर अपना अस्तित्व बचाए रखने में कामयाब रही हैं। इन पार्टियों को बागी की शक्ल में बड़े दलों से रॉ मटेरियल मिल जाता है। वे उन पर अपनी सियासी रोटियां सेंकती रहती हैं।
देश में वैचारिक धरातल पर 2 ध्रुव
इस बार कांग्रेस की अगुआई में बने इंडिया गठबंधन से आशाएं जगी थीं कि अब देश में वैचारिक धरातल पर दो ध्रुव विकसित हो रहे हैं, जिनकी भारतीय लोकतंत्र को बेहद जरूरत थी। लेकिन गठबंधन के अस्तित्व में आने के बाद पांच प्रदेशों में विधानसभा चुनावों में ही ये बिखर गया। बीते दिनों राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी एनसीपी के मुखिया शरद पवार ने एक बयान में स्पष्ट कर दिया कि इंडिया में शामिल पार्टियों के नेताओं में प्रदेश स्तर पर गठबंधन पर अमल करने को लेकर मतभेद हैं। वे अगले साल लोकसभा चुनाव के दौरान तो एक मंच पर आने के लिए राजी हैं, मगर प्रादेशिक स्तर पर अलग-अलग विचार रखते हैं। पवार का बयान ऐसे वक्त पर आया, जब मध्यप्रदेश में इंडिया गठबंधन की 4 पार्टियां समाजवादी पार्टी, जेडीयू, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और आम आदमी पार्टी खुलकर चुनाव मैदान में उतरी हैं। वे गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतार चुकी हैं। कई सीटों पर उनके प्रत्याशी कांग्रेस के लिए परेशानी का सबब बन गए हैं। ध्यान देने वाली बात है कि एनसीपी ने मध्यप्रदेश में उम्मीदवार खड़े नहीं किए हैं। एक जमाने में एनसीपी राज्य में अपना विधायक सदन में भेज चुकी है। मालवा-निमाड़ में उसका जनाधार, कमोबेश वैसा ही है, जैसा बुंदेलखंड में समाजवादी पार्टी का। आपको याद होगा कि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को पहले भ्रम था कि यह गठबंधन राज्य स्तर पर भी है। कांग्रेस के शिखर नेतृत्व से बात करने पर मामला तो सुलझ गया, लेकिन अखिलेश यादव का गुस्सा बरकरार है। कांग्रेस के बारे में उनके तीख़े बोल दिनों दिन और कड़वे होते जा रहे हैं।
अपने दम पर होगी लड़ाई
इसी बीच बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह ने भी समाजवादी पार्टी के मजे लिए। उन्होंने अपने दल के उम्मीदवारों से कहा कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की मदद करिए। उनका इशारा आर्थिक मदद से था। इससे समाजवादी पार्टी भड़क उठी। उसने साफ-साफ कहा कि किसी प्रत्याशी को बीजेपी की सहायता नहीं चाहिए। वे अपने दम पर चुनाव जीत कर दिखाएंगे। अलबत्ता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय सचिव डॉक्टर सुनीलम ने मुलताई से चुटकी लेते हुए कहा कि अमित शाह झूठ बोलने के आदी हैं। उनकी पार्टी ने 75 उम्मीदवार पूरे प्रदेश में खड़े किए हैं।अभी तक तो उनके पास एक पैसे की मदद नहीं पहुंची। क्या वे समाजवादी पार्टी के 75 प्रत्याशियों के सामने से अपने उम्मीदवार हटाएंगे। इस मामले पर बीएसपी ने अभी तक चुप्पी साध रखी है। असल में अमित शाह के कथन का अर्थ ये है कि बीजेपी समझ गई है कि इस बार पार्टी से उसके अपने मतदाता नाराज हैं। वे गुस्से में कहीं कांग्रेस को वोट न कर दें। इससे सीधे-सीधे पार्टी हारेगी, लेकिन यदि वे समाजवादी पार्टी या बीएसपी को वोट करते हैं तो बीजेपी कम अंतर से ही सही, लेकिन कुछ सीटें जीत सकती है। एक जमाने में अपने सामने विपक्ष के वोट बंटने का फायदा कांग्रेस को बहुत मिला है। हालांकि अमित शाह ने रूठे फूफाओं को उनके हाल पर छोड़ देने की बात उस इलाके में कही, जहां फूफा या घर के दामाद को किसी भी सूरत में नहीं छोड़ा जाता। चाहे कुछ भी हो जाए। घर के दामाद की स्थिति सारे रिश्तों में सबसे ऊपर होती है। पार्टी कार्यकर्ता कहते हैं कि अंतिम दिनों में अटल जी और उनके बाद आडवाणी, फिर यशवंत सिन्हा और उन जैसे तमाम वरिष्ठ नेता फूफा ही तो थे। इसका मतलब है कि पार्टी अब फूफा, दामाद, जीजा और ननदोई जैसे रिश्तों की परवाह नहीं करती।
क्या कहते हैं आंकड़े ?
आंकड़ों की बात करते हैं। इस इलाके के दतिया, टीकमगढ़, निवाड़ी, सागर, दमोह, सीधी, सतना और पन्ना जिलों में समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी का असर है। बैतूल और होशंगाबाद (नर्मदापुरम) भी समाजवादी विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। यदि आंकड़ों में देखें तो समाजवादी पार्टी के लिए 2003 के विधानसभा चुनाव स्वर्णिम थे। लगभग 4 फीसदी मत पाकर उसके 7 विधायक चुनकर आए थे। उनके अलावा 28 क्षेत्रों में सपा प्रत्याशियों ने अच्छे खासे वोट हासिल किए थे। इसी चुनाव में बीएसपी ने तो 8 फीसदी मत पाए थे, लेकिन उसके सिर्फ 2 विधायक जीते थे। इन दो दलों के अलावा गोंगपा के 3, राष्ट्रीय समानता दल के 2, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का 1, जेडीयू का 1, सीपीएम का 1 और निर्दलीय 2 विधायक जीते थे। पर इनकी कामयाबी के पीछे खास बात यह थी कि उस चुनाव में दिग्विजय सरकार के दस साल हो चुके थे और उसके खिलाफ भयंकर आक्रोश था। इसी कारण कांग्रेस केवल 35 प्रतिशत मत हासिल करके केवल 38 स्थान पा सकी थी। अलबत्ता 1998 के विधानसभा चुनाव बहुजन समाज पार्टी के लिए सुनहरा साबित हुआ था। उसमें 6.15 प्रतिशत मत प्राप्त कर उसने अपने 11 विधायकों को सदन में भेजा था। समाजवादी पार्टी ने सिर्फ 1.58 फीसदी वोट पाए थे और उसके 4 विधायक चुने गए थे।
तीसरी ताकत बीजेपी-कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं !
इस आंकड़ेबाजी का मकसद यह बताना है कि करीब एक दर्जन जिलों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। बीएसपी इस चुनाव में परदे के पीछे से बीजेपी की सहायता कर रही है। ऐसी सूरत में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का इन जिलों में आमने-सामने आना दोनों दलों के लिए शुभ संकेत नहीं है। एक-दूसरे के खिलाफ जंग में उतरना भारत में वैचारिक ध्रुवीकरण की ओर जा रही सियासत के लिए भी अच्छा नहीं माना जा सकता। दोनों पार्टियों को यह समझना होगा।